-सबाहत आफ़रीन

इन दिनों सर्द दोपहर में जब इंसान तो एक तरफ़ परिंदे तक ख़ामोश, घोंसलों में छुपे हुए सर्दी कटने का इंतज़ार करते हैं. मैं चुपचाप अपनी हथेलियों को देखती हूं जो ठंड से गुलाबी माइल हो गयी हैं, उंगलियों में सुर्ख़ी सी झलक रही है, सुर्ख़ी से कुछ याद आ जाता है, कोई गुनगुनी सी याद!

मोहब्बत भी तो आदत ही है
ये वही उंगलियां हैं जिन्हें तुम थाम लेते हो, जिन्हें तुम्हारी हथेलियों में सिमटने की आदत हो चली है, जानते हो न!
आदत.. आदत और मोहब्बत में बड़ा नन्हा सा या यूं कह लें बारीक सा फ़र्क है.
आदतें कैसी भी हों अच्छी या बुरी, चिमट जाती हैं तो लाख सिर पटको छूटने का नाम नहीं लेतीं, यही सिफ़त मोहब्बत की भी है.
मोहब्बत छू ले बस.. इसकी तासीर ऐसी लज़्ज़त लिए होती है कि खट्टे मीठे के चक्करों में उलझा ज़ेहन बाहर निकलने का रास्ता ही भूल जाये.

प्यार का तिलिस्म
वैसे भी प्यार की अंधी गली में जबरदस्त क़िस्म का तिलिस्म है, ऐसी जादूगरी ऐसा लुत्फ़ कि खोने वाला जानते बूझते भी ख़ुद को लुटाना चाहे. लेकिन... मेरे हाथ की लकीरों में ये लुटना मिट जाना, कितनी सर्दियों तक लिखा होगा? 

सबाहत आफ़रीन

मेरी निगाह गहरे बादलों से लड़ते उस नन्हे धूप के टुकड़े पर टिक जाती है.
ठंड से कांपता वो आफ़ताब का कोना कैसे घबराकर निकला है , जैसे कौन जाने कितनी देर सर्द मौसम उसे खड़ा रहने दे. 
मैं उस कमज़ोर पतली लकीर जैसे धूप के तले खड़ी हो गयी हूं, उसे यक़ीन दिलाने को कि देखो, तुम्हारा मौजूद होना मेरे लिए कितना मायने रखता है, तुम जरूरी हो मेरे लिए, है न!

(सबाहत आफ़रीन स्वतंत्र लेखिका हैं. शेर ओ शायरी की अच्छी समझ रखती हैं.)

(यहाँ दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

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