डीएनए हिंदी: नेपाल अपने प्रांतीय और राष्ट्रीय चुनावों के लिए पूरी तरह से तैयार है. 20 नवंबर को होने वाले चुनावों में सत्तारूढ़ गठबंधन का जीतना तय माना जा रहा है. नेपाली कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन और कम्युनिस्ट पार्टी, रॉयलिस्ट ग्रुप के बीच असली चुनावी लड़ाई है.
नेपाल के संसद में कुल 275 सीटे हैं. 2022 में होने वाले इस चुनाव में कुल 1,80,00,000 वोटर हैं. नेपाल राजनीतिक अस्थिरता के साथ-साथ कई मोर्चे पर आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है. आइए जानते हैं कि नेपाल आम चुनावों के लिए कैसे तैयार हो रहा है.
बुरी अर्थव्यवस्था और महंगाई से जूझ रहा है नेपाल
नेपाल में संसाधन नहीं हैं लेकिन लोगों की जरूरतें किसी विकासशील देश की तरह ही हैं. नेपाल की कुल आबादी करीब 3 करोड़ से ज्यादा है. रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे जंग का असर इस देश पर भी पड़ा है. यहां महंगाई 8 फीसदी तक बढ़ गई है.
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नेपाल पर महंगाई की मार बीते 6 साल में सबसे खराब स्तर पर पहुंच गई है. कोविड महामारी के दौरान नेपाल का बचा-खुचा पर्यटन उद्योग भी चौपट गया था. ऐसे में आर्थिक मोर्चे पर नेपाल के सामने कई चुनौतियां हैं.
नेपाल आर्थिक बदहाली से बुरी तरह दशकों से जूझ रहा है. न उद्योग हैं, न बेहतर पर्यटन की सुविधाएं हैं, जिससे लोगों की जिंदगी ट्रैक पर आए. नेपाल की 1/5 फीसदी आबादी ऐसी है, जिसकी एक दिन की कमाई 165 रुपये से भी कम है.
नेपाल में महंगाई को मुद्दा बनाने की कोशिश की गई है. ऐसे में हो सकता है कि चुनावों में भी महंगाई का मुद्दा नजर आए. जिन पार्टियों ने महंगाई कम करने का वादा किया है, उन्हें मजबूत बढ़त मिले. इन वादों की हकीकत जनता जानती है लेकिन कुछ कर नहीं सकती है.
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नेपाल के लिए विश्व बैंक ने अनुमान जताया है कि मध्य जुलाई से शुरू होने वाले वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था में 5.1 फीसदी तक इजाफा हो सकता है. बीते साल यह आंकड़ा 5.84 फीसदी था.
नहीं खत्म हो रही है नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता!
नेपाल में जब तक राजशाही थी, तब तक भारत के साथ संबंध बेहद अच्छे रहे थे. भारत निवेश भी कर रहा था. अब हालात थोड़े अलग हैं. रह-रहकर कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अपना चीन प्रेम दिखाते हैं और नेपाल की ओर से भारत विरोधी बयान दिए जाते हैं. जिस देश के साथ रोटी-बेटी का संबंध रहा है लेकिन अब हालात उतने ठीक नहीं है. मधेसी बनाम पहाड़ी की राजनीति ने सारे संबंधों को तल्ख करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है.
नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता भ्रामक स्थिति में रही है. नेपाल कभी चीन के करीब जाता है तो कभी भारत के साथ होने का दावा करता है. यही वजह है कि भारत और चीन, दोनों देशों के निवेशक नेपाल में निवेश करने से डर रहे हैं.
239 साल पुरानी राजशाही खत्म होने के बाद से साल 2008 में नेपाल एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बना. तब से लेकर अब तक 10 अलग-अलग सरकारें नेपाल में शासन कर चुकी हैं.
नेपाल में कितनी राजनीतिक पार्टियां हैं?
नेपाल में तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां हैं. नेपाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट पार्टी (UML) और माओइस्ट सेंटर. नेपाल का अतीत ऐसा रहा है जब अलग-अलग गठबंधन सरकारें अस्तित्व में आईं लेकिन अंदरुनी कलह की वजह से किसी ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया.
नेपाल के गृहयुद्ध के लिए जिम्मेदार माओवादियों ने साल 2006 में सरकार के साथ एक शांति समझौता किया. इस समझौते के बाद वे मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो गए थे. अब वे सत्ता में हैं.
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माओवादी गुरिल्ला कमांडर रह चुके वित्त मंत्री जनार्दन शर्मा का दावा है कि नेपाल के हालिया आर्थिक संकट और राजनीतिक स्थिरता को हल करना जनता की सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी.
किस-किस के बीच में कांटे की टक्कर?
नेपाल में असली लड़ाई नेपाली कांग्रेस पार्टी और कम्युनिस्ट यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट पार्टी (UML) के बीच है. नेपाली कांग्रेस, गठबंधन की 4 सहयोगी पार्टियों के साथ सत्ता में है. नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा नेपाली कांग्रेस पार्टी के नेता हैं. उन्होंने माओइस्ट सेंटर पार्टी के साथ गठबंधन किया था. यही पार्टी माओवादी उग्रवादियों की मूल पार्टी रही है.
शेर बहादुर देउबा को उम्मीद है कि वह 6वीं बार सत्ता में वापसी कर सकते हैं. ऐसा माना जाता है कि उनकी पार्टी का झुकाव चीन नहीं बल्कि भारत की ओर है.
कम्युनिस्ट यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट पार्टी (UML) का नेतृत्व केपी शर्मा ओली कर रहे हैं. ओली अपने भारत विरोधी बयानों के लिए मशहूर रहे हैं. उनका रॉयलिस्ट ग्रुप के साथ गठबंधन भी टूट गया था. ओली का चीन प्रेम जगजाहिर था. अगर उनका गठबंधन जीतता है तो केपी ओली का ही प्रधानमंत्री बनना तय है. इससे पहले भी 2 बार वह प्रधानमंत्री रह चुके हैं.
पुष्प कुमार दहल प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी का किंगमेकर बनना इस बार तय माना जा रहा है. वह भी प्रधानमंत्री पद का खुद को प्रबल दावेदार मानते हैं. नेपाल में जब माओवादी उग्रवाद अपने चरम स्तर पर था तब प्रचंड की तूती बोलती थी. देखने वाली बात यह है कि प्रचंड किस ओर जाते हैं.
नेपाल के चुनाव पर भारत की क्यों है नजर?
नेपाल, भारत और चीन दोनों का पड़ोसी देश है. भारत के साथ नेपाल के संबंध बेहद प्राचीन हैं. नेपाल के साथ रोटी और बेटी का संबंध भी है. धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर भी नेपाल भारत के ज्यादा करीब है. नेपाल की मधेशी आबादी हिंदी, अवधी और भोजपुरी बोलती है. नेपाल में जब कम्युनिस्ट दल सत्ता में आते हैं तो तल्खियां बढ़ जाती हैं. जब कांग्रेस सत्ता में आती है तो भारत के साथ संबंध बेहतर रहते हैं.
नेपाल का चीन प्रेम क्यों भारत के लिए है खतरा?
ऐसे में नेपाल की राजनीति पर भारत करीब से नजर रखता है. चीन और भारत अपने रणनीतिक और आर्थिक हितों के साथ चुनावी नतीजों पर नजर रखेंगे. चीन ने अपने विशाल बेल्ट रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत नेपाल के साथ कई परियोजनाओं पर हस्ताक्षर किए हैं. चीन ट्रांस-हिमालयी रेलवे नेटवर्क को बढ़ाना चाहता है.
चीन, काठमांडू को ल्हासा से रेलवे नेटवर्क के जरिए कनेक्ट करना चाहता है. अगर चीन की पसंदीदा सरकार बनी तो भारत पर असर बुरा पड़ सकता है. नेपाल अगर चीन के साथ जाता है तो भारत से सटी हुई सीमाओं पर चुनौतियां बढ़ा सकता है. एक बार अगर चीन, पाकिस्तान की तरह नेपाल को भी कर्ज के दलदल में फंसाने में कामयाब हुआ तो स्थितियां वहां भी श्रीलंका की तरह हो जाएंगी.
अमेरिका की मौजूदगी भी बढ़ा रही है चीन की टेंशन
साल 2022 में नेपाल में रोड कंस्ट्रक्शन को बढ़ावा देने, इलेक्ट्रिक ट्रांसमिशन लाइन को सुधारने के लिए अमेरिका ने वित्तीय मदद दी थी. अमेरिका ने करीब 500 मिलियन डॉलर आर्थिक सहायता दी थी. चीन को यह फैसला रास नहीं आया था.
क्या है आम नागरिकों की राय?
नेपाल के कृष्णानगर में रहने वाले शुभम पांडेय का कहना है कि नेपाल प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है. इसके कई इलाकों को पर्यटन क्षेत्रों के तौर पर विकसित किया जा सकता है. नेपाल के ही तौलियहंवा में रहने वाले अभिषेक चौधरी कहते हैं कि भारत के उत्तराखंड, कश्मीर और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों को भी नेपाल टक्कर दे सकता है. विडंबना बस यह है कि उन जगहों पर पहुंचने के लिए न तो हमारे देश के पास सड़कें हैं, न तो संसाधन. नेपाल में पर्यटन की अनंत संभावनाएं तो हैं लेकिन उन तक पहुंचने के साधन नहीं हैं. अगर नेपाल पर्यटन को बढ़ावा देना चाहता है तो सबसे पहले उसे अपनी सड़कों पर ध्यान देने की जरूरत है.
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आर्थिक बदहाली, राजनीतिक अस्थिरता और मधेसी संकट के बीच चुनाव के लिए कितना तैयार है नेपाल?