मोहम्मद रफी ज़िंदा होते तो 97 साल के होते. 24 दिसंबर 1924 को उनका जन्म हुआ था. चालीस के दशक से फ़िल्मों में उन्होंने जो गाना शुरू किया तो मृत्यु-पर्यंत यानी 1980 तक गाते ही रहे. ज्यों-ज्यों समय जा रहा है मोहम्मद रफ़ी की गायकी अपने नए-नए तेवरों से मुझे अभिभूत कर रही है.
वह लता मंगेशकर नहीं थे. लता की तरह सिर्फ अच्छे गीत चुन कर गा लें यह अफोर्ड करना उनके लिए मुश्क़िल था. मर्द थे इसलिए लफंगई के गाने भी उनके हिस्से आते. 'सिर जो तेरा चकराए...' से लेकर 'याsहूs' जैसे गीत उन्हें गाने पड़ते थे.
रफ़ी साहब ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे. इसलिए गीत किसी अपने रिश्तेदार से उर्दू में लिखवा लेते थे तब उसे देख कर गाते थे. यह बात मुबारक बेगम ने विविध भारती के साथ एक इंटरव्यू में दर्ज की है.
रफ़ी की अहमियत उन गानों की वजह से है जिनमें अपनी आवाज़ का उन्होंने कलात्मक और मर्मभेदी इस्तेमाल किया है. फिर वे दर्दभरे गीत हों या हर्षोल्लास के. स्त्री-पुरुष प्रेम से लेकर भक्ति तक, हर तरह के मनोभाव को उन्होंने सौ टका खरे रूप में पेश किया है.
'सुहानी रात ढल चुकी' (दुलारी/ 1949) वह पहला गीत है जिसमें रफ़ी की आवाज़ के गुणों का चौतरफ़ा खुलासा हुआ है – सुर-लगाव, मींड़, ठहराव, उच्चारण में सफ़ाई, भावानुसार काकु-प्रयोग, इत्यादि.
गीत और उसकी धुन को देखकर ही वह कल्पना कर लेते थे कि अमुक अभिनेता गीत पर किस तरह अभिनय करेगा. इसलिए उनकी गायकी अमूमन हर अभिनेता के लिए अलग-अलग पहचानी जा सकती है. गायकी में अभिनय भर देने की ऐसी कला मुश्क़िल से ही कहीं और मिलेगी.
शास्त्रीय संगीत का मुहावरा भी रफ़ी ने अपने गीतों में ख़ूब निभाया. ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ राग हमीर के स्वरों में हमेशा आकर्षित करता है. ’कुहू-कुहू बोले कोयलिया' लता मंगेशकर के साथ उनका ऐसा डुएट है जिसे सुनते मन नहीं भरता और बार-बार दाद देनी पड़ती है.
'शराबी' फ़िल्म का एक गीत है 'मुझे ले चलो' तालबद्ध होते हुए भी बीट से अलग जा-जा कर इस गीत को गाना बेहद मुश्क़िल काम था लेकिन रफ़ी ने जिस कुशलता से भाव में डूब कर इसे गाया है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है.
ठीक इसी की टक्कर की एक नज़्म फ़िल्म 'हक़ीक़त' में है – 'मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था. मींड़ों और मुरकियों के परस्पर इतने सटे होने के बावजूद रफ़ी जिस निपुणता और सहजता से ऐसे गीतों को पेश कर देते थे, सचमुच दुर्लभ है. गायकी में इस तरह अनायास तैरते जाने की कला पर मोहम्मद रफ़ी का लगभग एकाधिकार था. उनकी आवाज़ में ख़ास तरह की एक नैसर्गिक गूंज भी थी. लगता जैसे आवाज़ किसी गुफ़ा में हो कर आ रही हो.
बेहद ज़हीन किन्तु धर्मभीरु इन्सान थे रफ़ी साहब. इन्सानियत से भरे हुए. लता मंगेशकर के साथ सैद्धान्तिक मतभेद की एकमात्र घटना को छोड़ दिया जाए तो उनका विरोध करने वाला शायद ही कोई दिखे. वह अजातशत्रु थे. सभी संगीतकारों के अत्यन्त प्रिय.
नौशाद भी मोहम्मद रफ़ी को बहुत चाहते थे. एक से एक भावपूर्ण रचना उन्होंने गवाई. पर, यक़ायक़ नौशाद अली पर रफ़ी के कंठ की रेन्ज के इस्तेमाल की धुन सवार हुई. ‘ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद, ऐ मुहब्बत ज़िन्दाबाद’ , ‘ओ दुनिया के रखवाले’ जैसे गीतों में रफ़ी को उन्होंने तार सप्तक में चीख़ने पर मजबूर कर दिया.
पहले हर गीत की रिहर्सलें भी ख़ूब होती थीं. कभी-कभी तो महीने-महीने भर. नौशाद अली की ज़िद का रफ़ी की आवाज़ को ख़ामियाज़ा उठाना पड़ा. नतीजतन उनका कंठ-स्वर धीरे-धीरे डैमेज होता चला गया.
हिन्दू-मुस्लिम करने वालों के लिए मोहम्मद रफ़ी बड़ी चुनौती रहे हैं. 'सुनो, सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी' से लेकर 'मन तड़पत हरि दरसन को आज' तक उनकी गाई न जाने कितनी रचनाएं धर्मनिरपेक्षता की मिसाल हैं. पचास साल पुराने गीत 'बहारो फूल बरसाओ' के बिना तो आज तक किसी हिन्दू की बारात नहीं चढ़ती. मुहम्मद रफ़ी कितने बड़े गायक हैं इसकी पहचान होना अभी बाक़ी है.
(प्रोफेसर मुकेश गर्ग दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते थे. वह शास्त्रीय संगीत भी गाते हैं. उनके फेसबुक वॉल से यह लेख साभार प्रकाशित किया जा रहा है)
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