डीएनए हिंदी: देवास में भरे-पूरे तालाबों की संख्या बढ़ती चली गई और यहां हर किसी के जीवन में कुछ न कुछ बदलाव जरूर देखने को मिले. बच्चे जिनकी स्कूल की फीस एक समय में अभिभावकों को भरने में मुश्किल पेश आती थी, वही अभिभावक अब अपने बच्चों को अच्छे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं. महिलाएं जो पीने का पानी भरने की कवायद आधी रात से शुरू कर देती थीं अब वह सुकून के साथ सोती हैं. अब वह घर के मर्दों के साथ खेती का काम भी देखती हैं. इस इलाके में हरा-भरा चारे की कोई कमी नहीं रह गई तो नतीजतन पशुओं की आबादी भी बढ़ी है. जाहिर सी बात है कि अब पशुओं का चारा देने से लेकर काटने के काम में भी महिलाएं, पुरुषों का हाथ बंटाती हैं. महिलाएं खेती के काम में बेहतर करेंगी और मुख्यमंत्री सर्वोत्तम कृषि पुरष्कार से उन्हें नवाजा जाएगा, यह इस इलाके के लोगों ने पानी लौटने से पहले कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा. आदिवासी महिला को कृषि के लिए यह पुरस्कार मिलेगा, इसके बारे में तो कोई सोच ही नहीं सकता है. हालांकि हकीकत यह है कि देवास जिले के पोस्तीपुरा गांव की गीता को जब यह पुरस्कार मिला था तो उनकी आंखें खुशी से छलक पड़ीं.
भिलाला आदिवासी समुदाय से नाता रखती है गीता बाई
भिलाला आदिवासी समुदाय के मदन रावत ने 20 साल पहले अपना गांव पुंजपुरा छोड़ दिया और अपने ससुराल पोस्तीपुरा आ बसे. हालांकि यहां आते वक्त उन्होंने ऐसा सपने में नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनकी पत्नी गीता बाई को राज्य के मुख्यमंत्री सर्वोत्तम कृषि पुरष्कार से नवाजेंगे. मदन ने बताया, ‘मैं अपना गांव छोड़कर जब यहां आया था तब यहां निपट जंगल था. साल के तीन-चार महीने सड़कें बजबजाते कीचड़ से लिथड़ी रहती थीं. करीब एक दशक साल पहले ही यहां पक्की सड़कें बनीं हैं. पहले गांव में जब कोई बीमार होता तब उसे खाट पर लिटाकर हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था. डॉक्टर तक पहुंचने से पहले ही कई लोग दुनिया को अलविदा कह देते थे. अब कुछ लोगों के पास गाड़ियां आ गई हैं. यहां से 4 किलोमीटर दूर पलासी गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र भी शुरू हो चुका है. कुछ लोगों के पास खेत जोतने के लिए ट्रैक्टर भी आ गए. तालाबों के बनने से हमारे गांव में समृद्धि आ रही है इसलिए अब हम लड़ने की बजाए हमेशा एक-दूसरे की मदद को तैयार रहते हैं.’ इस गांव में भिलाला के अलावा बंजारे और कोरकू समाज के लोग भी रहते हैं.
बरजई घाटी से बड़ी मंडियों तक सप्लाई की जाती हैं सब्जियां
पोस्तीपुरा गांव देवास जिले के बागली विकास खंड में पड़ता है. देवास जिला मुख्यालय से इसकी दूरी कोई 100 किलोमीटर के आसपास है. देवास से यहां पहुंचने के रास्ते में लगभग 7 किलोमीटर लम्बी बरजई घाटी पड़ती है. गोल-गोल घूमती हुई सड़कों की वजह से इसे यहां के लोग जलेबी घाट भी कहते हैं. कुछ लोग तो मजाक में परदेसियों को यह भी बताने से बाज नहीं आते हैं कि फिल्मोंवाली जलेबीबाई का गाना यहीं के जलेबीबाई से प्रेरित है. हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है पर इस सुरम्य घाटी से गुजरते हुए इस झूठ पर भी दिल लाख-लाख बार कुर्बान करने का मन होता है. इस घाटी में खूबसूरत सागवान के नए और पुराने पेड़ों की कतारें हैं. घाटी से उतरते हुए सड़क के दोनों ओर हरी-भरी सब्जियों के यहां से वहां तक खेत दिखने लगते हैं. हमारे साथ कृषि विभाग के सहायक निदेशक डॉ. अब्बास भी हैं. वे बताते हैं कि यहां से सब्जियां भोपाल तथा राज्य की दूसरी सब्जी मंडियों को भेजी जाती हैं.
गीता के घर ट्रैक्टर, जीप और मोटरसाइकिल भी है
पोस्तीपुरा के मदन के घर जब हमारा पहुंचना हुआ तो उनकी पत्नी टीन की छत पर कपास सुखा रही थीं. वे हमें देखकर नीचे उतर आईं. उनके घर के अंदर ट्रैक्टर, जीप और मोटसाइकिल खड़ी थी, मानों वे उनकी समृद्धि की गवाही दे रही हों. इस बारे में गीता बाई से पूछा तो उन्होंने बताया कि यह सब तालाब की देन है. ऐसा कहते हुए उनकी आंखें नम हो उठती हैं और वे अपने घर के पिछवाड़े में बने तालाब की ओेर श्रद्धाभाव से देखने लग गईं. उन्हें कुरेदने की कोशिश की तो आगे उन्होंने बताया कि आपको कई तरह की पक्षियों की आवाज सुनाई दे रही है न. आप अगर तालाब बनने से पहले यहां आते तो आपको कौआ छोड़कर कुछ नहीं दिखता लेकिन अब यहां आपको पचासों किस्म के पक्षी और हिरण (काले और सामान्य) दिख जाएंगे. पहले यहां पानी की मारामारी थी. पीने भरने के लिए कई बार कुएं पर रातभर खड़ा रहना पड़ता था. गीताबाई की 20 बीघे की खेती है और उनके पास दो तालाब हैं. हमारे पास ही खड़े हुए एक बुजुर्ग ने बीच में टोकते हुए कहा- ‘बेटा, हम खुशहाल हैं. हमारे बच्चे-बच्चियां पढ़ने लगे हैं.’
यहां लड़के ही नहीं लड़कियों की आंखों में सपने पलते हैं
गांव में एक सरकारी स्कूल है जिसमें पांचवीं तक की पढ़ाई होती है. किसी को पांचवीं के आगे पढ़ाई करनी हो तो उसे चार-पांच किलोमीटर दूर पुंजीपुरा गांव स्थित हाई स्कूल की शरण लेनी पड़ती है. मदन बताते हैं कि हमारे गांव में कुछ साल पहले तक लड़कियां नहीं पढ़ती थीं. ऐसा सोचना भी अपराध सा था. अब लड़कियों के भाई और पिता ही उन्हें स्कूल और कॉलेज तक मोटरबाइक में बिठाकर ले जाते और वापिस घर लाते हैं. गांव में स्कूल खुल जाने की वजह से लड़कियां पीठ पर घास और अनाज का गट्ठर की जगह किताबों का थैला टांगे और आंखों में चमक लिए पढने हर रोज स्कूल पहुंच जाती हैं. मदन की तीनों बेटियां पढ़ रही हैं. एक बेटी तो देवास के कस्तूरबा गांधी कॉलेज के छात्रावास में रहकर बीए. द्वितीय वर्ष में पढ़ रही है. गांव के लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है, ऐसा गांव में नए पक्के मकानों और घर के अहाते में ट्रैक्टर, कार और मोटरसाइकिल देखकर कोई भी आसानी से अंदाजा लगा सकता है.
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