अगर आप जंगल में भटक गए हों, और थक हार कर लड़खड़ा रहे हों, तो तिरिल के पेड़ के पास जाइए, उसका फल खाइए, पानी पीजिए और पाँच कोस चलने की ऊर्जा रिस्टोर कर लीजिए.
जी हाँ! यह हकीकत है. अगर आप जंगल की जीवन शैली से परिचित हैं तो यह यही करेंगे.
तिरिल जंगल में मिलने वाला एक पेड़ है. यह भारतीय भूगोल का प्राचीन पेड़ है जो अब केवल आदिवासी क्षेत्रों में बचा हुआ है.
'तिरिल' मुण्डा भाषा परिवार का नाम है. आर्य भाषा परिवार में यानी हिंदी में इसे 'केंदू' या 'तेंदू' के नाम से जाना जाता है. यह औषधीय गुणों से युक्त होता है. इसमें ग्लूकोज़ बहुत होता है. यह आपको दिनभर ऊर्जावान रख सकता है. इससे आपकी थकान कम हो जाएगी.
'बीड़ी' बनाने वाले पेड़ का फल
मेनस्ट्रीम के लोग इस पेड़ को 'बीड़ी' बनाने वाले पेड़ के नाम से जानते हैं. इसी पेड़ के पत्ते से ही बीड़ी बनायी जाती है. बीड़ी उद्योग ने इस पेड़ का विनाश किया है . बीड़ी बनाने के लिए तिरिल/केंदू के कोमल पत्तों का प्रयोग किया जाता है. कोमल पत्तों के लिए जंगल को जला दिया जाता है. जले हुए ठूंठ से कोमल पत्ते निकलते हैं . उसी पत्ते से बीड़ी बनती है, पेड़ के बड़े पत्तों से नहीं. इसके साथ ही बीड़ी उद्योग से जुड़े लोगों ने आदिवासी-सदानों का घनघोर शोषण किया है. बीड़ी का पत्ता संग्रह करने की प्रक्रिया बहुत कठिन है और उसका मूल्य बहुत कम. इससे जुड़े आदिवासी-सदान मजदूरों का शोषण भी बहुत हुआ है. 80-90 के दशक में बीड़ी व्यवसायी और ठेकेदारों के खिलाफ सीधी कारवाई करके भी जंगल के क्षेत्रों में नक्सल आंदोलन ने अपनी पकड़ बनायी थी.
आदिवासी-सदान समाज के लिए यह पेड़ जीवनदायिनी है
आदिवासी-सदान समाज के लिए यह पेड़ जीवनदायिनी है. अकाल के दिनों में, गरीबी में, इस फल का प्रयोग 'भात' के रूप में भी किया जाता रहा है. पिताजी बताते हैं कि उनके बचपन के दिनों में जब अकाल आया था, तब इसके कच्चे फल को कूट कर ही भात की तरह खाया जाता था. कच्चा में इसका बीज चावल की तरह होता है. उसे धो कर खाया जाता है. पकने पर फल का स्वाद मीठा हो जाता है. हमने अपने बचपन में तिरिल का कच्चा और पका फल खूब खाया है. हमारे दोस्त जो 15-20 किलोमीटर साईकिल चला कर स्कूल आते थे,उनके झोले में तिरिल का ही फल होता था.
तिरिल का आदिवासी जीवन में सांस्कृतिक महत्त्व है और इसका मिथकीय संदर्भ भी है. मुण्डा पुरखा कथा के अनुसार जब 'सेंगेल द:आ' यानी अग्नि वर्षा हुई थी तब आदिवासी बूढ़ा-बूढ़ी पुरखे ने इसी तिरिल की खोह में अपनी जान बचायी थी. तिरिल का पेड़ दूसरे पेड़ों की तरह ज्वलनशील नहीं होता. मुंडाओं में ऐसी मान्यता बन गई है कि भविष्य में जब अग्नि वर्षा होगी तो यही पेड़ उन्हें संरक्षण देगा. यही वजह है कि मुण्डा धान रोपनी के बाद खेतों में तिरिल की डाली गाड़ते हैं. आज भी मुण्डा इस प्रथा का पालन करते हैं.
तिरिल के पेड़ को आदिवासी समुदाय ने समुचित सम्मान दिया है. इस पेड़ का नाम कई आदिवासी गांवों के इतिहास से जुड़ा हुआ है. तिरिल पोसी, तिरिल, तिरिल हातु, आदि आदिवासी गांव का नामकरण तिरिल पेड़ के नाम पर ही हुआ है. अगर आपके ध्यान में होगा तो रांची में भी एक गांव का नाम 'तिरिल' है.
Memory Lane : साड़ी और यादों के सिलसिले
यह मौसम तिरिल का मौसम है. आप किसी भी आदिवासी-सदान गांव या हाट जाकर तिरिल का स्वाद लेकर उसकी ऐतिहासिकता से जुड़ सकते हैं. रांची में बहुत पुराना हाट है जिसे अब लोग 'बहु बाजार' के नाम से जानते हैं. इस बाजार में जाकर भी आप तिरिल खरीद सकते हैं. यहां रनिया, तोरपा, बसिया, मार्चा आदि सूदूरवर्ती क्षेत्रों से आदिवासी महिलाएं तिरिल सहित अन्य जंगली फल, साग-सब्जी बेचने आती हैं. तिरिल की तरह ही वे जीवट होती हैं . उनकी वाणी भी तिरिल की तरह मीठी और ऊर्जावान होती है.
कल राँची में सरहुल पर्व है. सखुआ का पेड़ हमारा पूर्वज है, उसी पूर्वज का साथी है तिरिल. फिलहाल मैं सरहुल के साथ ही तिरिल को याद कर रहा हूं. हम न भूलें कि ये हमारे सहजीवी हैं. हमारी सहजीविता बनी रहे, आदिवासियत और झारखण्डी-सदानी भाव बना रहे.
सरहुल की शुभकामनाएं! हूल जोहार!
(अनुज लुगुन हिंदी के सशक्त कवि हैं. उनकी भाषा में जन-संवाद और आदिवासी वार्तालाप की प्रमुखता है. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है. )
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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