ये फरवरी का एक दिन था. कोई चौदह-पंद्रह साल पहले. मेरठ-बागपत के रास्ते पर एक गांव पड़ता है. रोहटा. हम दो दोस्त रोहटा में रहने वाले एक अन्य दोस्त के घर पर ठहरे हुए थे.
उस साल खूब सर्दियां पड़ी थीं. दिन-दिन सूरज के दर्शन नहीं होते. धुंध में दूर-दूर तक के खेत डूबे रहते. गन्ने के ऊंचे ऊंचे खेतों के बीच की पंक्तियों पर खड़े हुए पोपलार के पेड़ अपनी सारी पत्तियों को गंवाकर नंगे-बुच्चे खड़े रहते. शर्मिंदा से. उनके नंगे होने से पक्षियों के भेद भी उजागर हो चुके होते. नंगी टहनियों के बीच में फंसाए घोसले दूर से चमक उठते. गेंहू के खेतों के बीच-बीच में सरसों की क्यारियां लगी होतीं. लेकिन, रात जितनी भी संगीन होगी, सुबह उतनी ही रंगीन होगी की तर्ज पर जाड़ा बहुत तेजी से भाग गया. ऐसी तेजी से कि लगा कि न जाने कितनी जल्दी थी, उसे जाने की. फिर क्यों यहां पर इतने दिनों तक अपने जुल्मों-सितम दिखाता रहा.
फरवरी के जिस दिन की बात यहां पर हो रही है, उस दिन खूब धूप निकली हुई थी. गरम कपड़ों की ज़रुरत ख़त्म हो गई थी. हम बस उसे किसी आदत की तरह बस शरीर पर लादे रहते थे. जब सहन नहीं होता था तो स्वेटर को कमर पर बाहों के सहारे बांध लेते थे. ऐसे ही एक दिन मैं और मेरा दोस्त साइकिल पर सवार होकर अपने एक और दोस्त से मिलने के लिए रासना गांव जा रहे थे. रोहटा और रासना की दूरी चार-पांच किलोमीटर की रही होगी. हम दोनों साइकिल पर सवार होकर पता नहीं किस बात पर बहस फंसाए और ऊंची आवाज में बोलते और एक हाथ से हैंडल पकड़े और दूसरे हाथ से अपनी बात पर अतिरिक्त जोर देने के लिए उसे हवा में हिलाते हुए चले जा रहे थे.
अचानक दिखी थी मधुमक्खियां
मेरठ-बागपत रोड से रासना की तरफ मुडकर यही कोई आधा किलोमीटर दूर तक हम लोग गए होंगे. स्कूल की छुट्टी हुई थी. बच्चे स्कूल से वापस आ रहे थे. बहस की तमाम उत्तेजना के बीच भी मेरी नजर पड़ी कि तीन-चार बच्चों के एक झुंड ने अचानक से अपना बस्ता सड़क के किनारे लगे जामुन के पेड़ की तरफ उछाल दिया. बस्ता पहले तो ऊपर उछला फिर जमीन पर गिर गया. फिर उन बच्चों ने बस्ते को उठाया और उसे लेकर सरपट गन्ने के खेत में भाग लिए. ये दृश्य मेरी नजर से गुजरा लेकिन इस दृश्य के अर्थ दिमाग में नहीं खुले.
हम उसी तरह से बहस करते हुए साइकिल पर आगे बढ़े. इतने में मेरी साइकिल के पहियों के नीचे ढेर सारी मधुमक्खियां दबने लगीं. मैंने देखा कि मधुमक्खियों का पूरा झुंड जमीन पर गिरा पड़ा है. मैंने अपने दोस्त से कहा भी कि यार इतनी सारी मधुमक्खियां जमीन पर कैसे गिरी है. इससे पहले कि कोई जवाब सूझता या कुछ बात होती वे सारी मधुमक्खियां मुझसे चिपकने लगीं. ढेर सारी मधुमक्खियां मेरे सिर, गर्दन, मुंह पर आसपास चिपक गई. कुछ ने शायद मुझे काट भी लिया. मैं साइकिल छोड़ सड़क के एक किनारे अपने दोनों हाथों से अपना मुंह छिपाए बैठ गया.
मैंने कहीं सुन रखा था कि अगर मधुमक्खियां चिपट जाएं तो कुछ करना नहीं चाहिए. चुपचाप शांत बैठे रहने से कुछ ही देर में वे वापस चली जाती हैं. मैंने ऐसा करने की कोशिश की. चेहरे को मैंने हाथों से ढक रखा था. मेरे पूरे हाथ पर मधुमक्खियां चिपकी हुई थीं. मेरे चेहरे पर भी ढेरों मधुमक्खियां थीं. मेरी गर्दन और सिर पर भी मधुमक्खियों के झुंड थे. मेरे दिल की धड़कनें बहुत तेज थीं. उनके पंखों की आवाज मेरे कानों में बहुत तेजी से गूंज रहे थे. कुछ मधुमक्खियां शायद मेरे कानों में भी घुसने का प्रयास कर रही थीं.
बचने के तमाम उपाय कर रहा था मैं
कुछ मधुमक्खियों ने शायद मुझे काटा था. मुझे दर्द भी हो रहा था. फिर भी मैं शांत रहने की कोशिश कर रहा था. लेकिन, मेरे अंदर ज्यादा धैर्य नहीं रहा. मैं धीरे-धीरे अपने हाथों से उन मधुमक्खियों को हटाने की कोशिश करता. वे मेरे चेहरे पर रेंग रही थीं. मुझे उन पर गुस्सा भी बहुत आ रहा था. इसी गुस्से में मैंने कुछ मधुमक्खियों को मसल भी दिया. मेरी उंगलियों में वे बहुत छोटी थीं. उन्हें मसलना मेरे लिए चुटकियों का काम था. लेकिन, पता नहीं इससे क्या हुआ. हजारों मधुमक्खियों का झुंड मेरे ऊपर मंडराने लगा और ढेर सारी ने मुझे काटना शुरू किया. उनके डंक मेरे चारों तरफ चुभ रहे थे. गुस्से में मैंने भी उन्हें पकड़-पकड़कर मसलना शुरू किया. लेकिन, उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी.
मैं सड़क के किनारे मधुमक्खियों के झुंड से लड़ रहा एक पागल जैसा हो गया था. मुझे अपने आसपास की आवाजें भी सुनाई पड़ रही थीं. मुझसे कुछ दूरी बनाकर लोगों का बड़ा सा झुंड एकत्रित हो गया था. उसमें से कोई कह रहा था कि धुंआ करना पड़ेगा. कोई कह रहा था कि कंबल ओढ़ाने से कुछ हो सकता है. मेरा दोस्त भी लोगों से माचिस की दरयाफ्त कर रहा था. वहां पर गन्ने की सूखी पत्तियों की कोई कमी नहीं थी. लोगों ने कुछ दूरी पर आग सुलगाने का प्रयास भी किया. लेकिन, यह सबकुछ बहुत तेजी और हड़बड़ी से हो रहा था. कुछ हो रहा था, कुछ नहीं हो पा रहा था. मैंने अपनी कमीज को मुंह पर ढंककर भी मधुमक्खियों से बचने का प्रयास किया. लेकिन, उससे बचाव कुछ नहीं हो सका. किसी की हिम्मत भी मेरे पास आने की नहीं हो रही थी. उन्हें डर था कि मधुमक्खियां कहीं मुझे छोड़कर उन्हें न पकड़ ले.
मुझे अपने आसपास की सारी आवाजें साफ आ रही थीं. मुसीबत के समय दिमाग बहुत तेजी से दौड़ने लगता है. इसका अहसास भी मुझे पहली बार उसी दिन हुआ. अचानक से मेरे दिमाग में वो सारा दृश्य किसी एक झनाके में घूम गया. स्कूल के वो बच्चे. जामुन के उस पेड़ की तरफ उनका फेंका गया बस्ता. बस्ते को जमीन से उठाना और फिर सरपट गन्ने के खेतों में भाग जाना. एक पल में ही सारा कुछ मेरी आंखों के सामने आ गया.
मैं तुरंत ही वहां से उठा और गन्ने के खेत में घुस गया. मेरे पीछे मधुमक्खियों का झुंड भी भागा. गन्ने के पेड़ों के बीच से छिपते-छिपाते और रेंगते हुए नीचे से गुजरते हुए मधुमक्खियों की संख्या बहुत कम हो गई. उनका झुंड पीछे छूट गया. गन्ने के खेतों में छिपे-छिपे ही मैं काफी दूर तक चला गया. मेरे शरीर पर अभी भी बहुत सारी मधुमक्खियां चिपटी हुई थीं. उनके डंक मेंरे शरीर में चुभकर टूट गए थे.
गन्ने के खेतों के अंदर-अंदर से घूमते हुए में एक बड़ा सा घेरा काटकर फिर वहीं पहुंचा. मैंने दूर से ही अपने दोस्त से साइकिल लाने को कहा. वो साइकिल लेकर आया और हम तुरंत ही साइकिल चलाकर वापस रोहटां पहुंच गए.
तुरंत उपचार ने बचा लिया मुझे
रोहटा बाजार में ही एक छोलाछाप डाक्टर साहेब की प्रेक्टिस थी. आते-जाते-गुजरते उनसे थोड़ा परिचय भी हो गया था. उनके पास पहुंचकर हमने सारी गाथा कह डाली. मुझे कुछ भी याद नहीं कि उसमें क्या था लेकिन डाक्टर साहेब ने दोनों हाथों में एक-एक इंजेक्शन लगाया. मुट्ठी भर दवाइयां खाने को दीं. जो कि मैंने वहीं पर खा लीं. फिर घर पर खाने के लिए दिया. घर पर जाकर आराम करने को कहा और बोला कि अगर कोई भी गैर-जरूरी लक्षण दिखे तो तुरंत आ जाना. मेरे शरीर में, सिर में कुछ डंक गड़े हुए थे. जिसे उन्होंने चिमटी से पकड़-पकड़कर बाहर किया. हम लोग तुरंत अपने उस दोस्त के यहां पहुंचे. जिसके यहां रुके हुए थे. मैं बहुत ज्यादा थका हुआ था. बहुत ज्यादा दर्द भी हो रहा था.
वहां से जाकर जैसे ही मुझे बिस्तर मिला मैं सो गया. दवाइयों का असर भी रहा होगा. मेरे पीछे मधुमक्खियों के काटने के तमाम किस्से भी जरूर चले होंगे. लेकिन, मैं उनसे नावाकिफ हूं. मेरे दोस्त की मां ने रात के खाने के बाद एक गिलास दूध में एक कलछुल घी डालकर दिया. बोला सब ठीक हो जागा. फिकर मत कर. मैं क्या फिकर करता. सो गया.
खैर मैं अगले दिन ठीक हो गया. कोई खास लक्षण नहीं आए. लेकिन, मैं हमेशा सोचता हूं कि मैं उस दिन मर सकता था. अगर डाक्टर दूर होता. मुझे तुरंत ही उपचार नहीं मिल गया होता. अगर मुझे गन्ने के खेत में छिपने का खयाल नहीं आया होता. या हो सकता है कि नहीं मरता. कुछ भी हो सकता था. इसके लिए मधुमक्खियों को दोष दिया जाता.
कहां होंगे वे बच्चे?
आज भी एक बात है जो बार-बार मेरे मन में आती है. वो बच्चे जिन्होंने मधुमक्खी के छत्ते में अपना बस्ता फेंककर मारा था. वो आज कहां होंगे. क्या जब हजारों मधुमक्खियों ने मुझे घेर रखा था, तब वे भी उस भीड़ में शामिल रहें होगे. क्या मेरी हालत देखकर वे हंस रहें होंगे या फिर उन्हें दया आई होगी. या फिर उन्हें अपनी हरकतों पर पछतावा हुआ होगा.
वे बच्चे आज क्या कर रहे होंगे. क्या अपनी हरकतों पर पछतावा उन्हें किसी प्रकार के प्रकृति प्रेम की तरफ ले गया होगा.
आखिर वे कहां पर होंगे. क्या उन्हें कभी पता चला होगा कि मधुमक्खी कभी भी किसी को अपने शौक के लिए नहीं काटती. एक बार डंक मारने के बाद वो खुद भी मर जाती है. किसी को डंक मारने का मतलब है कि वो खुद अपनी जान ले रही है.
क्या वो कभी जान पाएंगे कि हमारी ये कायनात मधुमक्खियों की मेहनत पर टिकी हुई है. हम उन्हीं की मेहनत का खाते हैं. ढाई लाख से ज्यादा पेड़-पौधों का परागण वे करती हैं. जिसके बाद फल, सब्जी और बीज पैदा होते हैं. जिन्हें हम खाते हैं.
मैं एक अकेला था, मेरा जीवन कुछ भी नहीं. इंसानों की तादाद कभी खत्म नहीं होने वाली. उनकी नस्ल पर कोई खतरा नहीं. लेकिन, मधुमक्खियों की नस्ल पर खतरा है. उनकी तादाद खत्म हो रही है.
क्या उनको कभी इस बात का फर्क पता चलेगा......
मधुमक्खियों का एक डंक है, जो आज भी मुझे कहीं चुभा हुआ है....
(कबीर संजय पर्यावरणविद् हैं. लेखक हैं. यह पोस्ट उन्होंने अपनी सिगरेट छोड़ने की कहानी पर लिखा है.)
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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