पटना में अब मेरा जहां घर है, उसमें मैं बहुत कम रहा. इसलिए ऑटो बदल-बदलकर वहां जाता हूं, जहां रहा. यानी जगत नारायण रोड से लेकर अशोक राजपथ के इलाक़े में.इसी भूगोल में पढ़ा, बड़ा हुआ और मंसूबा बांधते-बांधते बग़ैर किसी को जाने-पूछे मुंह उठाकर एक दिन दिल्ली चला गया.
इस आस में कि अपने मन का पढ़ूँगा. फ़िल्में देखूँगा. कहीं कोई प्रूफ़ रीडिंग करने की नौकरी मिल जाए, तो पैसे आएँ और किताब पढ़ने का सुख मिले. लेकिन ज़िंदगी मुझे इतने सब्र से नहीं बरत रही थी. वह हर तरह से मुझ पर ज़ाहिर होना चाहती थी.
तीन बरस की पढ़ाई और तेरह बरस की पहली नौकरी के बीच पिता पहले अस्वस्थ हुए और ढाई बरस दर्द में रहकर अनुपस्थित! मेरी याद के पन्ने इस लिखावट में भर गए कि उसकी भाषा तो दूर, लिपि-वर्तनी भी फ़िलहाल मेरी पढ़त से बाहर हैं.
भाषा के बाहर ठिठका मैं चित्र में जा गिरा. मुंबई के चुप्पा दिनों में. सबसे कम मुंबई में रहा लेकिन सबसे मिलनसार हवाएँ लोकल में लगीं. धकियाते लेकिन गिर जाने पर बाँह पकड़ उठा देने वाले लोग भी मिले.
भटकते हुए सीखना
भटक जाने पर डेरे का रास्ता बता देनेवालों के चेहरों ने मुझे पोर्ट्रेट खींचना सिखाया. परित्यक्त, तिक्त, अलक्षित और उपेक्षित लोगों और वस्तुओं के संसार से अटी मेरी आँख जब-तब डबडबा जाती है. मैं तस्वीर में उनकी किसी कथा का अनुवाद कर ही नहीं सकता. वह अपार है. दृश्य में उसकी समाई नहीं सम्भव!
टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने मेरी जिस दोस्त को मंदी का हवाला देकर निकाल दिया, उसने बाद में केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस में आला मक़ाम पाया. उसकी माँ ने अपने बच्चों बराबर मानकर मुझे कई ईदी दी. जब कभी उस मुश्किल नाम वाली दोस्त की आर्ट टीम की नज़र में मेरी खींची हुई तस्वीर खुब जाती है, तो मैं फ़ोटोग्राफ़रों की पीछे से शुरू होने वाली क़तार में जगह पा जाता हूँ.
हिन्दी में गिनती भूल जाने तक लेखकों के लिखे, जिए, किए से निकट परिचय के बाद मुझे अपनी यह जगह पसंद पड़ती है. यहीं से मैं पढ़ता हूं : दृश्य, पाण्डुलिपि, मित्र और मनुष्य.
(अनुराग वत्स की फ़ेसबुक वॉल से)
(तस्वीर सौजन्य : अनुराग वत्स)
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