पिथौरागढ़ में उस दिन हमारी सुबह और दिनों से थोड़ा पहले हो जाती थी. सुबह से ही त्योहार वाली चहल-पहल रहती थी. उत्तराखंड में हर त्योहार प्रकृति से जुड़ा हुआ होता है. प्रकृति से जो मिला है, वही बांटकर हम खुशियां मना लेते है. चैत्र मास की संक्रान्ति को फूलदेई मनाकर हम पहाड़ी लोग बसंत का स्वागत करते हैं.
उस दिन हम लोग सुबह ही नहा-धोकर तैयार हो जाते. खेतों से सरसों, प्योली, आडू, पुलम, खुबानी और कुछ जंगली फूल भी तोड़ लेते. मुझे जंगली फूल बहुत अच्छे लगते थे. अब कभी वो फूल देखने का मन करता है तो इंटरनेट पर किस नाम से सर्च करूं, कुछ समझ नहीं आता. उनका कोई नाम नहीं होता था, वे बस ऐसे ही खिल जाया करते थे. कहीं झाड़ियों के पास, कहीं पेड़ों के नीचे, कहीं रास्ते के किनारे, कहीं भी. कभी उनको चढ़कर तोड़ना होता तो कभी झुककर. खूब सारे फूल इकट्ठा करते. दोस्तों में कॉम्पिटिशन चलता कि किसके पास ज्यादा फूल होंगे.
फूल तोड़ने से जिस अपराधबोध का अहसास अब होता है, ऐसा तब नहीं होता था. क्योंकि वे फूल हर दिन उतने ही खिलते थे. हमने अपने चारों तरफ फूल देखे हैं, तोड़े हैं और उन्हें फिर से उगते हुए देखा है. फिर हम फूलों के साथ चावल मिला लेते थे और उसको एक थाली में सजा लेते थे. इसके बाद हम सारी लड़कियां (तब बच्चियां हुआ करते थे) मिलकर गांव में सबके दरवाजों पर जाते थे और हर द्वार को फूल और अक्षत(चावल) से सजा देते थे. सारे दरवाजों पर फूल डालते थे और ये लोकगीत गाते थे-
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई.
हम हर दरवाजे पर गाना गाते और फूल डालते जाते फिर उस घर में रहने वाले लोग हमें टॉफी, पैसे या गुड़ दिया करते थे. ये मिलते ही हम उनके पैर छूते और फिर भाग जाते दूसरे घर की तरफ. मिली हुई चीजें रखने के लिए हमारे पास अलग से एक थैला होता. उसमें भरते जाते. जब पूरे गांव की देहरियां पूज लेते तो घर आकर थैले के अंदर की सारी चीजें गिनते. कितने खुश हो जाते थे.
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मुझे याद है एक बार फूलदेई पड़ी थी, मैं नैनीहाल में थी. वहीं सबके घर में गई, किसी ने 1 रुपया दिया किसी 50 पैसे और किसी ने बस गुड़ दे दिया. पूरे गांव ने कुछ मिलाकर 13 रुपये दिए थे, मुझे बहुत गुस्सा आया था तब. आज याद करती हूं तो हंसी आती है और फिर आंखें भर आती हैं. कितना समय लगता है एक संस्कृति के बनने में और कितना कम समय लगता है उसके खत्म हो जाने में. मेरे गांव में इस समय शायद 2-3 परिवार रहते हैं, वो भी उस घर के बुजुर्ग. बाकी बंदर हैं. खेतों में कूदते हैं लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिलता. क्योंकि खेतों में कुछ बोया नहीं है. बुजुर्ग कितना बो लेंगे.
शिक्षा और फिर नौकरी के लिए इतना पलायन हो चुका है कि अब गांव खाली हो गए हैं. सरकारों को इस तरफ ध्यान देने की जरूरत है कि केवल सुविधाओं की कमी के कारण हमारे लोग उपजाऊ जमीन को छोड़कर शहर की तरफ भाग रहे हैं. शहरों से राजधानी की तरफ भाग रहे हैं. राजधानी से विदेशों की तरफ. और इस बीच ऐसे छोटे-छोटे लोकल त्योहार भी खो रहे हैं.
(लतिका जोशी पत्रकार हैं. उत्तराखंड की परम्परा को रेखांकित करता उनका यह पोस्ट उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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