बॉलीवुड को जश्न मनाने और बल्लियों उछलने का मौका मिल गया है. वजह बने हैं आमिर खान और उनकी एक्स वाइफ किरण राव. जिनकी फिल्म लापता लेडीज ने वो कर दिखाया, जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो. मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में फिल्माई गयी लापता लेडीज को ऑफिशियल तौर पर ऑस्कर 2025 के लिए फॉरेन फिल्म केटेगरी में चुना गया है. पितृसत्ता पर व्यंग्य करती यह हिंदी फिल्म उन 29 फिल्मों में से चुनी गई है जिन्हें ऑस्कर का प्रबल दावेदार माना जा रहा था.
बतौर निर्देशक राव की यह दूसरी फीचर फिल्म है. इससे पहले उन्होंने 2010 में 'धोबी घाट' के साथ अपना डेब्यू किया जिसे दर्शकों के अलावा समीक्षकों ने भी खूब सराहा था. बताया जा रहा है कि फिल्म लापता लेडीज की प्रेरणा आमिर खान को बिप्लब गोस्वामी की कहानी टू ब्राइड्स से मिली थी, जिसे उन्होंने एक स्क्रिप्ट राइटिंग कम्पटीशन के दौरान खोजा था.
लापता लेडीज़ एक ऐसी फिल्म है जो दो नवविवाहित दुल्हनों, फूल कुमारी और जया/पुष्पा की ज़िन्दगी उनकी चुनौतियों को पर्दे पर दिखाती है. फिल्म में दिखाया गया है कि शादी करने के बाद, फूल कुमारी (नितांशी गोयल) और उसका पति दीपक (स्पर्श श्रीवास्तव) कई अन्य दुल्हनों के साथ एक भीड़ भरी ट्रेन में चढ़ते हैं.
परंपरा के कारण, बोगी में जितनी भी दुल्हनें होती हैं, उन्होंने अपने चेहरे को छुपाने के लिए घूंघट किया होता है. फिल्म में दर्शाया गया है कि थकान के कारण दीपक की आंख लग जाती है और वो सो जाता है. जागने पर, अपने गांव में उतरने के लिए दीपक दौड़ता है.
चूंकि ट्रेन में भीड़ थी और साथ ही वहां कई और दुल्हनें भी मौजूद थीं, दीपक अनजाने में गलत लड़की का हाथ थाम लेता है और उसे घर ले आता है. दीपक और उसके परिवार के लोग दुल्हन का स्वागत करते हैं. लेकिन उन्हें गलती का एहसास तब होता है जब दीपक के साथ आई उसकी दुल्हन अपना घूंघट उतारती है. झूठ का सहारा लेकर दुल्हन एक कहानी रचती है और दावा करती है कि उसका नाम पुष्पा है.
इस बीच, फूल, जो दूसरे स्टेशन पर रह गई है, उसकी समस्या अलग है. वह मदद पाने में असमर्थ है क्योंकि उसे ये तक नहीं पता कि उसकी शादी किस गांव में हुई है और वो कहां है. फूल को लगता है कि यदि वो घर लौटी तो उसे शर्मिंदगी और लोगों की बातों का सामना करना पड़ेगा. फूल वहीं स्टेशन पर ही रहने का फैसला करती है, उम्मीद करती है कि दीपक उसे खोजने आएगा.
स्टेशन पर फूल की मुलाकात चाय की दुकान चलाने वाली मंजू माई से होती है जो थोड़ी न नुकुर के बाद फूल को रहने के लिए जगह देती है. फिल्म की दिल को छू लेने वाली कहानी पहचान, सामाजिक अपेक्षाओं और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं के लचीलेपन के विषयों की पड़ताल करती है.
इस बात में कोई शक नहीं है कि फिल्म में नवोदित कलाकार नितांशी गोयल, प्रतिभा रांटा और स्पर्श श्रीवास्तव ने बेहतरीन काम किया. जैसी ये फिल्म थी उसे देखते हुए भी कहीं न कहीं इस बात की अनुभूति हुई कि इस फिल्म का निर्माण ही किरण राव और आमिर खान ने ऑस्कर में ले जाने के लिए किया है. लेकिन क्या सच्चाई इस फिल्म तक सीमित है? क्या इस फिल्म के बाद फूल जैसी महिलाओं की स्थिति ठीक हो जाएगी?
फिल्म बना ली ठीक है, कुछ जरूरी बातें समझें किरण
हम फिर इस बात को कहेंगे कि किरण ने एक बेहद उम्दा फिल्म बनाई है. और जिस तरह उन्होंने पितृसत्ता के मुंह पर तमाचा जड़ा है वो बेमिसाल है. मगर वो जिस समाज से आती हैं वहां की कहानी उस कहानी से बिल्कुल जुदा है जो अपने गांवों या फिर छोटे कस्बों में देखने को मिलती है.
फिल्म देखने के बाद उसका अवलोकन करते हुए ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि आज भी गांवों में या ये कहें कि छोटे कस्बों में ऐसी तमाम फूल और जया / पुष्पा हैं जिन्हें अपने मूल अधिकार पता ही नहीं. इसी फिल्म यानि लापता लेडीज में एक सीन है जहां मंजू माई से बातचीत के दौरान फूल ये बताती है कि वो एक अच्छी लड़की है जो गृहकार्य में दक्ष है. तभी मंजू माई उससे पूछती है कि क्या उसे (फूल) को घर जाना आता है?
हो सकता है उपरोक्त बताया गया सीन एक अदना सा सीन लगे. लेकिन ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है कि यही हमारे गांवों की तल्ख़ हकीकत है. इसी तरह फिल्म में एक सीन वो भी है जहां किसी महिला द्वारा अपने पति के नाम लेने को हव्वा समझा जाता है.
शायद यह बात आपको विचलित करे लेकिन सच यही है कि यूपी बिहार में आज भी तमाम गांव ऐसे हैं जहां पति के नाम लेने को घर की बड़ी बुजुर्ग महिलाओं द्वारा पाप की संज्ञा दी जाती है. हम फिर इस बात को कहेंगे कि भले ही कल की तारीख में लापता लेडीज ऑस्कर जीतने में कामयाब हो जाए. मगर गांवों में रहने वाली फूल जैसी लड़कियों की स्थिति जस की तस रहेगी.
गांव की लड़कियां घूंघट/ बुर्के, पितृसत्ता जैसी चीजों की मोहताज ही रहेंगी. सवाल हो सकता है कि इस दिशा में सुधार कैसे हो? ऐसे में हमारा जवाब यही है कि यदि ऐसा रोकना है तो इसका एकमात्र तरीका शिक्षा का प्रचार और प्रसार है. साथ ही हमें वो तरीके भी निकालने होंगे जिनका इस्तेमाल कर हम गांव या छोटे कज्बों की महिलाओं को उनके अधिकारों से रू-ब-रू करा सकें.
बहरहाल अपनी बातों को विराम देते हुए हम किरण राव और आमिर खान से बस इतना ही कहेंगे कि भले ही फ़िल्में समाज का आईना हों और जो उन्होंने फिल्म में दिखाया हो वो समाज की तल्ख़ हकीकत हो. लेकिन समस्या अब भी ख़त्म नहीं हुई है. बदलाव वक़्त मांगता है और यहां इन गांवों के मामलों में भी बदलाव होते होते वक़्त लगेगा.
शहर में बैठा कोई आदमी या औरत भले ही लापता लेडीज देखते हुए रो दे, लेकिन रोना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. अगर हमें चीजों को बदलना है तो हमें कुछ ठोस और कारगर कदम उठाने ही होंगे. हमें गांवों की महिलाओं को बताना होगा कि उनकी कहानी सिर्फ फ़िल्में बनाने और ऑस्कर लाने का जरिया भर नहीं हैं.
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