डीएनए हिंदी: संस्कृत के महान कवियों में से एक भर्तृहरि ( Bhartrihari ) ने अपनी नीतियों से कई लोगों का मार्गदर्शन किया है. संस्कृत साहित्य में भर्तृहरि को बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई है. उनके द्वारा रचित नीतिशतकम् ( Niti Shatakam ), शृंगारशतक, वैराग्यशतक में ऐसी कई बातें बताई गई हैं, जिनके कारण लोग अपने-आप ही सकारात्मकता की ओर चल पड़ते हैं.
हर शास्त्र में सौ श्लोक हैं
प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं और यह सभी सुखी जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं. गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनने के बाद इन्होंने वैराग्य को अपनाया और इन्हें बाबा भरथरी के नाम से भी जाना गया.
आइए जानते हैं भर्तृहरि ( Bhatrihari ) द्वारा रचित नीति-शतकम् के 4 श्लोकों से कि हमें जीवन में किन लोगों से बचना चाहिए.
पहली बात
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥
नीति-शतकम् ( Niti Shatakam ) के अनुसार मूर्ख व्यक्ति को समझाना आसान है, एक बुद्धिमान व्यक्ति को समझाना उससे भी आसान है. अधूरा ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को भगवान ब्रम्हा भी स्वयं नहीं समझा सकते हैं, वह इसलिए क्योंकि अधूरा ज्ञान मनुष्य के तर्क को अंधा बना देता है और वह अपने तर्क पर अड़ जाते हैं.
दूसरी बात
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽसमीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किंचित्किंचिद्बुधजनसकाशादवगत
तदा मूर्खोस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥
इस श्लोक में भर्तृहरि बताते हैं कि जब मैं अज्ञानी था तब मैं मदमस्त हाथी की तरह अभिमान में रहकर स्वयं को सर्वज्ञानी समझता था. जब विद्वानों की संगति में मुझे ज्ञान प्रप्त हुआ. तब मुझे समझ आया कि मैं सबसे बड़ा अज्ञानी हूं और उस समय जो अहंकार मुझपर बुखार की तरह चढ़ा हुआ था वह अपने आप ही उतर गया.
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तीसरी बात
कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ॥
नीति-शतकम् ( Niti Shatakam ) के अनुसार जिस तरह एक कुत्ता भगवान इंद्र की उपस्थिति में भी उन्हें अनदेखा कर बेस्वाद, कीड़ों मकोड़ों से भरे, दुर्गन्ध युक्त और लार में सने हड्डियों को बड़े चाव से चबाता रहता है. उसी तरह लोभी व्यक्ति भी दूसरों से लाभ अर्जित करने में बिलकुल नहीं कतराता है. इनसे हमें बचना चाहिए.
चौथी बात
शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः॥
अर्थात जिस तरह मां गंगा ( Ganga ) स्वर्ग से आकर भगवान शिव के जटाओं में समा गई हैं, और वहां से मुक्त होकर हिमालय के मार्ग से धरती पर आती हैं. फिर मैदानी इलाकों से निकलते हुए अंततः समुद्र में मिल जाती हैं. इसी तरह मूर्ख व्यक्ति भी अपने जीवन के साथ ठीक यही व्यवहार करते हैं. वे हमेशा सबसे सरल मार्ग अपनाते है और उसी मार्ग पर रहते हुए वे सबसे निम्न स्तर पर पहुंच जाते हैं. ऐसे लोगों की संगत से भी हमें बचना चाहिए क्योंकि हमारा व्यवहार भी जीवन के प्रति ऐसा ही हो जाएगा.
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(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. डीएनए हिंदी इसकी पुष्टि नहीं करता है.)
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Niti Shatakam: ऋषि भृतृहरि के 4 श्लोकों से जानिए कि जीवन में किन लोगों से बचना चाहिए