बनारसी हूं, लेकिन अब घर से बाहर कम ही निकलता हूं. आज एक लंबे अरसे बाद बाहर निकलना हुआ. रास्ते मे ऑटो वाले से खूब बतियाता हुआ गोदौलिया पहुंचा. वहां से पैदल चौक गया बदलते बनारस को निहारते. मुझे लगा कि इस बदलते बनारस में भी उसकी आत्मा में वही पुरानी मस्ती बसती है. चौक में संस्कृत की किताबों के एक मशहूर प्रकाशक की दुकान पर गया. कुछ किताबें खरीदनी थी, लेकिन मुख्य विक्रेता चिड़चिडाया हुआ फोन पर किसी से झगड़ा कर रहा था. बड़ी मुश्किल से मैं उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाया और मेरी मांग सुनकर अपने सहायक को वांछित किताबें निकालने को कह कर फोन पर फिर झगड़ने लगा. खैर, वहां से किताबें लेकर सामने मोतीलाल बनारसीदास के यहां गया. वहां अब जाता हूँ तो मन उदास हो जाता है. वहां मेरी जान-पहचान के कई लोग या तो दिवंगत हो गए या सेवानिवृत्त हो गए. एक यादव जी बस बचे हुए हैं.
बातें बनारसीपने की
उनसे देर तक बातें होती रहीं - बनारसीपन की और बदलते बनारस की. वहां से कुछ किताबें खरीदने के बाद बगल की दालमंडी की गली में घुस गया. वहां मुझे कुछ नई क्राकरी लेनी थी. एक मुसलमान बन्धु की दुकान थी और विक्रेता भी एक मुस्लिम सज्जन थे. उनसे खरीददारी के साथ-साथ बनारसी लहजे में बनारसीपन की बातें भी होती रहीं. उससे बात कर मन बहुत खुश हो गया. लगा कि हमारा बनारस अभी खूब जिंदा है, खूब जिंदादिल है.
(त्रिलोक नाथ पांडे भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी थे. सेवानिवृत होने के बाद ऐक्टिव लेखकीय रूप में हैं.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
Dreams : सपने के भीतर सपना
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