- प्रवीण झा
मेरे मन में एक बार प्रश्न उठा कि अगर कोई नास्तिक हो, या ईश्वर की अवधारणा पर कंफ्यूज्ड हो, और वह हिंदुस्तानी संगीत सीखना चाहे, तो क्या दिक्कत आएगी? वहां तो रागों की व्याख्या में, बंदिशों में, और पूरे माहौल में ही आध्यात्म है. सरस्वती की आराधना कर ही संगीत-शिक्षा होती है. मैंने ढूंढना शुरू किया कि शायद कोई नास्तिक संगीतकार मिल जाएं. ऐसे वर्णन तो मिलते हैं कि संगीतकार सामाजिक मानकों (Societal Norms) से परे चलते रहे. समाज भी 'गाने-बजाने वालों' को अलग देखती रही, लेकिन ईश-प्राप्ति पर लगभग सम्मति है. वह संगीत की सबसे ऊंची सीढ़ी कही जाती है, जब व्यक्ति न श्रोता के लिए, न अपने लिए, बल्कि सीधे ईश्वर के लिए गाता है.
कार्नाटिक संगीत गायक टी एम कृष्णा जी की चर्चा होती है, जो वामपंथी रूख के गायक हैं. मेरे कई संगीत-प्रेमी मित्र भी वामपंथी मिजाज के रहे हैं. मैंने एक बार मज़ाक किया कि तुम लोग तो भगवान मानते नहीं, फिर सुन कर करते क्या हो? इसमें रस कैसे लेते हो जब गायक कृष्ण या शिव पर गीत गाते हैं? उन्होंने उस वक्त क्या उत्तर दिया, यह याद नहीं, लेकिन हाल में मेघालय के जंगलों में टीएम कृष्णा ने एक मंडली आयोजित की थी. कई जाने-माने संगीतकार पहुंचे थे और ईश्वर ध्यान कर ही गा रहे थे. कोई मूर्ति नहीं, निराकार ईश का ध्यान.
अभी-अभी आशुतोष भारद्वाज के वाल पर जैमिनीय उपनिषद का एक प्रकरण पढ़ा, जिसमें उत्तर अधिक स्पष्ट है. देवासुर संग्राम में जब असुरों से देवता हारने लगे तो उन्हें यह जानकारी मिली कि असुरों की शक्ति के पीछे उनका साम गायन है. भगवान ने देवताओं को कहा कि आप भी गाएं. देवताओं ने साम गाया, मगर फिर भी असुर जीतते रहे. वे पुनः भगवान के पास आए.
भगवान ने कहा, 'आप साम से ऋचाएं निकाल दें, और विशुद्ध साम गाएं. संगीत की तरह.'
ऐसा करते ही देवताओं की शक्ति बढ़ गई और अमृत की प्राप्ति हुई. यह कथा एक रूपक की तरह ही देखी जाए कि संगीत अपने मूल रूप में, कला के रूप में, भी उतना ही या अधिक प्रभावी है. यह मायने नहीं रखता कि श्रोता किस प्रवृत्ति या मान्यता के है.
(प्रवीण झा पेशे से डॉक्टर हैं. नॉर्वे में रहते हैं. यह लेख उनकी वॉल से यहां साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)
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आस्था का संगीत से क्या है नाता?