टाइम ट्रेवल की साइंस फिक्शन (science fiction) फिल्में देखते वक्त अक्सर हमारे दिमाग में एक बड़ा उलझन भरा सवाल आता है, वह यह कि क्या वाकई ऐसा संभव है? वहीं जब हम किसी और से इस बारे में बात करते हैं तो ज्यादातर लोग टाइम ट्रैवल को साइंस फिक्शन बताकर टाल देते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि टाइम ट्रैवल की थ्योरी को विज्ञान भी पूरी तरह से नकार नहीं पाया है. आईए इसे विस्तार से समझते हैं-
लीला रेड्डी, हो सकता है कि आप इन्हें ना जानते हों. कुछ समय पहले तक मुझे भी इनके बारे में नहीं पता था लेकिन हाल ही में गूगल करते हुए एक खबर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. तब मैं जान पाया कि लीला रेड्डी भारतीय मूल की न्यूरो सायंटिस्ट हैं जिन्होंने 'फ्रेंच नेशनल सेंटर फ़ॉर साइंटिफ़िक रिसर्च' में इंसान के दिमाग में मौजूद 'टाइम सेल्स' को अलग करने में सफलता हासिल की है.
क्या होती हैं टाइम सेल्स?
रिसर्च के मुताबिक 'टाइम सेल्स' दिमाग में मौजूद वे कोशिकाएं हैं जो समय का हिसाब रखती हैं. इन्हीं की मदद से इंसान बीते वक्त में हुई घटनाओं को सिलसिलेवार तरीके से याद कर पाता है. इस रिसर्च में पता चला कि दिमाग के हिप्पोकैम्पस में समय की पूरे चक्र का सिलसिलेवार अंकन होता है और अतीत में हुई घटनाओं की सिलसिलेवार यात्रा को दिमाग 'टाइम सेल्स' की मदद से पूरा कर पाता है.
दिमाग से ब्रह्मांड तक समय-यात्रा
विज्ञान में शुरुआती रिसर्च के आधार पर सिद्धांत नहीं बनते. हालांकि नई समझ कहती है कि 'टाइम सेल्स' की मदद से दिमाग समय-यात्रा करता है. यह भी दिलचस्प है कि इंसान के इसी दिमाग ने समय-यात्रा की पेचीदा अवधारणा को भी रचा है. समय यात्रा से आम आदमी का परिचय अक्सर साई-फाई फिल्मों के माध्यम से होता है. इस विषय पर कई शानदार फिल्में रची गई हैं जिनके पात्र टाइम-मशीन के जरिए अतीत और भविष्य का सफर करते हैं.
बहरहाल बात फिल्मों की हो या विज्ञान की लेकिन सवाल यही है कि क्या समय-यात्रा संभव है और अगर हां तो क्या गुजिश्ता वक्त में जा कर मौजूदा वक्त की किसी होनी को रोका जाना मुमकिन है? यह संभव है या टाइम-मशीन की परिकल्पना को हॉलीवुड ने जानबूझ कर डॉलर छापने की टकसाल बना दिया? दुनिया के सामने एक ऐसा झूठ रचा जिसका सच होना संभव नहीं? इस बारे में आखिर विज्ञान का क्या नज़रिया है?
टाइम ट्रैवेल: एक विज्ञान कथा
टाइम ट्रैवेल यानी समय-यात्रा का ज़िक्र सबसे पहले 1895 में प्रकाशित हुए 'द टाइम मशीन' उपन्यास में मिलता है. इसे विज्ञान गल्प के जनक माने जाने वाले लोकप्रिय विज्ञान-लेखक एच. जी. वेल्स ने लिखा था लेकिन यह कोरी कल्पना पर आधारित नहीं था. साहित्य और फ़िल्मों के रचना-संसार में टाइम-ट्रैवेल की अवधारणा कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर रची गई. यह सिद्धांत तब दुनिया के सामने आए जब विलक्षण मेधा के धनी वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने दुनिया के बारे में सोच बदल देने वाली 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' यानी 'सापेक्षता के सिद्धांत' को प्रस्तुत किया.
टाइम-ट्रैवेल की कल्पना को रिलेटिविटी के सिद्धांतों को समझे बिना समझना मुमकिन नहीं है. इस सिद्धांत के आने से पहले तक यह माना जाता था कि समय सबके लिए एक समान है, स्थिर है या निरपेक्ष है, यानी कोई दो लोग दुनिया के किसी भी दो कोने पर हों, दोनों के लिए ही समय एक सा होगा. इस सोच की वजह से ही समय को सर्वभौम माना जाता था. आइंस्टीन के 'सापेक्षता के सिद्धांत' ने इस मान्यता को चुनौती दी. उन्होंने यह अवधारणा दी कि समय सबके लिए एक जैसा नहीं होता, यानी दो अलग-अलग जगहों पर मौजूद लोगों के लिए समय अलग-अलग होता है. आइंस्टीन के मुताबिक दो घटनाओं के बीच का समय इस पर निर्भर करता है कि उन्हें देखने वाले की गति क्या है या घटना के दर्शक की अपनी स्थिति क्या है.
टाइम ट्रैवेल: अपना-अपना समय, अपनी रफ़्तार
रिलेटिविटी की इस अवधारणा को समझने के लिए अक्सर ही जुड़वा भाइयों के 'ट्विन पैराडॉक्स' का उदाहरण दिया जाता है. ट्विन पैराडॉक्स यानी जुड़वा विरोधाभास. मान लीजिए कि दो जुड़वा भाई हैं. उनमें एक प्रकाश से कुछ कम ही गति वाले रॉकेट पर सवार हो कर अंतरिक्ष का चक्कर लगा कर लौट आता है. उसके हाथ में बंधी घड़ी के मुताबिक उसे ये चक्कर लगाने में दो या तीन मिनट ही लगे लेकिन जब वो रॉकेट से बाहर आता है तो पाता है कि उसकी यात्रा के दौरान उसका भाई बूढ़ा हो गया है. दरअसल, प्रकाश की गति से यात्रा करने की वजह से पहले भाई के लिए समय धीमी गति से बीता. उसे इस सफ़र में चंद मिनट लगे लेकिन पृथ्वी पर इस दौरान कई साल बीत गए क्योंकि वहां समय अपनी गति से ही चल रहा था. अलग-अलग व्यक्ति का समय अलग होने का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले इस 'ट्विन पैराडॉक्स' या समय का गति पर निर्भर होने की अवधारणा का अक़्स एक लोकप्रिय शेर के जरिए भी कुछ यूं बयां किया जा सकता है...
यहां शायर का ये सोचना है कि ज़िंदगी तेज़ चले तो सदियों का सफ़र चंद लम्हों में तय हो सकता है. वहीं किसी की ज़िंदगी सामान्य गति से चले तो उसे इस सफ़र में सदियों का वक़्त लगेगा यानी शायर और आम आदमी के लिए एक जैसे सफ़र के लिए बिताया गया वक़्त अलग-अलग है. रिलेटिविटी के सिद्धांत में भी तेज़ चलने वाले के लिए वक़्त चंद लम्हों का हो सकता है और धीमे चलने वाले के लिए लंबे वक़्त वाला. समय की गति इस पर निर्भर करती है कि समय को मापने वाले की खुद की स्थिति क्या है.
अब मान लीजिए कि समय को मापने वाला प्रकाश की गति से उड़ रहा हो. ब्रह्मांड में प्रकाश की गति से तेज़ कुछ भी नहीं, हर किसी के लिए प्रकाश 1,86,282 मील प्रति सेकंड की गति से बढ़ता है. अब सोचिए कि समय को मापने वाला खुद प्रकाश की गति से कुछ ही कम गति से उड़ रहा हो तो क्या होगा? सापेक्षिता का सिद्धांत कहता है कि समय उसके लिए ठहरने लगेगा. प्रकाश की गति पर समय जहां का तहां रुक जाता है. हालांकि ये अवधारणा ही है, फिलहाल हमारे पास मौजूद सबसे तेज़ राकेट भी लगभग आठ मील प्रति सेकंड से ज़्यादा की गति से नहीं उड़ते.
टाइम-ट्रैवेल: न भूतो, न भविष्यति, न वर्तमान
अब फ़र्ज कीजिए कि आप किसी तेज़ रफ़्तार रॉकेट से प्रकाश की किरणों का पीछा कर रहे हों तो भी प्रकाश की किरण आपसे एक सेकंड में एक लाख, छियासी हज़ार, दो सौ अस्सी मील की रफ़्तार से दूर होती जाएगी. आप अपनी रफ़्तार प्रति सेकंड एक लाख, छियासी हजार मील कर लें तो भी किरण इसी रफ़्तार से आपसे दूर होती जाएगी. अब सोचिए कि इस रेस को पृथ्वी पर खड़ा कोई व्यक्ति देख रहा हो और आप उससे पूछें कि उसने क्या देखा तब वो बताएगा कि वो आप और प्रकाश के बीच की दूरी बढ़ते हुए नहीं बल्कि घटते हुए देख रहा था.
दरअसल, आमफ़हम सोच में टाइम को हम एक गतिमान चीज मान लेते हैं जिसका एक अतीत है, एक वर्तमान है और आने वाले वक़्त में एक भविष्य भी होगा. रिलेटिविटी के सिद्धांत के हिसाब से इस ब्रह्मांड में अतीत, वर्तमान या भविष्य जैसा कुछ नहीं है. सबकुछ एक साथ घट रहा है. हम अपनी स्थिति के हिसाब से वही हिस्सा देख और महसूस कर पाते हैं जिसमें हम हैं.
इसे ऐसे समझें कि आप किसी सीडी-प्लेयर पर कोई फ़िल्म देख रहे हैं. आपके हाथ में रिमोट है जिसका बटन दबा कर आप जब चाहें सीडी को रिवाइंड या फ़ॉरवर्ड कर मनचाहा सीन देख सकते हैं. रिवाइंड यानी भूतकाल और फॉरवर्ड यानी भविष्य, सबकुछ सीडी पर पहले से ही दर्ज़ है बस आपको कोई भी हिस्सा देखने के लिए उस जगह या फ़्रेम में जाना पड़ता है. आइंस्टीन के मुताबिक टाइम भी ऐसा ही फ़्रेम है जो अपने आप में स्वतंत्र नहीं है बल्कि स्पेस के साथ मिल कर फ़्रेम्स की रचना करता है.
अब सवाल ये उठता है कि क्या कोई ऐसी तरकीब, कोई ऐसी मशीन बनाना संभव है कि हम रिवाइंड या फॉरवर्ड कर अपने मनचाहे फ़्रेम पर जा सकें और अतीत या भविष्य की यात्रा कर सकें, अपने पुरखों या आने वाली पीढ़ी के सदस्यों के साथ वक़्त बिता सकें? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें स्पेस-टाइम की अवधारणा को समझना होगा.
टाइम ट्रैवेल: स्पेस-टाइम का अटूट बंधन
सरल गणित में हम स्पेस के तीन आयामों को पढ़ते हैं, x, y और z लेकिन रिलेटिविटी का गणित अलग है. रिलेटिविटी के गणित में x, y और z के साथ टाइम के रूप में एक चौथा आयाम भी मौजूद है. रिलेटिविटी में स्पेस और टाइम को अलग करके नहीं देखा जा सकता. ब्रह्मांड की हमारी मौजूदा समझ स्पेस-टाइम की इसी अवधारणा पर टिकी हुई है. टाइम-स्पेस को आप ट्रेन के दो डिब्बे मान सकते हैं जो अलग-अलग होते हुए भी एक साथ सफ़र करते हैं.
बड़ी बात यह है कि दोनों ऐसे युग्म हैं जिसमें जब समय खिंचता है तब उसकी भरपाई में स्पेस सिकुड़ जाता है. इस सिद्धांत को समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए. पृथ्वी से सूरज की दूरी चार करोड़ 30 लाख मील है. इस दूरी को अगर कोई व्यक्ति लगभग प्रकाश की गति से या प्रकाश की गति की 99.9% की रफ़्तार से तय करे तो उसका स्पेस सिकुड़ कर 40 लाख मील ही रह जाएगा. ऐसा बहुत तेज़ गति की वजह से स्पेस में होने वाली भरपाई से होगा, तब ऐसे यात्री को सूरज तक पहुंचने में सिर्फ 22 सेकेंड लगेंगे. हालांकि इस सफ़र को अगर पृथ्वी से कोई दर्शक देख रहा हो तो उसके लिए सूरज तक का स्पेस वही चार करोड़ 30 लाख मील ही होगा और वह यात्रा को लगभग आठ मिनट में ही पूरा होता हुआ देखेगा.
टाइम ट्रैवेल: वाया वॉर्म होल
सरल गणित में स्पेस, एक चादर की तरह फ़ैला विस्तार है लेकिन आइंस्टीन की 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' में स्पेस-टाइम फ़ैला हुआ विस्तार न हो कर मुड़ा हुआ या 'कर्व्ड' है. इसे ऐसे समझिए कि चादर अगर टिन जैसी किसी धातु की हो तो उसे चिमटे की तरह मोड़ा जा सकता है जिसमें चिमटे की दोनों बांह एक दूसरे से पैरलल यानी सामानंतर सी प्रतीत हों. दरअसल, यह मुड़ा होना या वक्रता ही स्पेस-टाइम की ज्योमेट्री है. इस वक्रता को ही न्यूटन ने ग्रैविटी यानी गुरुत्वाकर्षण का नाम दिया है.
बहरहाल, आइंस्टीन के मुड़े हुए स्पेस-टाइम में दो पैरलल लाइन्स एक दूसरे के क़रीब आने लगती हैं. ऐसी स्थिति में स्पेस-टाइम के मुड़े हुए चिमटे के हाथों पर मौजूद दो बिंदुओं के बीच एक शॉर्टकट की रचना की जा सकती है यानी चिमटे की एक बांह पर एक बिंदु हो मान लीजिए ये बिंदु अतीत है. दूसरी बांह पर दूसरा बिंदु हो मान लीजिए कि ये बिंदु भविष्य है तो दोनों के बीच की खाली जगह में सुरंग जैसी एक रचना से शॉर्टकट रास्ता बन जाता है. इस सुरंग के जरिए चिमटे की दोनों बांह पर मौजूद बिंदुओं के बीच यात्रा करना संभव है.
सुरंग जैसी रचना को रिलेटिविटी में 'वॉर्म होल' का नाम दिया गया है, इसे आइंस्टीन-रोज़न ब्रिज भी कहा जाता है. 'वॉर्म होल' से अलग-अलग बांह पर मौजूद जिन दो बिंदुओं के बीच यात्रा संभव है इन्हें हम भविष्य या अतीत मान सकते हैं. जाहिर है 'वॉर्म होल' के जरिए टाइम ट्रैवेल मुमकिन है लेकिन यह सिर्फ़ एक सिद्धांत है जो भौतिक तौर पर आसान नहीं.
वॉर्म होल: वक़्त के गाल पर सुरंग
इस पूरी चर्चा से यह साफ़ है कि अगर कोई वैक्यूम या निर्वात में 1,86,282 मील प्रति सेकंड की गति से ज़्यादा तेज़ चले तो वो वक़्त से आगे जा सकता है यानी भविष्य का रास्ता पकड़ सकता है. हालांकि आइंस्टीन के समीकरण के मुताबिक प्रकाश की रफ़्तार से चलने वाली चीज का द्रव्यमान अनंत होगा लेकिन उसकी लंबाई शून्य होगी. भौतिक रूप से यह असंभव है लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने आइंस्टीन के समीकरण को विस्तार दिया है और कुछ हालात में इस संभावना के सच होने की परिकल्पना भी की है.
टाइम ट्रैवेल की दूसरी संभावना वार्म होल के जरिए है जैसा कि इस बारे में ऊपर चर्चा हुई. NASA के एक वक्तव्य के मुताबिक वॉर्म होल के जरिए स्पेस-टाइम के विस्तार में सफ़र करना मुमकिन है लेकिन यहां भी आइंस्टीन का समीकरण कहता है कि वॉर्म होल बहुत ही क्षणिक होगा. वह इतना सूक्ष्म होगा कि उससे बहुत सूक्ष्म कण ही यात्रा कर सकेंगे. यह भी गौर करने वाली बात है कि वैज्ञानिकों ने अभी तक वॉर्म होल को नहीं देखा है और आज तक ऐसी कोई तकनीक भी विकसित नहीं हो सकी है जिससे वॉर्म होल की रचना की जा सके.
डार्क एनर्जी: टाइम-मशीन बनाने का फार्मूला !
एक समस्या और है. वैज्ञानिकों का मानना है कि वॉर्म होल स्वंय ध्वस्त हो जाने वाला होगा, जिससे उसके भीतर मौजूद हर चीज पिस जाएगी. यानी अगर कोई कण वॉर्म होल के जरिए समय-यात्रा कर रहा हो और ठीक उसी वक्त वॉर्म होल ध्वस्त हो जाए तब उसके भीतर मौजूद कण भी उस ऊर्जा में पिस जाएगा. अगर भविष्य में बनने वाली कोई 'टाइम मशीन' वॉर्म होल के जरिए समय-यात्रा का प्रयास करती है तो इस मुश्किल का हल खोजना होगा. वैज्ञानिकों के मुताबिक रहस्यमयी 'डार्क एनर्जी' से इस समस्या का समाधान संभव है. 'डार्क एनर्जी' पर 1990 में ध्यान गया जब खगोलशास्त्रियों ने उम्मीद के विपरीत यह पाया कि ब्रह्मांड तेज़ गति से बढ़ रहा है.
वैज्ञानिकों ने तब महसूस किया कि ब्रह्मांड में एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति मौजूद है जिसकी वजह से चीजें एक दूसरे के पास आने के बजाए एक दूसरे से दूर जाती हैं. यह रहस्यमयी शक्ति गुरुत्वकर्षण बल के विपरीत असर पैदा करती है. माना जाता है कि ब्रह्मांड में यह सर्वव्यापी शक्ति ही 'डार्क एनर्जी' है. टाइम-मशीन की रचना के संदर्भ में वैज्ञानिकों का मानना है कि इस 'डार्क एनर्जी' का इस्तेमाल किया जा सकता है. इसकी मदद से वॉर्म होल के मुंह को ज्यादा देर तक खोला जा सकता है जिससे कि उसके भीतर से गुजर कर कोई समय-यात्रा संभव हो सके. यह करने के लिए 'निगेटिव एनर्जी' की आवश्यकता होगी जिसे पाना आसान नहीं. अब यह 'निगेटिव एनर्जी' भी एक रहस्यमयी अवधारणा ही है जिसे सिर्फ़ गणितीय मॉडल से ही साबित किया गया है, यह एक सिद्धांत है जिसका वजूद तय नहीं है.
...और अंत में: 'ग्रैंडफादर पैराडॉक्स'
अंतत: इस सारी चर्चा का निष्कर्ष यही है कि सिद्धांत तौर पर समय-यात्रा संभव है लेकिन व्यावहारिक रूप से टाइम-मशीन का निर्माण एक परिकल्पना ही है जिसे भविष्य पर छोड़ देना चाहिए. हालांकि सवाल ये भी है कि अगर भविष्य में कभी टाइम-मशीन बना ली गई, तब क्या यह संभव होगा कि अतीत में जा कर मौजूदा वक्त की किसी होनी को रोका जाना मुमकिन है? वैज्ञानिक इसे समझने के लिए बहुत ही मशहूर 'ग्रैंडफादर पैराडॉक्स' का इस्तेमाल करते हैं.
मान लीजिए कि टाइम-मशीन का कोई समय-यात्री भूतकाल में जा कर अपने दादा जी को उनके विवाह होने से पहले ही मार दे तो खुद उसके अस्तित्व का क्या होगा? मतलब, जब किसी ने अपने दादा जी को ही मार दिया और उसके बेटे का जन्म नहीं हुआ तो पोते का जन्म कैसे होगा? यह बहुत ही नॉनसेंस टाइप की बात है लेकिन जब कभी भी इसका उत्तर मिल गया तो यह भी पता चल जाएगा कि टाइम-मशीन से भूतकाल में जा कर वर्तमान की किसी होनी को रोका जाना या बदलाव करना संभव है या नहीं? जब तक इसका उत्तर नहीं मिलता तब तक आप हॉलीवुड की 'टर्मिनेटर सीरीज' जैसी लोकप्रिय फ़िल्मों का आनंद लेते रहिए.
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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Time Machine: क्या टाइम ट्रैवल की थ्योरी से भविष्य की सैर संभव है?