डीएनए हिंदी: जातिगत जनगणना पर एक बार फिर से पूरे देश में चर्चाएं शुरू हो गई हैं. हाल ही में बिहार की महागठबंधन सरकार ने जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी किए हैं. अब इसको लेकर सत्ताधारी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) आक्रामक मोड में हैं और पूरे देश में जातिगत जनगणना की मांग कर रही हैं. इस बारे में आरजेडी के प्रवक्ता शक्ति यादव लिखते हैं कि जाति की गणना महज एक आंकड़ा नहीं है, जिससे यह पता किया जाए कि किन-किन जातियों की संख्या क्या है? उनके मुताबिक, यह शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को विशेष अवसर देने में एक मील का पत्थर साबित होगी. यह बात बिल्कुल सत्य है कि गैर-बराबरी और असमानता समाज में एक बड़ी खाई है, जिसे पाटने की आवश्यकता है. इस देश की 40% संपत्ति अगर एक प्रतिशत लोगों के पास होगी तो असमानता की बात स्वाभाविक तौर पर उठेगी.
देश के बजट के हिस्से को पिछड़ेपन के शिकार लोगों को सशक्त करने में लगाया जाएगा तो असमानता की खाई छोटी होती जाएगी. जाति जनगणना की मांग कई दशक पहले से उठती आ रही है. इस मांग को मुखरता प्रदान करने में लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव जैसे कई नेताओं ने अहम भूमिका अदा की. संघर्ष के बाद 2011 में जाति जनगणना कराने का निर्णय यूपीए सरकार ने लिया.
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'मोदी सरकार ने छिपा लिए जाति के आंकड़े'
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार ने सामाजिक आर्थिक गणना के सिर्फ चुनिंदा आंकड़े प्रकाशित किए लेकिन जाति को छुपा लिया गया. आर्थिक और शैक्षणिक रिपोर्ट से एक बड़ा सवाल पैदा हुआ कि 51% दिहाड़ी मजदूर, 13% एक कमरे में रहने वाले, 22% से अधिक युवा और युवती उच्च शिक्षा ग्रहण नहीं करने वाले, कृषि पर आधारित और भीख मांग कर खाने वाले लोग किस जाति के हैं? यह पहलू अनछुआ रह गया. इससे एक व्यापक समाज में निराशा की भावना उत्पन्न हुई. हाशिये के समूहों को यह अहसास हुआ कि आज भी मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोग वंचित समाज को अँधेरे में रखने में कामयाब हो रहे हैं.
इन्हीं विमर्शों के बीच बिहार की सरकार ने जाति आधारित गणना का प्रकाशन किया, जिसमें 63% पिछड़ा और अति-पिछड़ा वर्ग की आबादी है. अनारक्षित वर्गों की आबादी मात्र 15% होने बावजूद भी सत्ता और संसाधनों पर उनका एकाधिकार कायम है. अब वक्त आ गया है कि रिपोर्ट सार्वजनिक हुई है तो इस आधार पर शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन कर जो पिछड़ेपन के शिकार हैं, उनके लिए अलग से बजट का प्रबंध किया जाना चाहिए ताकि वे मुख्यधारा में जुड़ सकें.
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क्या दिखाती है रिपोर्ट?
जाति आधारित गणना का विरोध वही लोग कर रहे हैं जो नहीं चाहते कि हाशिये पर रहने वाले लोग मुख्यधारा से जुड़ें. रिपोर्ट से विडंबना साफ दिखती है कि प्रभुत्व वाले लोग, जिनकी संख्या कम है, समाज को विखंडित कर अपना एकाधिकार चलाना चाहते हैं. जिस दिन बहुसंख्यक जमात, जो हाशिये पर हैं, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक जागरूकता पनप जाएगी, तो धार्मिक उन्माद, नफरत और कट्टरपंथी राजनीति समाप्त होगी.
इस देश में एक बार जातीय, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का एक्स-रे हो जाना चाहिए और वह एक्स-रे जातिगत जनगणना ही हो सकती है. इस सत्य को हर किसी को स्वीकार करना लेना चाहिए. पूंजीवादी और कट्टरपंथी नीतियों ने देश को कमजोर किया है. शैक्षणिक चेतना नहीं होने के कारण आज देश धर्म के नाम पर आबंडर के शिकंजे में आ जाता है, जिससे गरीबों का आर्थिक और मानसिक शोषण भी होता है. समाज की इस गैर बराबरी को बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने समय रहते समझा और सरकार में शामिल होते ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मिलकर जाति आधारित गणना को मूर्त्त रूप दिया.
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जातीय जनगणना पर अपनी संवेदनशीलता प्रकट करना चाहिए. हठधर्मिता को छोड़ जाति जनगणना कराने का निर्णय लें ताकि ताकि देश की वास्तविक हालात से रूबरू भी हो सके. अडानी देश नहीं है, देश की आत्मा गांव में बसती है. जब तक गांव श्रेष्ठ नहीं होगा, तब तक देश श्रेष्ठ नहीं हो सकता. क्या प्रधानमंत्री जी और उनकी पार्टी को एक संवेदनशील समतामूलक समाज नहीं चाहिए? अगर नहीं तो हमें कुछ नहीं कहना है. अगर हां तो आइये इन आंकड़ों का स्वागत करते हुए अपनी नीतियाँ और नीयत बदल डालिए.
Note: लेखक शक्ति यादव राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके हैं.
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OPINION: जातिगत जनगणना सिर्फ आंकड़ा नहीं, असमानता खत्म करने का तरीका है