लड़के चाहे जितने नालायक हों और कभी भी मां-बाप का कहना न मानते हों पर शादी और दहेज (Dowry) के समय एकदम आज्ञाकारी हो जाते हैं. लड़कियां आम तौर पर मजबूर होती हैं जिन्हें किसी से शादी करने का हुक्म मिलता है, चुपचाप उसके साथ जाना ही पड़ता है. दहेज स्वीकार करना मेरी समझ से आत्मसम्मान से समझौता करना है.
विवाहिता जानती है कि उसका दहेज जुटाने में घरवालों को किस त्रासदी से गुजरना पड़ा था. यह जानते हुए भी वह अपने पति और ससुराल में किन मुश्किलों से तारतम्य बैठाती है वह आश्चर्य ही है. परिवर्तन सिर्फ़ लड़के ला सकते हैं जो अगर तन के खड़े हो जाएं कि वह अपनी होने वाली पत्नी को उसकी ससुराल वालों की लालच के सामने मुंह दिखाने लायक नहीं रह पायेंगे तो मामला बन सकता है.
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शास्त्र कहता है-
स्वार्जित: परमम् वित्तम मध्यमम् पित्रार्जितम्।
अधमम् भ्रातृ वित्तम् च स्त्री वित्तम् अधमाधमम्।।
इस श्लोक का अर्थ है कि अपना अर्जित किया हुआ धन ही परम धन होता है. पिता द्वारा अर्जित धन मध्यम धन है. भाइयों का धन अधम धन कहलाता है और स्त्री का धन तो अधम से भी अधम होता है. जिस दिन विवाह योग्य युवकों को यह समझ में आ जायेगा, उस दिन यह बुराई अपनी मौत मर जायेगी.
(दिनेश मिश्र प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं. यह पोस्ट उनकी वॉल से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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