डीएनए हिंदी: यूपी के कानपुर में चिकित्सकीय लापरवाही ने 14 बच्चों की जिंदगी दांव पर लगा दी है. इन बच्चों का खून बदलने के बाद लाला लाजपत राय (LLR) अस्पताल में टेस्ट हुआ था. टेस्ट में ये बच्चे हेपेटाइटिस-बी , हेपेटाइटिस-सी और एचआईवी यानी एड्स संक्रमित मिले हैं. पीड़ित बच्चे नाबालिग हैं. अस्पताल में सोमवार को उनके संक्रमित होने की जानकारी मिली है. 
अस्पताल प्रबंधन के मुताबिक, ये बच्चै थैलेसेमिया के मरीज हैं. इन 14 बच्चों ने अर्जेंट जरूरत पड़ने पर निजी और जिला अस्पतालों में भी ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराया है. ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि उन्हें ये बीमारी LLR में इलाज के दौरान मिली या बाहर किसी अस्पताल की लापरवाही.

चार धाराओं के तहत हो दर्ज हो सकता है केस
पंकज त्यागी अब पेशे से वकील हैं. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सिविल और क्राइम दोनों केस देखते हैं. इससे पहले लंबे समय तक उन्होंने एक नैशनल दैनिक अखबार के लिए क्राइम रिपोर्टिंग भी की है. उन्होंने यूपी के इस ताजा मामले को देखते हुए बताया कि ऐसे मामलों में आईपीसी यानी इंडियन पिनल कोड की 4 धाराओं के तहत मामला दर्ज किया जा सकता है. 

304 ए के तहत
पहला है 304 ए. इसके तहत तब ही केस दर्ज किया जाता है जब पीड़ित की मौत हो जाए. क्योंकि इस स्थिति में 'लापरवाही से मौत' का केस बनता है. लेकिन इस तरह के एक लैंडमार्क जजमेंट आया था, वह केस था जैकब मैथ्यू (डॉक्टर बनाम पंजाब राज्य). इस मामले में 2005 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था. इस फैसले के पैराग्राफ नंबर 51, 52 और 53 में सुप्रीम कोर्ट ने लिखा था कि किसी भी डॉक्टर के खिलाफ 304 ए का केस तब तक दर्ज नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि मेडिकल एक्सपर्ट्स का कोई मेडिकल बोर्ड अपना ओपिनियन उनके खिलाफ न दे.

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आईपीसी की ये 3 धाराएं अहम
इसके अलावा जो आईपीसी के 3 सेक्शन हैं, वे हैं - 336, 337 और 338. ये तीनों धाराएं नेगलिजेंस से जुड़ी हैं. ऐसे केस में पीड़ित की मौत नहीं होती, लेकिन जान को खतरा हो जाता है. जैसा कि यूपी के इन 14 बच्चों के मामले में हुआ है. अगर इस मामले में कोई आरोपी धारा 336 के तहत दोषी साबित होता है तो उसे 3 महीने की सजा हो सकती है. लेकिन वह 337 के तहत दोषी साबित हुआ तो 6 महीने की और अगर 338 के तहत अपराधी साबित होता है तो उसे 2 साल तक की सजा हो सकती है. 

दोषसिद्धि का जिम्मा पीड़ित का
इन तीनों धाराओं के तहत दर्ज केस में डॉक्टर की मंशा कि वह ऐसा चाहता था - साबित करने की जिम्मेवारी विक्टिम यानी पीड़ित की ही होती है. डॉक्टर के खिलाफ ऐसा साबित कर पाना पीड़ित के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है. अमूमन इस तरह के केस दर्ज ही नहीं हो पाते और अगर दर्ज हो भी गए तो इसकी प्रोसिडिंग बहुत टफ हो जाती है.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला
इसी तरह का एक और केस था डॉक्टर सुरेश गुप्ता बनाम दिल्ली सरकार. 2004 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के खंडपीठ ने इस केस में फैसला सुनाया था. इसमें चीफ जस्टिस आरसी लाहोटी भी थे. उन्होंने फैसले में लिखा था कि किसी भी डॉक्टर के खिलाफ, किसी भी मेडिकल प्रैक्टिसनर के खिलाफ मेडिकल नेगलिजेंस का केस बहुत ध्यान देने और सावधानी बरतने (एक्स्ट्रीम केयर और कौशन) के बाद ही किया जाना चाहिए अन्यथा नहीं किया जाना चाहिए. अगर इस बात का ख्याल नहीं रखा गया तो मरीजों की जान बचाने की कोशिश में लगे डॉक्टर किसी का इलाज करने में भी डरेंगे. उन्हें डर होगा कि किसी मरीज की मौत इलाज के दौरान हो गई तो बेवजह उन्हें क्रिमिनल प्रोसिक्यूशन का हैरसमेंट (उत्पीड़न) और इंबैरेसमेंट (बेइज्जती) झेलनी होगी.

पंकज त्यागी पेशे से वकील हैं.

सिविल कोर्ट में केस
बात अगर सिविल की करें तो इसमें दो तरीके हैं. एक तो यह है कि कोई भी व्यक्ति सिविल कोर्ट में उस डॉक्टर के खिलाफ मुआवजा का केस कर सकता है. यहां दर्ज केस में डॉक्टर को सजा नहीं होती. लेकिन अगर पीड़ित यह साबित कर दे कि उसका नुकसान डॉक्टर की लापरवाही के कारण हुआ है तो उसे डॉक्टर की ओर से मुआवजा राशि दिलवाई जाती है.

कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट 1986
कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट 1986 की धारा 2 (1)(O) सर्विसेज यानी सेवा को परिभाषित करती है. यह एक्ट तभी लागू होता है जब सेवा में कोताही बरती गई हो. इस धारा में सेवा को परिभाषित किया गया है. एक केस था आइएमए बनाम बीपी शांथा एंड अदर्स. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि मेडिकल प्रैक्टिसनर जो सर्विस देते हैं अपने मरीज को, वे सर्विसेज इसी धारा के तहत आती हैं. इसलिए इस धारा के तहत मरीज को अधिकार है कि उस डॉक्टर के खिलाफ मामला दर्ज करा सकता है जिसके कारण उसे इंजरी हुई हो.

किन स्थितियों में दर्ज हो एफआईआर
ललिता बनाम यूपी राज्य के केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला 2013 में सामने आया था. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बताया था कि किन परिस्थितियों में मेडिकल प्रैक्टिसनर के खिलाफ केस दर्ज होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, प्रारंभिक जांच से पहले मेडिकल नेगलिजेंस का केस दर्ज नहीं किया जाना चाहिए. यानी शिकायत मिलते ही मेडिकल प्रैक्टिसनर के खिलाफ केस दर्ज नहीं किया जाना चाहिए, पहले शुरुआती जांच की जाए. इस जांच में अगर रिपोर्ट मेडिकल प्रैक्टिसनर के खिलाफ आती है तो फिर एफआईआर दर्ज की जाए.

चिकित्सकीय लापरवाही में वृद्धि
दिल्ली मेडिकल काउंसिल (डीएमसी) के सदस्य डॉ गिरीश त्यागी ने मीडिया को बताया था कि पिछले 5 साल में चिकित्सकीय लापरवाही की शिकायतों में 30%  से 40% की वृद्धि हुई है और हर मामले की जांच में कम से कम कुछ साल लगते हैं। हर महीने 20 से 25 शिकायतें आती हैं. इनमें से 5 या 6 को साक्ष्य के आधार पर समीक्षा के लिए स्वीकार किया जाता है.

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Medical Negligence 14 children infected with serious diseases in UP action can be taken against culprits like
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यूपी में हुए Medical Negligence मामले में दोषियों पर हो सकती है ऐसे कार्रवाई
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दोषियों पर किन धाराओं के तहत दर्ज किए जा सकते हैं केस और क्या हो सकती है सजा, पढ़ें.
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दोषियों पर किन धाराओं के तहत दर्ज किए जा सकते हैं केस और क्या हो सकती है सजा, पढ़ें.

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यूपी में हुए Medical Negligence मामले में दोषियों पर हो सकती है ऐसे कार्रवाई

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