वो अमरीका के सेंट अगस्टीन से आई हुई एक सुदर्शन, भद्र जोड़ी थी. सात साल की बच्ची थी जो नानी के पास पल रही थी.
दोनों अक्सर मुझे पूल एरिया पर मिले. स्त्री दोस्ताना थी और कुछ था जिसने हमारे बीच उम्र के अंतर को गौण कर हमें दोस्ताना बना दिया था. हम जब भी मिलते, अपनी भाषाई सीमा में गप्पें लगाते. कभी-कभी पुरुष भी सम्मिलित हो जाता. वो अक्सर एक बात कहता कि उसे भारतीय स्त्रियां पसन्द हैं.
'किस सन्दर्भ में?' ये न मैंने पूछा न उसने बताया.
फिर मैं भारत लौट गई, हमारा सम्पर्क नहीं रहा. कभी याद आई भी तो बिना परेशान किए उल्टे पैरों लौट भी गई.
इस बार दुबई आई और पूल एरिया में गई तो उन लोगों की याद आई लेकिन 'किरायेदार स्थायी तो होते नहीं, चले गए होंगे.' सोच कर फिर भूल गई.
'हे हाई!' एक दिन अचानक परिचित आवाज आई. मैंने मुड़ कर देखा केविन, वही अमरीकी पुरुष, था. जैसा कि पहले भी अक्सर होता था, अकेला.
'डेब्रा कैसी है?' जब दोनों ने खुशी जाहिर कर ली, एकदूसरे के हाल-चाल पूछ लिए तब मैंने पूछा.
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'अब हम साथ नहीं हैं.' केविन ने सहजता से जवाब दिया. मेरे लिए भी असहज होने की बात नहीं थी, लेकिन जरा हुई, क्योंकि डेब्रा से कोई तंतु जुड़ गया था.
सन्डे था, मुझे लाला(पोती) की चिंता नहीं थी और केविन की भी छुट्टी थी तो हम वहीं बैठकर बातें करने लगे. उसकी बातों से जितना समझ आया डेब्रा एक लापरवाह, घमंडी और बुरी पत्नी थी. उसका सम्मान नहीं करती थी.
'वो...?'
'अब भी दुबई में है.'
मैं औपचारिकता के शब्द कह कर और डेब्रा का नम्बर ले कर आ गई.
'वो मेरे मना करने के बाद भी बच्ची को यहां ले आया लेकिन उसकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था.' अब मैं डेब्रा का सच सुन रही थी 'मुझे काम पर देर हो जाती तो मुझ और बच्ची दोनों पर चिल्लाता था. बच्ची को स्कूल लेने-छोड़ने की जिम्मेदारी मेरी थी, किचन से उसे कोई मतलब नहीं था. यहां तक कि मैं या बच्ची बीमार हो जाए तो भी मदद नहीं करता था.'
'ऑफिस से आने पर आशा करता था कि मैं उसकी दुखती पीठ की घण्टों मसाज करुं. मैं अपनी सीमा में करती भी थी लेकिन वो संतुष्ट नहीं होता था. कहता था मैं पति हूं तुम्हें मेरी सेवा और मेरा रेस्पेक्ट करना ही चाहिए. बात-बात पर एशियाई, विशेषकर भारतीय पत्नियों की मिसाल देता था और ज्यादा टोकने पर हाथ उठा देता था.
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और एक दिन तो हद हो गई जब उसने रोती हुई बीमार बच्ची के सामने ही मुझसे जबर्दस्ती यौन संबंध बनाने का हठ किया और ऐतराज करने पर आक्रामक हो गया. इतना कि मुझे डॉ के पास जाना पड़ा. उस दिन छोड़ आई मैं उसे.'
'भारतीय पति की आत्मा घुस गई थी उस में.' डेब्रा ने मज़ाक में कहा और मैं चाह कर भी प्रतिरोध नहीं कर पाई.
'अपनी ओर से मांगे हुए तलाक के कारण बहुत कुछ छोड़ना पड़ा पर खुश हूं. बच्ची कभी-कभी उदास हो जाती है पर मेरी खुशी और सम्मान को भी समझती है.' डेब्रा की आवाज में उदास सा संतोष घुला था और मेरे मन में भी. सन्तोष डेब्रा के लिए और उदासी इस बात के लिए कि दुनिया के हर देश काल और व्यवस्था में मान और जान बचाने के लिए स्त्री को ही क्यों छोड़ना पड़ता है.
(लेखिका लक्ष्मी शर्मा इन दिनों दुबई प्रवास पर हैं. वे वहां मिलने वाली भिन्न देशों की स्त्रियों की कथा लिख रही हैं. उन क़िस्सों में एक...)
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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