और, बाबा हो, गर्मियों के सीजन में शहरों से आने वाली वह भारी भीड़! हम लोग उन दिनों मालरोड छोड़ कर ऊपर स्नो व्यू, चीनापीक, गोल्फ फील्ड या टिफिन टॉप की ओर निकल जाते. स्नो व्यू में सीमेंट की वह एक मात्र बैंच, दूर पहाड़ों को देखने के लिए एक दूरबीन, घने हरे-भरे पेड़ और एकांत. वहां बैठ कर कितना सुकून मिलता था! एक साल वहां 5 मई को बर्फ गिर गई थी. हम स्नो व्यू जाकर उस बैंच में जमी ताजा बर्फ की मोटी परत पर बैठे थे.
 
वर्षा ऋतु में हमारे शहर नैनीताल का पूरा दृश्य बदल जाता. मालरोड में छाते ही छाते दिखाई देने लगते. कुछ लोग गमबूट और बरसाती में आते-जाते दिखते. ऊपर पहाडों से कोहरा भाग-भाग कर आता और शहर की हर चीज को छूकर समेट लेता. मालरोड, ठंडी सड़क या पगडंडियों पर इतना घना कोहरा छा जाता कि हाथ को हाथ नहीं सूझता. घने कोहरे की भीनी फुहार चेहरे को भिगो देती. कोहरा घरों, बाजारों, होटलों और यहां तक कि खिड़कियों से हमारी कक्षाओं तक में चला आता. फिर अचानक सिमट कर छंटने लगता और तेजी से ऊपर पहाड़ों की ओर लौट जाता. सहसा बारिश होने लगती और लोग फिर छाता तान लेते. बारिश की बूदें टीन की छतों पर टकराने के कारण एक अलग किस्म का वर्षा-संगीत पैदा होता. हमें वह लोरी-सा सुनाई देता. और हां, वर्षा ऋतु में तीनों ओर खड़े पहाड़ों से निकली संकरी सीढ़ीदार निकास नालियों से कूदता-फांदता वर्षा जल कल-कल, छल-छल करता नीचे ताल में पहुंच जाता. ताल डबाडब भर जाता और ज्यादा भरने पर तल्लीताल रिक्शा स्टैंड के आसपास मालरोड तक चला आता. तब डाट पर ताल के गेट खोल कर पानी बहने दिया जाता. वह सुसाट-भुभाट करता तेजी से अशोक होटल की बगल से नीचे को भागने लगता.

Devendra Mewari Book Chhuta piche pahad nainital uttrakhand

पतझड़ का सीजन धीर-गंभीर सैलानियों का सीजन होता जिसमें कोई भीड़-भाड़ और तड़क-भड़क नहीं रहती. अधिकांश सैलानी बंगाली होते जो धोती-कुर्ता पहने, शाल ओढ़े, कुछ सोचते-विचारते सड़कों पर चल रहे होते. मेरे लिए मरीनो होटल से इंडिया होटल तक मालरोड में खड़े चिनार के पेड़ों की रंग बदलती पत्तियां शरद ऋतु का समाचार लाती थीं. मैं कई बार रात में मालरोड पर निकल आता जहां चिनार की पत्तियां मेरे साथ-साथ दौड़ लगाती थीं. ताल से उठने वाली लहरों के थपेड़े किनारों पर छपाक्.....छपाक् टकराते. अद्भुत दृश्य होता था वह.
 
हर साल सर्दियों में स्कूल-कालेज बंद हो जाने पर मल्या (स्नो पिजन) प्रवासी पक्षियों की तरह हमारे इस शहर के सैकड़ों विद्यार्थी अपने-अपने घरों को लौट जाते. होटलों में सन्नाटा छा जाता. सर्दी के मौसम में सैलानी बहुत कम आते थे। शाम ढलने के बाद सड़कें सूनी-सूनी लगने लगतीं. कुछ साहसी लोग कोट, पेंट, स्वेटर, टोपी दस्ताने कस कर मुंह से भाप का धुवां छोड़ते मालरोड पर अपना घूमने का नियम निभाते. ज्यादातर लोग सग्गड़ या अंगीठी में कोयले के गोले तपा कर आग तापते। उन सर्द रातों में कहीं दूर से सिर्फ सियारों की हुवां-हुवां या कुत्तों के कुकुआने की आवाज सुनाई देती। बर्फ गिरने पर प्रकृति के उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए गर्म कपड़ों में लदे-फंदे चंद सैलानी जरूर पहुंच जाते.
 
फिर वसंत आता और मल्या पंछियों की तरह विद्यार्थी भी लौट आते. धीरे-धीरे मौसम गरमाने लगता। हमारे शहर में सीजन की फसल फिर लहलहाने लगती. इस फस्ले-बहार से हमारा शहर फिर गुलजार हो जाता। लेकिन, हम जैसे जो पंछी पढ़ाई पूरी कर लेते, वे आबो-दाने की तलाश में पहाड़ों से दूर ‘देस’ यानी नीचे मैदानों की ओर उड़ान भरते.

अब मैं भी यही कर रहा था.
 
“सुन रहे हो क्या?”

“हां क्यों नहीं? सोच रहा हूं कि आखिर आपने भी मल्या पंछियों की तरह नीचे देस की ओर उड़ान भर ली होगी?” 
“और क्या करता? नौकरी के लिए जाना ही पड़ा। मन में यह सपना लेकर कि एक दिन प्रवासी मल्या पंछियों की तरह अपने घर-घोंसले में लौट आवूंगा.”

“ओं”

“ठीक कह रहे हो. तो, अगली सुबह होल्डॉल और बक्सा लेकर मैं बस में बैठा. पलट कर भर आंख अपने प्यारे शहर नैनीताल को देखा और मन ही मन कहा- अलविदा नैनीताल!” 

(प्रसिद्ध लेखक देवेंद्र मेवाड़ी की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘छूटा पीछे पहाड़’ का अंश. उनकी फेसबुक वॉल से साभार)

Url Title
Devendra mewari book Chhuta Piche pahad nainital uttrakhand
Short Title
बारिश की बूंदें ​गिरते ही बदल जाता था मेरा शहर नैनीताल
Article Type
Language
Hindi
Page views
1
Embargo
Off
Image
Image
Devendra Mewari Book Chhuta piche pahad nainital uttrakhand
Caption

देवेंद्र मेवाड़ी ने अपने शहर नैनीताल को याद करते हुए पीछे छूटा पहाड़ किताब लिखी है.

Date updated
Date published