अपनी मृत्यु की योजना मैं स्वयं बनाती रहती हूं और ज़रूरी लोगों को बताती भी रहती हूं कि अगर अचानक मृत्यु हो तो ज़रूरी पासवर्ड ये हैं या मैं इस तरह विदा होना चाहती हूं संसार से इत्यादि...
...लेकिन आजकल उस मज़ाक का विरोध करने लगी हूं जो अधिकांशतः कुटुंब का पुरुष वर्ग करता है, "तुम मरो तो.../ तुम मर जाती तो.../ तुम्हारे मरने पर.../ तुम पहले मर जाती तो..." इत्यादि इत्यादि. अब मैं पलट कर पूछती हूं कि यह मज़ाक मैंने पिछली बार तुम्हारे लिए कब किया था या यह मज़ाक तुम्हारे साथ पिछली बार किसने किया था ?
कारण सिर्फ इतना है कि अगर दोतरफा मज़ाक चल रहे हैं तब तो ठीक लेकिन अगर जेंडर देख कर या उम्र देख कर (कई बार वृद्धों से भी यह मज़ाक किया जाता है 'तुम मरोगे तब... अब कितने दिन जियोगे... आदि') यह मज़ाक किया जा रहा है तो मुझे विरोध करना चाहिए.
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मैं बीए में थी शायद जब संगीत अभ्यास के लिए आ रही उम्र में बड़ी उन दीदी की नकल कर घर में सुनाती थी जो अपनी बीमारी के कारण मानसिक रूप से कमज़ोर हो चुकी थीं.
घर में कोई आता तो मुझसे हंस कर फरमाइश की जाती," फलां कैसे गाती हैं बताओ" और मैं शुरू हो जाती. आने वाला भी हंस-हंस कर गिरने लगता और घर-परिवार के साथ मैं ख़ुद एक बार फ़िर लहालोट...!
माधुरी जो मानसिक बीमारी का दंश इर्दगिर्द महसूस करने लगी थी उसने एक दिन कहा, "क्यों उड़ाती हो मज़ाक ? बीमार तो कोई भी कभी भी हो सकता है." मुझे गलती समझ आई अपनी.
बाद में जब अपने ही परिवार में मानसिक रोग से जूझते प्रियजन को देखा तो बार-बार ईश्वर से माफी मांगी, "मेरी गलती की सज़ा उन्हें क्यों ?" कह कर.
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मेरा जन्म तब तक नहीं हुआ था. छोटी दीदी उस दिन परीक्षा देने जा रही थीं. उनकी हमउम्र कोई लड़की जिसे एक पैर में हल्का पोलियो था आईं और परीक्षा के विषय में पूछने लगी.
दीदी को पहले ही देर हो चुकी थी. बाबूजी देख रहे थे और खीझ रहे थे. घर आ कर कहा, " वैसे ही देर हो रही थी परीक्षा के लिए जाने में तब तक फलां साहब की वो लंगड़ी लड़की आ कर रोक ली"
अम्मा हतप्रभ सी रोष में बोलीं, "ये किस तरह बोल रहे हैं आप ?"
बाबूजी क्षमा माँगने में अग्रणी थे, तुरन्त गलती महसूस करते हुए कहा, " असल में किरन वैसे ही धीरे लिखती हैं और उनके पेपर छूट जाते हैं इसलिए अपनी खीझ में निकल गया मुंह से. गलत तो कहा हमने"
बाद में उस घर में जब मैं हुई और इतने बड़े पोलियो अटैक से गुज़री तो अम्मा अक्सर यह घटना याद करतीं.
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“Tina Dabi का फैसला निजी है, उन्हें उनके निजी फ़ैसलों के साथ छोड़ दीजिए...”
मुश्किल से 15-20 दिन पहले भतीजी से वीडियो कॉल करते हुए मैंने कहा, "फलानी की तरह मुंह क्यों बना रही ?"
भतीजी ने मुस्कुरा कर जताया, " किसी के फिजिकल अपीयरेंस का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिये"
मुझे लगा कि उसने मुझे करेक्ट किया है और सही जगह करेक्ट किया है.
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कल ऑफिस में संवेदनाओं के स्तर पर दुरुस्त कलीग सफाई को लेकर ऑबसेस्ड हो गए व्यक्ति के क़िस्से लगातार हंस कर सुना रहा था और साथ में ख़ुद ही यह भी बताया कि वह व्यक्ति इलाज़ के बाद ठीक हो गया.
चूंकि वह कलीग बात समझ सकता था इसलिए मैंने उससे कहा कि मानसिक बीमारी की चर्चा करते वक़्त उतना ही गम्भीर रहना चाहिए जितना अन्य शारीरिक बीमारियों की चर्चा करते वक़्त. कलीग ने गलती स्वीकार करते हुए कहा कि वह सम्भवत: इसलिए हंस रहा था कि उस व्यक्ति के कार्यकलाप पूरे मोहल्ले के लिए हंसी और चर्चा के विषय रहते थे.
मैंने स्मिथ का प्रकरण सुनाते हुए उससे कहा कि बात बस इतनी सी है कि क्रिस हो या तुम या मैं ख़ुद किसी को कभी सिखाया ही नहीं गया कि हमें किस बात को संवेदनशीलता से बरतना है.
संवेदनशीलता परिवार के स्तर पर शुरू होती है और समाज में फैलती है. अपने आस-पास के लोगों को और ख़ुद को करेक्ट करते रहना चाहिए फिर शायद अगली पीढ़ी इस संवेदनशीलता के साथ बड़ी हो तो हम सभ्यता में आगे बढ़ें
बात यह नहीं कि स्मिथ गलत है या क्रिस. बात बस यह है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर हुई इस घटना की धमक पूरे विश्व में गई. पूरे विश्व में कॉमेडी के नाम पर कुछ भी बोलने के पहले कॉमेडियन एक बार सोचना शुरू करें शायद और लोक भी शायद इसके प्रति जागरुक हो.
(कंचन सुख्यात लेखिका, ब्लॉगर हैं. साथ ही प्रखर एक्टिविस्ट भी है. विकलांग विमर्श पर केन्द्रित उनकी पुस्तक का नाम है ‘तुम्हारी लंगी.’)
(यहाँ दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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