डीएनए हिंदी: मराठा मानुष, क्षेत्रीय अस्मिता और उग्र हिंदुत्व के मुद्दे पर बनी शिवसेना आज दो धड़ों में बंट चुकी है. 19 जून 1966 को जब कार्टूनिस्ट बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना की नींव रखी थी, तब एक वक्त को ऐसा लगा था कि इस पार्टी का हर कार्यकर्ता, बाला साहेब ठाकरे है. सबके तेवर उन्हीं की तरह. सबके अंदाज उन्हीं जैसे. मतलब अपने काम को अंजाम देने के लिए हिंसक होना हो तो उसे भी संविधान सम्मत ठहराया जाए. आज की शिवसेना, इस सिद्धांत और इस व्यवहार से कोसों दूर है.
मार्मिक नाम की सप्ताहिक पत्रिका निकालने वाले ठाकरे का असली नाम बाल केशव ठाकरे था. वह महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों की आवाज उठाकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. देखते-देखते यह हिंदूवादी संगठन बना और बाला साहेब ठाकरे को लोग हिंदू हृदय सम्राट कहने लगे. बाला साहेब ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना का विस्तार हुआ. वह स्वयं किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं रहे लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता एक समय तक वही चलाते थे. धनुष बाण की निशानों वाली यह पार्टी, देखते-देखते महाराष्ट्र के आसपास के राज्यों में भी लोकप्रिय हो गई.
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कैसे हुई शिवसेना के सियासी सफर की शुरुआत?
बाल ठाकरे मराठी अस्मिता को लेकर बेहद कट्टर थे. वह देवी भक्त थे और उनकी सवारी शेर को अपनी पार्टी का चिन्ह बना लिया. जब 30 अक्टूबर 1966 को विजयशमी के दिन उन्होंने शिवाजी पार्क में रैली आयोजित की तो पहली बार लगा कि सूबे में उनकी तूती बोल सकती है. साल 1971 में शिवसेना ने पहली बार चुनाव लड़ा, पार्टी खाता नहीं खोल सकी. 1973 में शिवसेना के टिकट पर 30 से ज्यादा पार्षद जीत गए. 1989 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना को जीत हासिल हुई. 1990 के चुनाव में शिवसेना का कद और बढ़ गया. 52 सीटें जीतकर शिवसेना महाराष्ट्र की प्रमुख विपक्षी दल बन गई.
बीजेपी के साथ दोस्ती ने दी अलग पहचान
दरअसल साल 1989 में शिवसेना ने बीजेपी के साथ करार कर लिया था. यहां शिवसेना बड़ी भाई की भूमिका में रहती थी. 1995 में दोनों ने मिलकर सरकार बनाई लेकिन साल 1999 के बाद यह बीजेपी के साथ विपक्ष में बैठती थी. शिवसैनिकों ने विपक्ष में रहने के दौरान ज्यादा हंगामा किया है.
कैसे उद्धव ठाकरे को मिली पार्टी की कमान?
जब तक बाला साहेब ठाकरे रहे, शिवसेना महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा प्रभावी पार्टियों में शुमार रही. 2002 के बीएमसी चुनाव में उद्धव ठाकरे पार्टी के कैंपेन इंचार्ज बन गए. इन चुनावों में शिवसेना का प्रदर्शन शानदार रहा. मेहनत राज ठाकरे ने की थी लेकिन जीत का सेहरा उद्धव ठाकरे के सिर बंधा. 2003 में ही वह शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष बने, जिसका प्रस्ताव उनके चचेरे भाई, राज ठाकरे ने दिया था.
धीरे-धीरे शिवसेना में राज ठाकरे हाशिए पर चले गए. 2006 में राज ठाकरे ने अपनी अलग पार्टी बना ली. उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली. 2012 में जब बाल ठाकरे का निधन हुआ तो 2013 में वह सर्वसम्मति से पार्टी के अध्यक्ष चुन लिए गए. 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन का अहम हिस्सा रही शिवसेना केंद्र पहुंची.
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बीजेपी के साथ बनते-बिगड़ते रहे रिश्ते
शिवसेना और बीजेपी के बीच हेट-लव वाला रिलेशन भी रहा. साल 2014 के विधानसभा चुनाव से पहले सींट बंटवारे पर पेच फंसा तो गठबंधन टूट गया. अलग-अलग चुनाव लड़े. शिवसेना ने तय किया कि विपक्ष में बैठेगी लेकिन बीजेपी ने ऐसा दांव चला कि सत्ता में नंबर 2 की स्थिति में शिवसेना आ गई. अब आधिकारिक तौर पर शिवसेना दूसरे नंबर की पार्टी बन गई थी. मतलब छोटा भाई. देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में यह सरकार चली.
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान कई बार ऐसा लगा कि यह गठबंधन फिर टूटेगा. अमित शाह ने कमान संभाली. बीजेपी शिवसेना को 23 सीटें देने पर राजी हो गई. नतीजा अच्छा रहा और 18 सीटों पर जीत मिल गई. महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में जीत बीजेपी शिवसेना गठबंधन की हुई थी. शिवसेना मुख्यमंत्री पद को लेकर अड़ गई थी. शिवसेना की मांग थी कि मुख्यमंत्री कोई शिवसैनिक ही हो. बीजेपी इसके लिए नहीं तैयार थी. कई बार-बातचीत चली. नाटकीय तरीके से एनसीपी के नेता अजीत पवार और देवेंद्र फडणवीस ने शपथ भी ले ली. शपथ काम नहीं आया क्योंकि एनसीपी के विधायकों पर नियंत्रण केवल शरद पवार का था.
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पार्टी की मूल विचारधारा से ही कट गए थे उद्धव ठाकरे
दरअसल चुनाव के नतीजों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. बीजेपी-शिवसेना गठजोड़ के पास बहुमत था लेकिन गठबंधन टूट गया था. बीजेपी के पास 105 सीट, शिवसेना के पास 56, एनसीपी के पास 54, कांग्रेस के पास 44, निर्दलीय उम्मीदवार 13 और अन्य 16 थे. शिवसेना ने अपनी विचारधारा से अलग जाकर कांग्रेस-एनसीपी के सहयोग से सत्ता में आ गई. यहीं से शिवसेना के टूटने की कहानी शुरू हुई.
शिंदे को नहीं रास आया उद्धव का सेक्युलर प्रेम!
शिवसैनिक इस बात से नाराज हो गए कि पार्टी कांग्रेस-एनसीपी जैसे सेक्युलर दल से जा मिली है. जिस विचारधारा के साथ लड़ाई थी, उसी की गोद में उद्धव ठाकरे बैठ गए. उद्धव ठाकरे, खुद शिवसेना की विचारधारा से दूर होते गए. जून 2022 में एकनाथ शिंदे इसी अंसतोष को भुनाने में कामयाब हो गए. उद्धव ठाकरे बीमार पड़े और पूरी की पूरी पार्टी पर एक के बाद करके एकनाथ शिंदे ने कब्जा जमा लिया.
...और ऐसे चला गया पार्टी का चुनाव चिह्न
एकनाथ शिंदे, कभी उद्धव ठाकरे के दाहिने हाथ लेकिन उन्होंने उनसे पूरी पार्टी ही छीन ली. एकनाथ शिंदे के पास शिवसेना के 40 से ज्यादा विधायक, 10 से ज्यादा सांसद हैं. वह भी अपने आप को असली शिवसेना अध्यक्ष बता रहे हैं. वह भी मांग कर रहे थे कि उन्हें शिवसेना का चिह्न धनुष बाण ही मिले. उद्धव गुट भी यही चाह रहा था. दोनों की मांगों को खारिज करते हुए चुनाव आयोग ने इस चुनाव चिह्न को ही फ्रीज कर दिया है. अब शिवसेना का पुराना चुनाव चिह्न किसी भी गुट का नहीं है.
क्या दोबारा पार्टी को खड़ा कर सकेंगे उद्धव ठाकरे?
उद्धव ठाकरे के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को दोबारा खड़ा करने की है. उनके पास न पर्याप्त सांसद हैं न विधायक. सत्ता वह जून में ही गंवा चुके हैं. एकनाथ शिंदे पार्टी के बड़े जनाधार वाले नेताओं को अपने खेमे में शामिल करा रहे हैं. उनके खास दाहिने हाथ संजय राउत भी जांच एजेंसियों के घेरे में हैं. शिंदे गुट के समर्थन में शिवसैनिकों का हुजूम है तो उद्धव ठाकरे अकेले पड़ रहे हैं.
उद्धव से ज्यादा एकनाथ शिंदे की रैली में उमड़ी शिवसैनिकों की भीड़, क्या खत्म हो रहा है ठाकरे का वर्चस्व?
दशहरा रैली में भी यह साबित हो गया है कि उद्धव ठाकरे का जनाधार घट चुका है. उद्धव ठाकरे को पूरी पार्टी में संगठनात्मक बदलाव करना होगा. नया चुनाव चिह्न उन्हें ढूंढना होगा. हो सकता है कि पार्टी का नाम भी चला जाए. ऐसे में उद्धव ठाकरे को एक सिरे से सबकुछ नया करना होगा. फिलहाल उद्धव ठाकरे के सितारे गर्दिश में हैं, जो आसानी से संभलते नजर नहीं आ रहे हैं.
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