हफ्तों पहले स्कूल से वापस लौटते हम बच्चे ना जाने कहां-कहां से थैलियों में गोबर इकट्ठा करते और शाम होते ही घर की छत पर गुलरियां बनाने बैठ जाते. उस समय हमारे बीच इस बात का कॉम्पटीशन होता कि किसने कितनी गुलरियां बनाई. व्हाट्सएप था नहीं इसलिए चैक करने को एक दूसरे की छत पर दौड़ लगाते. इधर ऊपर छत पर हमारी गुलरियां बनतीं और उधर नीचे चौके में अम्मा की गुझिया पर भोग से पहले अम्मा हाथ तक ना लगाने देतीं और भोग के बाद हमारे हाथों में भागते - दौड़ते बस गुझिया ही नजर आतीं . ये बड़ा ताज़्जुब ही था कि तमाम जतनों के बाद भी अपने घर की गुजियों का स्वाद मोहल्ले के बाकी घरों की गुजियों से फीका ही लगता था इसलिए होली से पहले हम बच्चों के बीच गुजियों की अदला - बदली भी चलती रहती क्योंकि तब होली कोई दो दिनों की बात तो थी नहीं.
चाचा कभी लॉन्ग वीकेंड सोचकर नहीं आते
होली को अभी हफ़्ता बचता पर लाल - हरा रंग किसी ना किसी पर रोज पड़ता. कभी पापा रंगे आते तो कभी चाचा इसलिए ढुंढाई होती पुराने कपड़ों की. घर में ना जाने कहां - कहां से पुराने कपड़े निकलते और हिदायत मिलती कि अब यही पहनकर बाहर निकलो. अब जो होली आने को है तो रंग तो पड़ेगा ही क्योंकि तब होली कोई 2 दिनों की बात तो थी नहीं.
गांव कस्बों से शहरों में जा बसे लोग घर लौट आते . यातायात सुविधाएं कम थीं पर इतनी कम कभी नहीं थीं कि त्योहार पर घर आना मुश्किल होता. चाचा बाहर नौकरी करते थे और मुझे याद है उन्होंने त्योहार पर घर आने का फैसला कभी लॉन्ग वीकेंड देखकर नहीं किया. वो 2 दिन पहले आते और 2 दिन बाद ही जाते. पर उनके घर आने का इंतज़ार हम हफ्तों भर पहले से करते क्योंकि तब होली कोई दो दिन की बात तो थी नहीं.
बाज़ार में तब होली के हैम्पर्स नहीं होते थे
बाज़ार में तब होली के हैम्पर्स नहीं होते थे और ना ही हर्बल रंगों वाला चक्कर. जहां तहां दुकानें और फड़ें रंग - गुलाल से सजी होतीं और किसी एक शाम अखबार की पुड़ियों में बंधे तमाम रंग घर चले आते ... ख़याल इस बात का रखा जाता कि कि पक्का हरा रंग कहीं छुपाकर रखा जाए क्योंकि ये वही ढीठ रंग था जो महीनों बाद भी नहाते हुए बालों से निकलकर गुसलखाने को रंगीन करता और पानी उड़ेलते - उड़ेलते हाथ थक जाते.
" पानी बचाना है " ये ख़याल तब कहां किसी बुद्धिजीवी के दिमाग में आया था इसलिए होली से कई दिन पहले चबूतरों और छतों पर पानी के ड्रम भरकर रख दिये जाते क्योंकि तब होली कोई दो दिनों की बात तो थी नहीं ...
इधर एक कन्फ्यूजन हमेशा रहा, होली जलेगी कब और खिलेगी कब ? तब भी होता था ख़ैर जलाने से हमारा रत्ती भर वास्ता नहीं था पर इंतज़ार इसलिए रहता कि जिस रात होली जलती उसकी अगली सुबह कई दिनों से संभालकर रखी पिचकारी मम्मी आखिरकार थमा देतीं. इधर पापा - चाचा होली की आग लेकर आते और उधर हम पिचकारी लेकर चबूतरों पर भागते, इस बीच घर के आंगन में जलती होली पर गेहूं की बालें डालते हुए मैंने ना जाने कितनी मन्नते मांगी है. हालांकि ये अब तक नहीं पता कि मांगनी भी चाहिए या नहीं पर मांगी ख़ूब हैं. मासूम मन जो ना कराए? उस वक़्त उस आग में मेरी मन्नते जातीं और कढ़ाई में बनता अम्मा का हलवा भी. शायद ये हमारे यहां की परंपरा है कि होली के दिन हलवा उसी आंच पर बनता है और हमने उसी आंच पर बाद में आलू भूनकर अपनी नई परम्परा गढ़ी.
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इधर ये सब खत्म होता तो घरवालों की आवाजें चबूरते पर होली खेलते हम बच्चों के कानों में धसती , ये वो वक़्त था जब सड़को पर होली खिलने का सिलसिला शुरू होता और इससे पहले कि बौराई भीड़ रंग फेंकती मुहल्ले से गुज़रती , किवाड़ बन्द कर हम बच्चों को छत पर भेज दिया जाता. हम वहीं छत पर टंगे हुए घंटों होली खेलते और जब भूख के आगे हार जाते तो बैठ जाते वहीं किसी कोने में रंग छुड़ाने लग जाते. ऐसे में चौके से कढ़ी बनने की ख़ुशबू आती. होली के बाद कढ़ी-चावल बनना भी घर की परंपराओं का हिस्सा है और उस दोपहरी गन्ने चबाना भी. वैसे तो परम्पराओं के नाम पर होली में भांग का भी जिक्र होता है पर जो लोग रंग खेलकर , नहाने के बाद खाना खाकर होली वाले दिन सोए हैं वो जानते होंगे कि नशा क्या होता है.
नींद का ऐसा नशा बस होली के दिन ही चढ़ता था और शाम होते - होते उतर भी जाता पर जो होली गुजरने के हफ्तों भर बाद भी ना उतरता वो था बालों में भरा पक्का हरा रंग जो हर बार नहाते हुए गुसलखाना रंगीन करता क्योंकि तब होली दो दिनों की बात थोड़ी ना थी.
(पूजा व्रत गुप्ता किस्सा गो हैं. उनकी कहानियां रेडियो में ख़ूब सुनी जाती है. इस फ़ेसबुक पोस्ट में वे अपने बचपन को याद कर रही हैं. )
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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