डीएनए हिंदी: Chhath Puja in Bihar, Significance- छठ का नाम सुनते ही बिहार के लोग इमोशनल क्यों होते हैं.आखिर बस-ट्रेनों में भारी दिक्कत को सहकर भी किसी भी परिस्थिति में घर पहुंचने की ललक क्यों होती है. छठ पूजा कोई उत्सव या त्योहार मात्र नहीं है. यह एक पारिवारिक-सामाजिक सम्मेलन है जिसे सिर्फ मनाया नहीं जाता है बल्कि पूजा में शामिल होना होता है. छठ में शामिल होना ही इसका असल महत्व है. कोई वर्क फ्रॉम होम वाली बात नहीं है, या कोई दीवाली, दशहरा या करवा चौथ नहीं जो कहीं भी रहकर पूरा कर लिया जाएगा.

यह छठ है जिसको आपके घर की मां - पत्नी या बहन फूफी करेगी जिसके साथ आपका सहयोग होना जरूरी है. बिना सामूहिक सहयोग के यह असंभव है. चार दिन का यह महापर्व हर किसी को अपने प्रभाव में ले ही लेता है. जिनके यहां छठ नहीं होता है वे भी शामिल होते हैं और तो और वे ज्यादा तल्लीनता से शामिल होते हैं. उन्हें दर्जनों सैकड़ों जगह प्रसाद खाना होता है. रास्ते की सफाई से लेकर पर्व करने वालों के लिए विशेष ध्यान रखना होता है.

छठ में सब एक हो जाते हैं

छठ पूजा परिवार की एकता को मजबूत करता है. समाज को मजबूत करता है. किसी कारण से अगर परिवार के बीच मनमुटाव है तो छठ में सब एक हो जाते हैं. हर किसी को मिलकर प्रसाद जुटाने हैं, खाना बनाने हैं और एक पंगत में बैठकर बिना किसी द्वेष के खाने हैं. अगर आपके पास दूध देने वाली गाय है तो बिना मांगे आपको अपने बगल के परिवार को दूध देने पड़ेंगे. यह बिना किसी मांग के होता है. श्रद्धा का अटूट संगम स्वतः विकसित हो जाता है. नींबू-संतरा, गन्ना या गेहूं, घी अगर आपके पास है तो अपने पड़ोसी को देते ही हैं. गांव समाज का सहयोग का अनुपम छटा ही छठ है.
 
सोशल मीडिया मित्र अनुपमा लिखती हैं 

कुछ रोज़ पहले दिल्ली की एक फेसबुक यूज़र का छठ को लेकर किया गया पोस्ट वायरल हुआ, जिसमें उसने लिखा था, “मुझे समझ नहीं आता कि औरतों को दो दिन भूखे रखकर और इतना साफ-सफाई का पाखंड करके कौन से भगवान खुश हो जाते हैं? छठ तो पितृसत्ता को बढ़ावा देने वाला फेस्टिवल है, क्योंकि इसमें औरत बेटे के जन्म की कामना करती हैं.” उसकी इस सोच और छठ के बारे में उसकी जानकारी पर मुझे तरस आता है.

कुछ प्रचंड समाज सुधारकों को लगता है कि यह पर्व पुत्र कामना के लिए किया जाता है. ऐसे लोगों को यह जानना चाहिए कि छठ के गीत में ही ‘रूनकी-झुनकी बेटी दिह हे मइया और दिह पढ़ल पंडितवा दामाद’ के बोल भी शामिल होते हैं. छठ में बेटा या बेटी नहीं, बल्कि संतान प्राप्ति और उसकी खुशहाली की कामना निहित होती है. हो सके पितृ सत्ता के वर्चस्ववादी सिद्धांत में कुछेक हद तक यह बात रहा हो लेकिन छठ ने तो इस असामाजिक सोच को भी बदला है और इसका स्वागत पूरा बिहार पूरे दिलोजान से कर रहा है.

पारिवारिक संस्कृति तथा मूल्यों के महत्व को समझने और समझाने का पर्व

ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में गांव की सभ्यता से कटकर हम शहर की चकाचौंध में उलझे हैं लेकिन छठ आज भी इससे अछूता है, क्योंकि इसपर शहरीकरण और पश्चिमीकरण का वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाया है. पढ़ाई या नौकरी के लिए कई लोग अपने घर-परिवार से दूर रहकर भाग-दौड़ वाली ज़िंदगी जी रहे हैं. ऐसे में जहां परिवार के लोगों का जुड़ाव भी फोन कॉल्स, टेक्स्ट और वीडियो कॉल तक सीमित होकर रह गया है, उन्हें छठ अपनी बिज़ी़ लाइफ में पॉज़ बटन दबाने की वजह देता है. कुछ फुरसत के पल अपने और अपनों के बीच बिताने का, पोते-पोती वाली जेनरेशन को दादा-दादी वाले जेनरेशन के साथ मिलकर एक ही छत के नीचे छठ की तैयारी करने का, परिवार और पारिवारिक संस्कृति तथा मूल्यों के महत्व को समझने और समझाने और पुराने शिकवे शिकायतों को भूलकर रिश्तों को नए उत्साह से जीने का. 

जाति, धर्म या समुदाय से उपर है छठ का पर्व

हमारे समाज में ज़्यादातर पर्व-त्योहार किसी ना किसी व्यक्ति विशेष वर्ग के दायरे में बंधे नज़र आते हैं लेकिन छठ एक ऐसा पर्व है, जिसे किसी भी जाति, धर्म या समुदाय महिला एवं पुरूष, विधवा, सधवा, कुंवारे और किन्नर सभी कर सकते हैं, वह भी एक ही विधि से एक ही तट पर खड़े होकर. यह अनुष्ठान अपनी इच्छाशक्ति से किया जाता है. सफाई के महत्व को समझते हुए भारत सरकार द्वारा प्रायोजित स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है लेकिन हज़ारों सालों से मनाए जा रहे छठ पर्व में हमेशा से ही स्वच्छता का विशेष महत्व रहा है, चाहे वह अर्घ्य देने वाले घाट हों या खुद का घर, महीनों दिन पहले से सबकी साफ-सफाई शुरू हो जाती है.

गेहूं धोकर सुखाने का भी आता है मज़ा 

मेट्रो सिटी की ऊंची-ऊंची इमारतों में रहने वाले लोग क्या जानेंगे कि छत या आंगन में गेहूं धोकर सुखाने का मज़ा क्या होता है? उस गेहूं को कौआ, गिलहरी या चिड़ियां जूठा ना कर दे, इसके लिए धूप में बैठकर हाथों में डंडा थामे रखवाली करने में भी कितना सुख और आनंद मिलता है। छठ मात्र एक पर्व नहीं है, बल्कि भावनाओं का समावेश है जिसमें रूठे फुआ, चाचा-चाची सब एक ही घाट पर एक साथ खड़े होकर अर्घ्य देते हैं. रात भर जागकर प्रसाद बनाते हैं और परिवार में आपसी मतभेद से जिन लोगों के बीच बात तक बंद हो चुकी हो, उनके भी पैर छूकर समृद्धि का आशीर्वाद लेते हैं. 

लोकपर्व छठ का पहला दिनः नहाय-खाय


'नहाय खाय' के साथ छठ व्रत का 4 दिवसीय महापर्व प्रारंभ होता है. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष दिन चतुर्थी को नहाय खाय होता है. लौकी की सब्जी का इसमें महात्य है. सबसे पहले सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पूरे घर द्वारा को लीपा पोती होती है. एक एक कोने को पानी से पवित्र किया जाता है. फिर मिट्टी के चूल्हे को पूजा करके उसके ऊपर लौकी की सब्जी सेंधा नमक के साथ बनाया जाता है. समुद्री नमक का यहां नो एंट्री है. पाकिस्तान में भी सेंधा नमक होता है.

वैश्वीकरण सौहार्द्र का अनुपम उदाहरण. चने के दाल और चावल से प्रसाद बनाया जाता है. पर्व करने वाले व्रती जिसे परवैतिन कहा जाता है, वे प्रसाद ग्रहण करते हैं. फिर परिवार के अन्य लोग. आज का दिन खाली नहीं बीतता है. दिन भर परवैतिन लोग प्रसाद की खरीदारी, चूल्हे की सुखाई, गेहूं की साफ सफाई, सुखाई में व्यस्त रहते हैं. बाकी सदस्य रास्ता घाट की तैयारी में लगा रहता है. पूरा लोक मानस छठ के अधीन है.जो परवैतिन है वह तो है ही! अन्य लोग भी उसी रंग में रचा बसा है. आज शाम को अंतिम नमक भोजन खाया जाता है. फिर आज रात के बाद से अखंड बरत शुरू.

खरना अर्थात लोहड़ का दिन


नहाय खाय के बाद दूसरा दिन लोकपर्व छठ का है. नहाय खाय मध्य रात्रि के बाद निर्जला आज पूरे दिन परवैतिन को रहना होता है. गंगा जल के पानी से खरना का प्रसाद तैयार किया जाता है. जहा गंगाजी नहीं है वहां इनका पानी का प्रयोग किया जाता है. 

जिस गाय के बच्चे न हों उस गाय के दूध से महाप्रसाद नहीं बनता है


मिट्टी के चूल्हे पर सब कारज किए जाते हैं. शुद्ध दूध, शुद्ध चावल और गुड़ मिश्रित खीर तैयार किया जाता है.  बाहर से एक भी पदार्थ का आगमन सख्त मनाही है. लोहड़ के सुबह मैं अपने पड़ोस में 3 जगह दूध देने गया था. तीनों परिवार ने मुझसे पूछा कि गाय का दूध उस गाय का है न जिसका बच्चा हो. मतलब कि जिस गाय के बच्चे न हों उस गाय के दूध से महाप्रसाद नहीं बनता है. अब यह उपलब्धता पर जरूर निर्भर करता होगा, लेकिन आज यही सुनने को मिला. कई लोगों से बात करके इसको कन्फर्म किया. इसके पीछे बोध यह है कि जिस गाय के बच्चे होते हैं वे शारीरिक रूप से पुष्ट होते हैं और निरोगी काया होने के कारण उनका दूध शुद्ध है.

मुंह कंकड़ आते ही खाना होता है बंद, चंद्र अस्त के जल भी नहीं लिया जाता है


कहा जाता है कि परवैतिन खीर पूरी भोग के समय अगर गलती से एक कंकड़ मुंह में पड़ जाए तो उसी समय खाना बंद कर देना होता है, भले एक दाना ही क्यों न कंठ में जाए! चांद दिखने तक ही जल या दूध पर्व करने वाले लोग ग्रहण कर सकते हैं. रात 8 बजे तक पूर्ण चांद रहता है. चंद्र अस्त बाद  कुछ नहीं खाना है. एक बूंद जल भी नहीं. अंतिम प्रसाद के बाद अगले पूरे दिन भूखा रहना है, निर्जला! तीसरे दिन सूर्य के उदय तक


खीर से बना महाप्रसाद हर किसी को खाना होता है. बिहार में शायद ही एकाध अभागे होंगे जो खीर प्रसाद नहीं खायेंगे. जिस परिवार में बरत नहीं हो रहा है उसको तो 10 जगह खाना होता है. यही इसका समाजिक महत्व 

महापर्व छठ का तीसरा दिन

संध्या अर्घ्य का दिन. डूबते सूरज को अर्घ्.। उसकी वंदना और सब कुछ वह समर्पित जो पूजा के लिए सामग्री जुटाया गया है. पूरी, ठेकुआ, कसार, चना, मूली, संतरा, केवला, सेव, अनार, ईख, सुथनी, हल्दी, अदरक समेत दर्जन भर पदार्थ जो सहजता से उपलब्ध हो जाते हैं. कलसुप पर रखा जाने वाला एक भी पदार्थ मिलावटी नहीं होना चाहिए. सब कुछ सेल्फ मेड होता है. बाजार से दूर दूर तक वास्ता नहीं है. 

सब कुछ सेल्फ मेड होता है

सुबह से ही पूरे लोग फल फूल की खरीदारी में लग जाता है. जो परवैतिन है वे ठेकुआ, कसार, पूरी बनाने में सुबह से जुट जाती है.  5/10 किलो आटे की ठेकुआ प्रायः बनता है. गुड़ और शुद्ध देसी घी के मिश्रण से पूजन भर ठेकुआ बनता है. बाकी अन्य के लिए अब सुबिधा के अभाव में रिफाइंड तेल का प्रयोग होता है. शाम ढलने से कुछ देर पहले दउरा में कलसुप रखके सारे सामग्री को सजाया जाता है. घी के दीया जलाकर दौरा पर रखकर घाट के लिए चल दिया जाता है. 

बहंगी लचकत जात जैसे गीत

यही वो मधुर संगीत आपने सुना होगा "बहंगी लचकत जात". बहंगी वही है जिसे हम दउरा कहते है.कांच ही बांस के बह्नगिया. बांस से बना कलसुप और दउरा का रचनाकार समाज की सबसे निम्न कही जाने वाली जाति डोम के यहां से बनकर आता है. जो अछूत है उसका बनाया सामग्री सबसे पवित्र है. बिहार में यह जाति हासिये पर खड़ी है. छठ में आदरणीय होकर सबसे आगे खड़ी हो जाती है. मिट्टी के दीये और आहुति बर्तन कुम्हार के यहां से आता है. मालिन के यहां से फूल! सर्व समाज का अटूट नैसर्गिक बंधन.  काश यह हर समय समाज को प्रज्वलित करता रहता. छठ ने कई राह सुझाये है, उसे जीवन में उतारना हमारी नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए.
 
घाट पर माँ अर्घ्य देती है और बच्चे उनके सहयोगी बनते है. पानी और दूध अर्पित करके. माताजी अपने संतान की सलामती के लिए ही तो बरत रखती है. यह त्योहार हर किसी को शामिल होने के लिए ही बना है. दूर रहकर कुछ पता नहीं चलेगा.

उगते हुए सूर्य को अर्घ्य के साथ ही पर्व की समाप्ति होती है

पहले अर्घ्य के बाद रात भर जागकर लोकगीत गाए जाते हैं. भोर में छठ घाट जाना होता है. उगते हुए सूर्य को अर्घ्य के साथ ही पर्व की समाप्ति हो जाती है. यह वह समय है जब तमाम छोटे बड़े लोग सभी पर्व करने वाले परवैतिन के पैर छूते है. क्या ऊंच नीच और क्या किसकी जाति! बस आशीर्वाद लेने है.पर्व करने वाले देवता स्वरूप हो जाते है और बाकी लोग याचक! महसूस होता है कि परवैतिन आशीर्वाद देगी तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा. समाजिक बंधन का अलौकिक एहसास मन को विभोर कर देती है.

रंजन यादव, सोशल एक्टिविस्ट

  • यह लेख रंजन यादव का है. लेखक सा​माजिक मुद्दों पर लिखते-पढ़ते हैं और सोशल एक्टिविस्ट हैं.

 

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Memories of Chhath Puja and Bihar connection Rituals significance festival Family's relationship with Chhath
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छठ का नाम सुनते ही बिहार के लोग इमोशनल क्यों हो जाते हैं?
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छठ का नाम सुनते ही बिहार के लोग इमोशनल क्यों हो जाते हैं? क्यों है संवेदनाओं का ये पर्व