उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव बेहद नजदीक हैं. सभी राजनीतिक पार्टियां चुनावी बिसात बिछा चुकी हैं. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) का मुकाबला समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस से है. अन्य राजनीतिक दल इन्हीं बड़ी पार्टियों के घटक दल हैं. सभी राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खिलाफ चुनावी समर में अपना भाग्य आजमाने उतर रही हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जोड़ी से किन नेताओं का मुकाबला होने वाला है.
1. अखिलेश यादव
अखिलेश यादव, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. सपा यूपी में प्रमुख विपक्षी पार्टी है. सियासी समीकरणों पर गौर करें तो बीजेपी की सीधी लड़ाई सपा से ही है. अखिलेश यादव आजमगढ़ से सांसद हैं. साल 2012 में पहली बार अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. सपा की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा भी अखिलेश यादव हैं. युवाओं में उन्हें लेकर क्रेज है. जमीन पर भी सपा की स्थिति अन्य राजनीतिक पार्टियों की तुलना में बेहद मजबूत है. फिलहाल सपा के विधानसभा में विधायकों की संख्या 49 है. मुख्य विपक्षी दल भी सपा ही है. अखिलेश यादव बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती माने जा रहे हैं.
2. मायावती
बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री हैं. मायावती 4 बार मुख्यमंत्री पद संभाल चुकी हैं. मायावती पहली बार जून 1995 में मुख्यमंत्री बनीं थीं, फिर 1997 में और 2002 में. 2002 में तो बसपा और बीजेपी के बीच गठबंधन भी था. मायावती फिर 2007 में मुख्यमंत्री बनी. इस बार उन्होंने अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया. मायावती एक अरसे तक यूपी में मजबूत जनाधार रहा है. मायावती को दलितों का प्रमुख नेता माना जाता है. 2012 में सपा की वापसी और अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद बसपा का जनाधार कम होता गया. बीजेपी जहां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी, वही बीजेपी 2017 के चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ आ गई. बीजेपी के पास 304 विधायक हैं. बसपा के पास महज 15. ऐसे में 2019 के लोकसभा चुनाव में भले ही सपा के गठबंधन की वजह से बसपा पास 10 सांसद हो गए हों लेकिन गठबंधन टूटने के बाद मायावती अकेले कमजोर पड़ गई हैं. उनके बड़े वोटर बीजेपी, कांग्रेस और सपा में बंट गए हैं.
3. प्रियंका गांधी
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की यूपी की राजनीति में एंट्री देर से हुई. कांग्रेस पार्टी में बैकग्राउंड में काम संभाल रही प्रियंका गांधी वाड्रा अब फ्रंट फुट पर खेल रही हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने औपचारिक रूप से एंट्री ली. पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान उन्हें सौंपी गई. उन्होंने पूरा जोर लगाया लेकिन तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी संसदीय सीट अमेठी हार बैठे. प्रियंका का ट्रैक रिकॉर्ड शून्य पर सिमट गया. प्रियंका 2019 से ही यूपी में जड़ें जमाने की कोशिश कर रही हैं. कांग्रेस के पास यूपी में महज 7 विधायक हैं. यह भी तब जब 2017 में कांग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन किया था. प्रियंका की अगुवाई में कांग्रेस किसी के साथ गठबंधन अभी करती नजर नहीं आ रही है. ऐसे में देखने वाली बात यह होगी कि उनकी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू की चुनावी जोड़ी कितना कामयाब होती है. हालांकि एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं की कमी से जूझ रह है.
4. ओम प्रकाश राजभर
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर अब योगी सरकार के खिलाफ एक बार फिर हो गए हैं. बीजेपी से नजीदीकियां बढ़ाने की कोशिश कर रहे राजभर ने अखिलेश यादव के साथ जाने का फैसला किया है. उससे पहले उन्होंने ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन का साथ छोड़ा. सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी के 4 विधायक हैं. यूपी में एक बड़ी आबादी राजभर जाति की है. ओम प्रकाश राजभर को इस समुदाय का बड़ा नेता माना जाता है. ऐसे में सपा के साथ उनके गठबंधन को अहम समझा जा रहा है. ओम प्रकाश राजभर योगी सरकार में मंत्री भी रहे लेकिन उन्हें बाद में मंत्रिमंडल से बाहर जाना पड़ा. वे लगातार योगी सरकार को अपने भाषणों में निशाना पर ले रहे थे.
5. जयंत चौधरी
जयंत चौधरी, राष्ट्रीय लोकदल पार्टी (रालोद) के अध्यक्ष हैं. रालोद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की प्रमुख पार्टी है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट वोटरों के बीच इस पार्टी की अच्छी पकड़ है. जयंत चौधरी, चौधरी चरण सिंह के पोते हैं. गन्ना किसानों के भुगतान और कृषि आंदोलन पर जयंत चौधरी बीजेपी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं. रालोद सपा की पुरानी सहयोगी पार्टी रही है. ऐसे में एक बार फिर सपा ने जयंत चौधरी का साथ पकड़ा है. हालांकि अभी रालोद के पास न तो कोई विधायक है न ही सांसद. जयंत चौधरी लोकसभा सांसद भी रहे हैं.
6. असदुद्दीन ओवैसी
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के मुखिया असुदुद्दीन ओवैसी को मुसलमानों का बड़ा नेता माना जाता है. वे अपने समुदाय की आवाज सार्वजनिक मंचों से उठाते रहे हैं. 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनावों में उन्होंने चुनावी समर में अपनी पार्टी को उतारने का फैसला किया. 5 सीटें आईं. तब से ही उनके हौसले बुलंद हैं. मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए एक बार फिर ओवैसी यूपी में हाथ आजमाना चाहते हैं. हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की राह यूपी में आसान नहीं है. उन्हें सपा, बसपा और कांग्रेस से चुनौती मिलनी तय है. ऐसे में बिहार वाली सफलता वे दोहरा पाएंगे या नहीं, राजनीति के जानकार संशय में है.
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