व्योमेश शुक्ल की फ़ेसबुक वॉल से
कई बार बनारस अपने उन बेटों को भूल जाता है, जिनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत हो; अन्यथा, लोकबंधु राजनारायण रोज़ याद करने की चीज़ हैं.
शेर का दिल और गाँधी का तरीक़ा
राजनारायण. यह नाम हवा, पानी और मिट्टी की तरह ख़ून में है. इस देश में कभी-भी जिस किसी को सत्ता-प्रतिष्ठान से लोकतांत्रिक तरीक़े से नाराज़ या असहमत होना होगा, उसे अपने ख़ून में हवा-पानी-मिट्टी की तरह राजनारायण के नाम की भी ज़रूरत होगी.
राजनारायण मेरी माँ - डॉक्टर शकुंतला शुक्ल - के नेताजी थे. माँ युवजन थीं और आजीवन नेताजी ही उनके एकमात्र नेता रहे. राजनारायणजी की पार्टी का दफ़्तर - समता घर - जगतगंज में मेरे घर के ठीक पीछे था. एक बार बैठक में माँ के सामने ही युवजन किसी बात पर एकदूसरे से भिड़ गये. नेताजी के देखते-देखते ही वाकयुद्ध जूतमपैजार में बदल गया. ऐसे टकराव समाजवादी पार्टी की नागरिकता के तत्व थे. उस दिन राजनारायण जी चिल्ला-लल्लाकर मारपीट रोकते रहे. माँ हँसते हुए बताती थीं कि वह कह रहे थे : अरे भाई ! यहाँ एक भद्र महिला बैठी हुई है और तुमलोग झगड़ा कर रहे हो.
कहना न मानना माँ ने किससे सीखा था ?
मैंने जीवन-भर माँ को किसी झगड़े या ताक़त से घबराते या उसे टालते हुए नहीं देखा. माँ झगड़ा बुलाती थीं और भिड़ जाती थीं. माँ के पास कोई ताक़त नहीं थी और माँ के भीतर कोई भय नहीं था. क्या अभय का यह वरदान उन्हें राजनारायणजी से मिला था ? और कहना न मानना माँ ने किससे सीखा था ? मुझे शक़ है कि यह भी उन्होंने नेताजी से ही सीखा होगा. अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन में नेताजी के ही आह्वान पर अपने छोटे भाई, मेरे मामा और मशहूर समाजवादी कार्यकर्ता नरेन्द्र नीरव के साथ मिलकर उन्होंने बाक़ायदा पुलिस वालों को बाहर निकालकर पियरी पुलिस चौकी फूँक दी थी. शायद यह वही दिन था जब कुछ युवजन लड़ाकों के साथ मिलकर नेताजी ने बनारस के मशहूर बेनियाबाग़ में लगी विक्टोरिया की प्रतिमा को उखाड़कर फेंक दिया था. माँ अपने बचपन के चुनावों - 52, 57 के बारे में गर्व के साथ बताती थीं जब राजनारायणजी और बाबू प्रभुनारायण सिंह की अगुवाई में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव-गाँव में बच्चे और किशोर नारा लगाते हुए घूमते थे - कमला हारिगा, वाह भाई वाह; संपू हारिगा, वाह भाई वाह - जिसका मतलब यह होता था कि पंडित कमलापति त्रिपाठी और बाबू संपूर्णानंद चुनाव हार जायेंगे, यानी कांग्रेस चुनाव हार जायेगी. माँ और मामा भी उन बच्चों में शामिल थे.
वे बिना डरे लड़ना सीखने के दिन थे. माँ काशी हिंदू विश्वविद्यालय के युवजन छात्रनेताओं में उग्रतम थीं. माँ के भाषण के बाद पुलिस और छात्र - दोनों ओर से हिंसा अनिवार्य थी. आख़िर माँ का सीधी लड़ाई में यक़ीन था.
77 का इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ वाला चुनाव
77 में श्रीमती गाँधी के ख़िलाफ़ नेताजी के चुनाव की बातें बहुत दिलचस्प थीं. पिता पूर्वी उत्तर प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी और बनारस की शहर उत्तरी विधानसभा के चुनाव-संचालक. इमरजेंसी के ढाई सालों के बाद जनता जगह-जगह पर कांग्रेस के लोगों का पत्थर से स्वागत करती थी; यानी पिता पत्थर खाकर घर लौटते होंगे और माँ मन ही मन प्रसन्न होती होंगी. अपनी ख़ुशी किसी से कहती भी न होंगी.
फिर क़त्ल, यानी मतगणना की रात भी आयी. भोर में तीन बजे मेरे घर के लैंडलाइन पर रायबरेली से धुरंधर समाजवादी आदित गुरू - आदित्य नारायण सिंह का फ़ोन आया. फ़ोन पिताजी ने उठाया. उधर से आदित गुरू बोले : शुक्लाजी ! भाभी से बता दीजिये - नेताजी जीत गये. पिता के फ़ोन काटने की त्वरा से माँ समझ गयीं. फिर भी उन्होंने पूछा.
अन्यायरत सत्ता का किला ढह गया था. नेताजी ने श्रीमती गाँधी को लोकसभा चुनाव हरा दिया. विश्वविद्यालय के गलियारों से निकलकर निर्भीक युवजन देश के सत्ताकेन्द्र में - संसद, नार्थ और साउथ ब्लॉक तक पहुँच गया. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि अगर राजनारायण जैसे तीन-चार लोग भी हों तो देश के लोकतंत्र को तानाशाही से कोई ख़तरा न होगा. माँ के नेताजी ने भारत के लोकतंत्र को बचा लिया था.
उसके बाद क्या हुआ, ये न पूछिए. राजनारायण लोहिया जी के चेले थे और लोहिया ने कहा है कि विचार गतिमान होते हैं और संगठन जड़ होता है, इसलिए विचार की गति से संगठन की जड़ता को तोड़ देना चाहिए. राजनारायणजी भी ताज़िंदगी संगठन की दीवार से सिर टकराते रहे. सीएसपी, सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी (लोहिया), भारतीय लोकदल, जनता पार्टी, जनता पार्टी (सेक्युलर), डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी, जनता पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी – नेताजी इतने दलों को तोड़ते और जोड़ते रहे. अंततः उन्होंने अपनी ही सरकार और परिवर्तन के स्वप्न को तोड़ दिया.
80 के चुनाव की याद
80 के चुनाव में में मेरे पिता की हालत विचित्र थी. वह पुराने समाजवादी थे और आचार्य नरेन्द्रदेव वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से कांग्रेस में आये थे, लेकिन अब श्रीमती गाँधी के विश्वस्त थे – उनके अख़बार-प्रकाशन-समूह – एसोसिएटेड जर्नल्स प्राइवेट लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक. बनारस में मुक़ाबला पंडित कमलापति त्रिपाठी और राजनारायण के बीच था. पंडितजी व्यूहरचना के लिए दिल्ली से पिता को ले आये. पिता को पंडितजी का चीफ़ इलेक्शन एजेंट बनाया गया. धुआँधार चुनाव-प्रचार शुरू हुआ. महामेघ और झंझानिल गरज-गरजकर एकदूसरे से भिड़ रहे थे. नेताजी बेतकल्लुफ़ थे – आमने-सामने हो जाने पर पिता को चुनौती देते : का हो सुकुल ! तोहरे घरे में हमार युवजन हौ – ओकर ध्यान रखे – जिसका आशय यह हुआ कि मेरी माँ के तौर पर पिता के घर में उनका एक युवजन है – उसे राजनैतिक वजह से किसी मुश्किल का सामना न करना पड़े.
बहरहाल, वह चुनाव नेताजी हार गये और बरस-भर बाद दिल्ली में उनके राजनैतिक प्रतिपक्षी – मेरे पिताजी – को दिल का दौरा पड़ा. मेरा जन्म हो गया था. माँ बदहवास मुझे लेकर दिल्ली जा रही थीं. दिल्ली हवाई अड्डे पर नेताजी मिल गये. माँ उनसे लिपटकर रोने लगीं. उन्होंने मुझे गोद में ले लिया. मुझ बच्चे को यही मौक़ा चाहिए था. मैंने उनकी गोद में पेशाब कर दिया. माँ यह बताते हुए न जाने कैसी ग्लानि से भर जाती थीं. असहायता के चरम क्षण में भी उनके नेताजी उनके साथ थे और माँ के बेटे ने नेताजी की गोद में पेशाब कर दिया था.
(व्योमेश शुक्ल कवि हैं. मनोरम गद्य भी लिखते हैं और रंगमंच को कविता-भाव से निर्देशित करते हैं.)
(यहाँ दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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