दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों के लिए बुधवार को मतदान हो रहा है. सुबह 7 बजे से वोटिंग शुरू हुई और पहले चार घंटे के ट्रेंड्स बेहद चौंकाने वाले हैं. सुबह 11 बजे तक के आंकड़ों के अनुसार मुसलमानों की सबसे ज्यादा आबादी वाली तीन सीटों- बाबरपुर, मुस्तफाबाद और सीलमपुर में सबसे ज्यादा वोटिंग हुई है. जानकार इसे एंटी-बीजेपी वोटिंग के रूप में देख रहे हैं. यह काफी हद तक सही भी है क्योंकि मुसलमान आम तौर पर भाजपा के खिलाफ ही मतदान करते हैं. चुनाव के नतीजों पर इसके असर का विश्लेषण तो 8 फरवरी के बाद होगा, लेकिन सवाल ये है कि मुसलमान, भाजपा के खिलाफ क्यों हैं. हिंदुत्व के मुद्दे पर जोर देने के अलावा बीजेपी ने सत्ता में रहते हुए ऐसा कोई फैसला नहीं किया जिसे मुसलमानों के खिलाफ कहा जा सके. 

1980 में बनी भाजपा
1980 में स्थापना के बाद 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दो सीटें जीती थीं. यहीं से उसके उत्थान का समय शुरू हुआ. बोफोर्स घोटाले और राम जन्मभूमि आंदोलन की पृष्ठभूमि में 1989 के लोकसभा चुनाव हुए. इसके बाद राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी जिसे बीजेपी ने भी समर्थन दिया था. 1996 के चुनावों के बाद भाजपा लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. पहली बार केंद्र में भाजपा की अपनी सरकार बनी, लेकिन 13 दिन में ही गिर गई.  1998 में एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) का गठन हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी. एक साल बाद फिर से लोकसभा चुनाव हुए और एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला. वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री बने और पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. 2004 में अप्रत्याशित हार के बाद 2009 में भी भाजपा सत्ता तक नहीं पहुंच पाई. 2014 में नरेंद्र मोदी युग की शुरुआत के बाद से भाजपा लगातार केंद्र की सत्ता में बनी हुई है. लगातार तीन लोकसभा चुनावों में जीत हासिल कर वह विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है.केंद्र के अलावा करीब एक दर्जन राज्यों में भी भाजपा अपने दम पर सत्ता में है, लेकिन कोई ऐसा फैसला नहीं लिया जो केवल मुसलमानों के खिलाफ हो. इसके बावजूद सच्चाई यही है कि कभी बनियों और सवर्णों की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा को आज सभी सामाजिक समुदायों के वोट मिलते हैं, सिवाय मुसलमानों के. 

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कई फैसले मुसलमानों के हित में
हिुंदुत्व भाजपा के लिए बड़ा मुद्दा जरूर है, लेकिन इसका मतलब दूसरे धर्मों की खिलाफत नहीं है. किसी भी भाजपा सरकार ने धार्मिक आधार पर नीतिगत फैसले नहीं लिए. उल्टे कुछ ऐसे फैसले जरूर लिए जिसकी मांग मुसलमान भी कर रहे थे, जैसे तीन तलाक का अंत. भाजपा शासित कुछ राज्यों में यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) लागू हुआ है. यूसीसी को एंटी-मुस्लिम के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन सच्चाई इससे अलग है. यूसीसी के प्रावधान सभी धर्म के लोगों के लिए एक जैसे हैं. केंद्र सरकार की योजनाओं में भी मुसलमानों की बराबर हिस्सेदारी है. बराबरी का मतलब ये कि जिसे योजना का फायदा मिलना चाहिए, उसे मिल रहा है. भाजपा ने 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन का नेतृत्व किया था. इसका नतीजा अयोध्या में भव्य राम मंदिर के रूप में सामने आया, लेकिन यह फैसला ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर देश की सर्वोच्च अदालत ने लिया था. इसे धार्मिक नजरिये से देखना गलत होगा क्योंकि इस देश की अदालतें कई मंदिरों को तोड़ने के फैसले भी दे चुकी हैं.

मिजाज बदलने के संकेत
यह भी एक सच्चाई है कि भाजपा जहां लंबे समय से सत्ता में है, वहां के मुस्लिम वोटर्स का मिजाज अब बदलने लगा है. 2024 के लोकसभा चुनाव में गुजरात में भाजपा को 29 प्रतिशत मुसलमानों के वोट मिले. सीएसडीएस के मुताबिक राष्ट्रीय स्तर पर ये आंकड़ा 8 फीसदी रहा, लेकिन उत्तर प्रदेश में केवल 2 प्रतिशत मुसलमानों ने भाजपा को वोट दिया. उत्तर प्रदेश धार्मिक रूप से संवेदनशील राज्यों में शामिल है जहां चुनाव का फैसला धर्म और जाति के आधार पर होता है. यहां पर भाजपा के खिलाफ वोटिंग का स्पष्ट मतलब है कि मुसलमानों को धार्मिक आधार पर गोलबंद किया जाता है. स्वाभाविक रूप से ये वही करेगा, जिसे मुसलमानों के वोट मिलते हैं.

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कहीं डर तो नहीं है वजह
वोटिंग पैटर्न पर नजर डालें तो मुसलमान आम तौर पर किसी एक के पक्ष या विपक्ष में सामूहिक मतदान करते हैं. आजादी के बाद करीब 30 सालों तक मुस्लिम वोट बैंक पर कांग्रेस का एकक्षत्र राज था. 1977 के बाद क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के बाद इसमें बंटवारा शुरू हुआ. मौजूदा हालत यह है कि लोकसभा चुनावों में तो कांग्रेस को मुसलमानों के ठीक-ठाक वोट मिलते हैं, लेकिन विधानसभाओं में उनका वोट क्षेत्रीय पार्टियों को मिलता है. यूपी में समाजवादी पार्टी, बिहार में राजद, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और केरल में मुस्लिम लीग इसके उदाहरण हैं, लेकिन मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देते. इसकी वजह उनके अंदर का डर हो या राजनीतिक दलों की कलाबाजियां, लेकिन भाजपा की नीतियां तो निश्चित रूप से नहीं हैं.

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दिल्ली में क्या होगा
दिल्ली की 70 में से करीब एक दर्जन विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोट निर्णायक साबित होते हैं. यहां के 1.55 करोड़ मतदाताओं में करीब 13 प्रतिशत मुसलमान हैं. 2015 से पहले तक दिल्ली में मुसलमानों के वोट कांग्रेस को मिलते थे. इसके बाद आम आदमी पार्टी ने इस पर कब्जा कर लिया. 2015 और 2020 में आप की जीतों में इस वोट बैंक की बड़ी भूमिका रही. इस बार कांग्रेस फिर से अपने खोए वोट बैंक को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश कर रही है. कांग्रेस इसमें जितना ज्यादा कामयाब होगी, आप के लिए लगातार तीसरी बार जीत का रास्ता उतना ही ज्यादा मुश्किल होगा.

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दिल्ली में मुसलमानों की बहुलता वाली सीटों पर ज्यादा वोटिंग के क्या हैं मायने?
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दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान जारी
मुस्लिम बहुल सीटों पर ज्यादा वोटिंग के संकेत
आम तौर पर भाजपा के खिलाफ वोट देते हैं मुसलमान
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Delhi Election: मुसलमानों की ज्यादा आबादी वाली सीटों पर ज्यादा वोटिंग के क्या हैं मायने, कहीं भाजपा के लिए खतरे की घंटी तो नहीं

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दिल्ली में मतदान के शुरुआती ट्रेंड में मुसलमानों की ज्यादा आबादी वाली सीटों पर ज्यादा वोटिंग के संकेत हैं. क्या भाजपा को इसका नुकसान हो सकता है?
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दिल्ली में मुसलमानों की बहुलता वाली सीटों पर ज्यादा वोटिंग के क्या मायने?