डीएनए हिंदी: ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) में राजस्थान कांग्रेस कभी इतनी चर्चा में नहीं रही जितनी कि पिछले ३ साल से है. सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी, और राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी, इस मुद्दे को सुलझाने में लगे हुए हैं लेकिन यह मुद्दा है कि उलझता ही जा रहा है. आइए जानते हैं कि द्वंद्व में किसका पलड़ा कितना भारी है. अशोक गहलोत उम्रदराज हैं लेकिन उन्होने अपने इस पहलू को बहुत ही खूबसूरती से यह कहकर न्यूट्रिलाइज कर दिया है कि राजनीति में सही ढंग से घिसाई ना हो तो अच्छा राजनेता बनना मुश्किल हैं. सचिन पायलट युवा और लोकप्रिय तो हैं लेकिन गहलोत की अति सक्रियता उन्हे इस बात का फायदा नहीं उठाने दे रही है.

अशोक गहलोत का दावा है कि एनएसयूआई से अपना राजनीतिक सफर शुरू करने वाले गहलोत को जितना समय राजनीति करते हुए हुआ है, उतनी उम्र भी नहीं है पायलट की. सासंद और विधायक के तौर पर 40 साल से ज्यादा जनता के बीच रहने वाले गहलोत इंदिरा गांधी के समय से गांधी परिवार से जुड़े है. यही बात उनकी पार्टी और सरकार को ढंग से समझने के दावे का समर्थन करती है. सचिन पायलट भी विधायक और सांसद रहते हुए केंद्र में मंत्री और राज्य में डिप्टी सीएम रहे हैं और वे प्रदेश में खासे लोकप्रिय भी है. यही कारण है कि वह गहलोत के एकछत्र राज को सबसे लंबे समय तक टक्कर देने वाले कांग्रेसी के रूप में जाने जाते हैं.

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समस्या राज्यों से लेकर दिल्ली आलाकमान तक

कांग्रेस को नजदीक से जानने वालों का कहना है कि पार्टी खुद भी फिलहाल दो विचार के बीच खड़ी दिखाई दे रही है. एक विचार हैं, जिसे “old school of thought” कहा जा सकता है और दूसरी तरफ हैं “new school of thought”. नेहरू, इंदिरा और राजीव तक चले विचार को पहली श्रेणी में रखें तो गहलोत वहां से ज्यादा प्रभावित दिखते हैं लेकिन दूसरे धड़े में राहुल और प्रियंका के साथ वो पीढ़ी खड़ी दिखती है जो पायलट की हमउम्र है, नए प्रयोग करना चाहती है और राजनीति करने की अपनी अलग ही विधा से आगे बढ़ रही है. हालांकि, इन दोनों के बीच जंक्शन पाइंट पर सोनिया गांधी एक मजबूत स्तंभ के रूप में शांत प्रशासक की भूमिका में है और उनसे गहलोत की नजदीकियां उन्हे अपर हैण्ड दे रही है.

एक बार तो माहौल यह बन गया था कि गहलोत ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हाने वाले हैं. गहलोत की पार्टी में छवि साफ सुथरी राजनीति करने वाली है. उनका गंभीर व्यक्तित्व उनकी छवि को और ज्यादा प्रभावी बनाता है. राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे वैक्यूम को भरने के लिए गहलोत को दिल्ली का न्यौता ही उनकी पकड़ को दर्शाता है लेकिन गहलोत ने राज्य में मुख्यमंत्री बने रहते हुए न्यू स्कूल ऑफ थॉट को नाराज कर दिया था. हिमाचल और कर्नाटक से पहले सिर्फ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार थी, जिसको खोने का रिस्क पार्टी नहीं लेना चाहती थी. यही कारण है कि लाख चाहते हुए भी आलाकमान सख्त रवैया नहीं अपना पाया था.

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पार्टी का भविष्य- पायलट जैसे युवाओं की जरूरत

कांग्रेस पार्टी का भविष्य युवाओं के साथ है. ऐसे समय में जब कमान राहुल गांधी को सौपने की तैयारियां चल रही हैं तो आलाकमान के रणनीतिकार नहीं चाहते कि राहुल को राज्यों से समर्थन देने वाले इतने मजबूत और पुराने हों कि वे आलाकमान को चुनौती देने की भी सोच सकें. इन रणनीतिकारों का सोचना है कि एक मजबूत पार्टी के लिए केन्दीय नेतृत्व की राज्यों पर डिपेंडेंसी जितनी कम हो उतनी ठीक रहेंगी.

पार्टी की यूथ ब्रिगेड कुछ हद तक संतुष्ट नहीं दिखती है. हर किसी के मन में यही विचार है कि अगर पहले वाले जगह नहीं छोड़ेंगे तो नई पीढ़ी को मौका कैसे मिलेगा. 2018 में राजस्थान और मध्यप्रदेश में किए गए प्रयोग इसिलिए एक मायने में असफल रहे. राहुल गांधी की कोर टीम के नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ने की घटना ने आलाकमान को हिला कर रख दिया था. यही कारण हैं कि पार्टी आलाकमान सचिन पायलट पर कोई कठोरता नहीं बरतना चाहता है. पायलट की लोकप्रियता राज्य के बाहर भी हैं और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में उनकी उपस्थिति पार्टी को फायदा पहुंचा सकती है.

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जातिगत समीकरण
अशोक गहलोत अपने भाषणों में कहते रहे हैं कि उनकी जाति का प्रदेश की राजनीति में कोई खास संख्याबल नहीं है. वे खुद अपनी पार्टी से माली जाती के इकलौते विधायक हैं लेकिन यह उनकी राजनीतिक कुशलता ही है कि उन्होने अपनी इस कमी को भी पार्टी की लोकतांत्रिक व्यवस्था से जोड़कर अपनी ताकत में बदल लिया हैं. जहां तक पायलट का सवाल है, ना सिर्फ उनकी गुर्जर जाति का संख्या बल भी है और वे खुद भी हर जाति के युवाओं में खासे लोकप्रिय भी हैं. आज प्रदेश के टॉप 5 लीडर में उनकी गिनती होती है तो पार्टी विचार के साथ-साथ भीड़तंत्र की राजनीति भी कर सकते हैं.

विधायकों पर पकड़, गहलोत जोड़तोड़ में माहिर
यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सबसे ज्यादा परिवर्तन हुए हैं. 2018 के विधानसभा चुनावों में प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उम्मीदवारों को काग्रेस का टिकट सचिव पायलट ने दिया था. अधिकांश उनके ही समर्थक माने जाते थे और फिर जब मुख्यमंत्री के खिलाफ तथाकथित बगावत हुई तो पायलट पर विधायकों को मानेसर ले जाने के आरोप भी लगे लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में गहलोत का राजनीतिक कौशल या यूं कहें कि राजनीतिक चातुर्य देखने को मिला. पहले से ही बसपा के विधायकों को अपने साथ मिला चुके गहलोत ने ना सिर्फ अपनी सरकार बचाई, बल्कि पायलट कैम्प के विधायकों को भी तोड़कर होटल में बाड़ाबंदी करके आलाकमान के सामने पायलट को बेनकाब कर दिया.

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सचिन पायलट और अशोक गहलोत की लड़ाई में कौन कितना भारी? कांग्रेस का आलाकमान क्यों
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सचिन पायलट और अशोक गहलोत की लड़ाई में कौन भारी? कांग्रेस का आलाकमान क्यों नहीं ले पा रहा फैसला