आज स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव का जन्मदिन है. दक्षिणेश्वर के पागल साधक कहे जाने वाले इस महापुरुष ने उन्नीसवीं शताब्दी में बांग्ला रंगमंच पर स्त्रियों की उपस्थिति को सहज बनाने में अमूल्य योगदान दिया. उस आडम्बरपूर्ण समाज में, जहां रंगमंच पर वारवनिताओं की उपस्थिति के कारण थियेटर से किसी भी प्रकार से संबंधित होना हेय दृष्टि से देखा जाता था और बाबू वर्ग अपने लड़के-लड़कियों को इस शय से दूर रखना पसंद करते थे, रामकृष्ण अपनी प्रतिष्ठा की परवाह किए बिना नटी बिनोदिनी अभिनीत नाटक "चैतन्यलीला" देखने स्टार थियेटर गए और नाटक के बाद उसे आशीर्वाद भी दिया.
इस घटना के बाद गिरीश घोष ने समाज में यह स्थापित किया कि यदि रामकृष्ण, जिनको उस समाज में देवता समान पूजा जाता था, थियेटर आ सकते हैं, तो हर कोई आ सकता है. इस घटना के बाद थिएटर एक बड़े वर्ग के लिए मान्य हो गया.
रामकृष्ण ने ऐसी ही कई प्रचलित मान्यताओं को तोड़ा. इसमें वेश्याओं का दक्षिणेश्वर मंदिर में प्रवेश भी शामिल है. गदाधर चट्टोपाध्याय ऐसे ही परमहंस नहीं बन गए थे. यह विडम्बना ही है कि उन्हें केवल एक काली भक्त में रिड्यूस कर दिया गया.
(सुलोचना कवि हैं. कविता लिखने के साथ-साथ वे भिन्न भाषाओं की कविता का अनुवाद भी करती हैं.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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