बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित दांपत्य जीवन पर आधारित उनकी फ़िल्म त्रयी (ट्रायोलॉजी - अनुभव, आविष्कार, गृह प्रवेश ) की यह पहली फ़िल्म जाने कैसे और कब से मुझसे छूटी पड़ी थी. एक दौर था जब दूरदर्शन पर हम पुरानी ब्लैक एंड वाइट फिल्में बड़े चाव से देखते थे. ये कब और कैसे हुआ नहीं मालूम कि अनुभव मेरे जेहन में दस्तक फ़िल्म के साथ मौजूद रहती है. दोनों ही मेरे प्रिय अभिनेता संजीव कुमार की फिल्में और दोनों ही फिल्में नहीं देखी थीं पर दोनों ही फिल्मों के गानों को दीवानावार सुनती रही हूँ. ये अवधारणा भी पता नहीं कब और कैसे बन गई कि दस्तक की तरह अनुभव भी लेट नाईट मूवी है तो दूरदर्शन पर नहीं देखी गई.
पिछले हफ़्ते ये अवधारणा टूट गई. बढ़िया लगी मुझे अनुभव. दाम्पत्य जीवन में एक ऊबा हुआ जोड़ा, जहां एक वरकोहलिक, बड़े न्यूज पेपर का एडिटर पति अमर सेन इतना व्यस्त है कि अपने सोशल सर्कल के लिये तो कुछ वक़्त निकाल लेता है पर अपनी पत्नी के लिये उसके पास दिन छोड़िये सुकून भरी रात भी नहीं जिसे वह फाइलों और किताबों के बीच स्टडी में बिता देने का आदी है. नौकरों से घिरी आये दिन पार्टीज ऑर्गेनाइज करती पत्नी मीता (तनुजा) उसके लिये महज घर का एक हिस्सा भर है जिसे वह छह सालों की शादी में भी ठीक से जान तक नहीं पाया है. दोनों की कोई औलाद भी नहीं पर फ़िल्म के शुरुआती दृश्य में ही एक परेशान मां के बच्चे पर ममता उड़ेलती मीता के दृश्य उसके अभाव और तड़प का अनकहा संवाद हैं जिसका अमर को कोई अहसास ही नहीं.
जीवन में प्रेम और वात्सल्य दोनों के अभाव से त्रस्त मीता एक दिन सब नौकरों को निकाल बाहर करती है और पुराने नौकर हरी (ए के हंगल) की मदद से घर की बागडोर अपने हाथ में ले लेती है. होटल को घर में बदलने की उसकी ये पहल अकारथ नहीं जाती और वह और अमर एक दूसरे के बेहद करीब आने लगते हैं कि तभी उसके जीवन में उसका पूर्व प्रेमी शशि (दिनेश ठाकुर) लौट आता है जो अमर के ऑफिस में उसे जॉइन करता है. मीता की अनिच्छा के बावजूद अमर के आग्रह पर वह बार बार उसके घर आता है जिससे मीता तनावग्रस्त रहती है.
अमर और मीता के एक्सप्रेशन्स किसी भी रूटीन फ़िल्म से एकदम भिन्न और बाकमाल हैं
एक दिन वह भेद खुल जाता है. अंत अप्रत्याशित तो नहीं है पर अंत से पहले के तनाव और उसे लेकर अमर और मीता के एक्सप्रेशन्स किसी भी रूटीन फ़िल्म से एकदम भिन्न और बाकमाल हैं. संजीव, दिनेश और तनुजा तीनों ने यहां अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है. यहां तक कि हर घटना पर ए के हंगल साहब के एक्सप्रेशंस भी इतने एम्यूजिंग हैं कि तनाव के उन क्षणों में भी दर्शक बरबस मुस्कुरा उठता है.
वैसे कहानी तो महज इतनी सी है पर इसे देखकर ही ये एक्सप्लोर किया जा सकता है कि ये फ़िल्म क्यों खास है. क्या किसी बढ़िया कहानी का होना ही अच्छी फिल्म होने का पैमाना है? जवाब मिला नहीं. यहीं हम शानदार निर्देशक की वैल्यू और फिल्माकंन की ताकत को समझ पाते हैं. फ़िल्म की कहानी खास हो न हो फ़िल्म में कई एक खास तत्व हैं जो इसे क्लासिक की श्रेणी में रख देते हैं. पति पत्नी के संबंधों में पसरी ऊब कैसे उनके रिश्ते को कुतरने लगती है और दोनों के छोटे छोटे प्रयास कैसे उस स्थान को गहरी इंटिमेसी से भर सकते हैं यही कहानी है.
सबसे पहले तो मुझे तनुजा ने बहुत चौंकाया. अपनी मां या बड़ी बहन नूतन की तरह तनुजा को न तो वह ख्याति मिली न ही ऐसी बहुत फिल्में जहां वे अपने होने हो सार्थक कर पातीं. यहां तक कि त्रयी की बाद की फिल्मों में संजीव तो रिपीट हुए किंतु तनुजा नहीं. जबकि अनुभव में कितने ही ऐसे दृश्य मुझे लगे जहां संजीव पर हावी लगीं तनुजा. कहीं गहरी ख़ामोशी, कहीं क्रोध, कहीं खिलंदड़पना तो कहीं प्रेम में डूबी परिणीता, तनुजा के इतने सारे शेड्स एक ही फ़िल्म में. सच कहूँ तो ये पहली फ़िल्म थी जब मैंने हर सीन में मुग्ध होकर संजीव को देखते हुए अटेंशन को तनुजा पर शिफ्ट होते पाया. उनकी बिंदास और सहज अदायगी में कहीं तनुजा नहीं दिखीं बस मीता दिखी जो अपने हाथों में कोई अदृश्य डोर लिये हुए अमर को अपने करीब और करीब ले आने में सफल होती प्रतीत होती है.
फ़िल्म की अगली ख़ासियत है, फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर. पूरी फिल्म में या तो खामोशी की मूक ध्वनि की उपस्थिति है या फिर रूटीन धुनों से एकदम अलग स्वाभाविक ध्वनि वाला बैकग्राउंड स्कोर. जैसे जब अमर शशि को अपना प्रेस दिखाता है तो नेपथ्य में कोई म्यूज़िक नहीं बल्कि छापेखाने की कर्कश आवाज़ गूंजती है. इसके साथ पूरे दिन घर में बजते रेडियो पर 'मम्मी मम्मी मॉडर्न ब्रेड' जैसे विज्ञापन गूँजते रहते हैं जिससे एक खास तरह का साउंड इफेक्ट पैदा होता है. तात्कालीन आधुनिक जीवन शैली की झलक मिलती है. बाज़दफ़ा इतनी शांति है किसी दृश्य में दिल के धड़कने, पलक के उठने गिरने, बदलती भाव भंगिमाओं और प्रेमिल भावनाओं के ज्वार को महसूस करने में कहीं कोई रुकावट नहीं पेश आती.
फिल्म के संगीत में जादू है
फ़िल्म के संगीत का तो कहना ही क्या कानू राय, गीता दत्त, मन्ना डे, सुबीर सेन और गुलज़ार ने जैसे जादू रच दिया है. कोई चुपके से आके, मुझे जां न कहो और मेरा दिल जो मेरा होता में गीता दत्त का खास अंदाज़ है और फिर कहीं कोई फूल खिला, मन्ना डे का मेमोरेबल गीत है. एक गीत में सुबीर सेन का रवींद्र संगीत है. विशेष बात ये है कि सुबीर सेन ने पर्दे पर अपनी ही भूमिका की है. सुना है ये वही सुबीर सेन हैं जिन्होंने अभिमान नहीं की और अमिताभ बच्चन की झोली में एक शानदार फ़िल्म आ गिरी.
कुछ दृश्य कुछ संवाद इतने गहन अहसास से भर देते हैं कि उनकी छाप से मुक्त होना थोड़ा कठिन है. जैसे मीता जब अमर से अपनी माँ और पिता के संबंधों को याद करते हुए उसके जीवन में अपनी माँ की तरह जरूरत, आदत की तरह हो जाने की चाहत जताती है वह सम्पूर्ण दृश्य अलौकिक है, अविस्मरणीय है. पति पत्नी के संबंधों की सघनता और गहराई को अनुभूत कराते उस पूरे संवाद को समूचे दाम्पत्य जीवन पर एक सुंदर टिप्पणी कहा जा सकता है.
एक और रोचक बात थी दिनेश पटेल और संजीव कुमार की बतकही जिसमें दिनेश एक गीत गुनगुनाते हैं और संजीव बताते हैं ये उन्हें बेहद पसंद है. फिर कन्फर्म करते हैं कि ये मन्ना डे का गीत है. उसी दौरान उन्हें शशि यानी दिनेश से ये मालूम चलता है कि मीता भी बहुत अच्छा गाती है. इस रहस्योद्घाटन के बाद संजीव के एक्स्प्रेशन्स और उनकी नाटकीय प्रतिक्रिया दोनों अद्भुत हैं. उससे भी अधिक मजेदार है अंत के दृश्यों में उन्हें बार बार छेड़ती, कुरेदती, बार बार कुछ बोल देने को उकसाती मीता का शरारतीपन जो तनाव से भरे उन बोझिल पलों को भी प्रेमिल और रुई से हल्का बना देता है.
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अतिरिक्त भावुकता फ़िल्म में नहीं है
एक और बात ये अच्छी लगी कि मीता, शशि के लौटने पर तनाव से घिरी जरूर महसूस होती है किंतु दोनों के प्रेम को लेकर कोई भी फ्लैशबैक का सीन या अतिरिक्त भावुकता फ़िल्म में नहीं है. दोनों में अपने अतीत को लेकर छिटपुट संवाद जरूर है पर निर्देशक ने पूरी तवज्जो केवल वर्तमान को देकर फ़िल्म को अतीतमोह यानी नोस्टाल्जिया से पूरी तरह मुक्त रखा है. हां मीता का अमर से लंबा संवाद और उसकी बेबाक स्वीकृति से निकले स्पष्ट एवं साहसी संवाद जरूर इस प्रकरण की ओर ले जाते हैं पर वहां भी नोस्टाल्जिया के पूल में पूरी तरह डुबकी लगाने से ऐन पहले यह संवाद एक नवयुवती के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रकटन के चलते विशिष्ट हो जाता है.
वैसे अनुभव देखकर एक मलाल ये भी हुआ कि कानू रॉय या कनु रॉय जो कि गीता दत्त के भाई थे उन्होंने बतौर अभिनेता तो काफी फिल्में कीं पर बतौर संगीत निर्देशक वे ज्यादातर बासु भट्टाचार्य की फिल्मों तक ही सीमित क्यों रहे. सवाल ये भी कि ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि अक्सर किसी खास निर्माता निर्देशक के लिये इतना सुंदर संगीत रचने वाले संगीतकार केवल उन्हीं तक सीमित होकर क्यों रह जाते हैं?
(अंजू शर्मा कवि और लेखक हैं. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से है.)
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