यादें भी साड़ियों की तरह होती हैं. अलग - अलग अवसर पर अलग - अलग लोगों से मिलती हैं.  मां - बाप , भाई - बहन, दोस्त - यार, प्रेमी / पति  कभी साड़ी, तो कभी यादें, तो कभी दोनों ही उपहार में दे देते हैं. (इन आत्मीय जनों के अलावा भी दुनिया में कई लोग तरह - तरह की यादें देकर चले जाते हैं.)
उनमें से कुछ साड़ियों को हम अलमारी में रख कर भूल जाते हैं और अक्सर उनमें दाग लग जाते हैं. वे रखे - रखे गल जाती हैं. कुछ इतनी पसंद आती हैं कि उन्हें बार - बार पहनते हैं, तब भी वे दिल से उतरती नहीं. नई की नई लगती हैं. उन्हें पहनना खुद को मोहब्बत करने जैसा होता है ...

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साड़ी हों या यादें, उन्हें धूप दिखाना ज़रूरी है 

लेकिन साड़ी हों या यादें, उन्हें धूप दिखाना, धुलवाना , पोलिश करवाना जरूरी है, ताकि वो गल और सड़ न जाएं और सबसे जरूरी बात ये कि जिनकी अब जरूरत नहीं रह गई, उन्हें सिर्फ इसलिए अपनी अलमारी में जगह देना कि वे कभी आपकी थीं, उचित नहीं. सो , धूप दिखाइए, धुलवाइए और  उन्हें अपनी ज़िंदगी से खुशी - खुशी रुखसत कीजिए. क्या पता आपसे ज्यादा किसी और को इनकी जरूरत हो ...
जितनी हल्की होंगी , उड़ान उतनी ऊंची होगी ... 

(मेधा दिल्ली विश्व विद्यालय में प्राध्यापक हैं. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है. )

(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

 

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a memoir on saaree and memory by Medha
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Memory Lane : साड़ी और यादों के सिलसिले
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Hindi
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