डीएनए हिंदी: 26 अगस्त को महिला समानता दिवस (Women’s Equality Day) मनाया जाएगा. आज कानून की नजर में महिला और पुरुष को भले ही समान अधिकार मिले हुए क्यों न हो लेकिन महिलाओं को लेकर समाज में आज भी दोहरी मानसिकता जिंदा है. आज भी समाज के कई वर्गों में महिलाओं को पुरूष के बराबर नहीं माना जाता. समानता की बात तो दूर कई सारे लोगों को शायद यह भी मालूम न हो कि महिला समानता के अधिकार की बात सबसे पहले किस देश में हुई?
पश्चिमी देश हमेशा से कई बातों में सबसे आगे रहे है. महिलाओं की समानता की बात को लेकर सबसे पहले अमेरिकी महिलाएं मुखर हुईं. दरअसल महिलाओं को अमेरिका (United States) में वोट देने का भी अधिकार नहीं था. 50 सालों तक चली इस लड़ाई के बाद अमेरिका (America) में महिलाओं को 26 अगस्त 1920 को वोटिंग का अधिकार दिया गया. इस तरह यहां से इस दिन की शुरूआत हुई जिसे हर साल याद करते हुए महिला समानता दिवस (Women’s Equality Day in Hindi)के रूप में मनाया जाता है. अमेरिका की तरह देखा-देखी अन्य कई देशों में भी महिलाओं की समानता को लेकर बात होने लगी. आज इस लेख में हम उन फिल्मों के बारें में आपको बताएंगे जिसमें बिना डर और हिचकिचाहट के महिलाओं ने समानता के अधिकार को लेकर समाज में ना केवल आवाज उठाई बल्कि अन्य महिलाओं को प्रेरित भी किया.
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महिलाओं के अधिकारों (Women’s Equality Day in Hindi) की बात करें तो हाल में आई फिल्म 'शाबाश मिठू' पहले नंबर पर आती है जिसमें हम सभी ने देखा किस तरह से भारतीय महिला क्रिकेट (Indian women cricket team) टीम के साथ भेदभाव होता है. किस तरह से उनको पुरुष क्रिकेट टीम की उतरी हुई जर्सियां पहनने के लिए दी जाती हैं. क्रिकेट खेलने के लिए ना अच्छे स्पोर्ट्स गियर्स दिए जाते हैं ना ही अच्छा खाना और ना ही साल में ज्यादा क्रिकेट मैच. भारतीयों के मुंह पर क्रिकेट को लेकर अगर कोई नाम था तो वो सिर्फ पुरुष क्रिकेट टीम प्लेयर्स का था लेकिन फिल्म में बखूबी दिखाया कि किस हर परेशान को झेलते हुए वूमेन क्रिकेटर्स ने ना सिर्फ सारे भारतीयों का दिल जीता बल्कि समाज के लिए एक सीख भी छोड़ी कि महिलाएं किसी से कम नहीं हैं उन्हें भी पुरूषों के समान अवसर दिए जाने चाहिए.
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अपने सपनों को पंख देकर आसमान में ऊंची उड़ान भरने वाली फ्लाइट लेफ्टिनेंट गुंजन सक्सेना के असल जीवन पर बनी फिल्म है गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल. एक लड़की जिसने प्लेन में पहली दफा बैठते ही मन में ठान लिया था कि उसे एक दिन पायलट बनना है. इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है कि गुंजन के लिए उसका सफर कितना मुश्किल था. पहले घर में मां और भाई के आगे खुदको साबित करना फिर वायुसेना में शामिल होने पर वहां के पुरूष अफसरों को साबित करना कि एक महिला भी पायलट बन सकती है. जिंदगी में आने वाली हर मुश्किलों के सामने चट्टान की तरह डट कर सामना कैसे किया जाता है ? ये फिल्म बखूबी बयां करती है. आपको बता दें कि ये फिल्म 1 भारतीय महिला वायु सेना अधिकारी और पायलट पर बनी है. साल 1994 में वे भारतीय वायुसेना (IAF) में शामिल हुईं और 1999 के कारगिल युद्ध में बतौर महिला अफसर अहम भूमिक निभाई.
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साल 2020 में आई फिल्म 'थप्पड़' पूरे समाज के ऊपर जोरदार थप्पड़ की तरह लगी जो अपनी बहन, बेटियों, पत्नियों यह समझाते हैं कि शादी और गृहस्थी चलाने के लिए महिलाओं को कई तरह के बलिदान देने पड़ते हैं और अगर पति ने पत्नी पर गलती से हाथ उठा भी दिया तो उसे माफ कर देना चाहिए. इस फिल्म में तापसी पन्नू ने अमृता नाम की औरत का किरदार निभाया था जो भारत में लगभग हर गृहिणी की कहानी है. इस फिल्म में अमृता का पति गुस्से में बिना किसी गलती के अपनी पत्नी को सबके सामने थप्पड़ जड़ देता है. इतना ही नहीं फिल्म में घर के पुरूष से लेकर महिलाएं भी अमृता को समझाने लगती हैं कि महिलाओं को ऐसी छोटी मोटी बातों पर ज्यादा गौर नहीं करना चाहिए. "बात बस एक थप्पड़ की तो है, जाने देना' तब अमृता कहती हैं, "बात बस एक थप्पड़ की है, लेकिन वो नहीं मार सकता" और कोर्ट में तलाक का केस लड़ती है या यूं कहे कि समाज में ये 'जाने देना' की संस्कृति को खत्म करने का केस लड़ती है जिसे वो जीत जाती है.
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जितना सुंदर इस फिल्म का नाम है उतनी ही सुंदर इसकी कहानी. साल 2015 में रिलीज हुई फिल्म पार्च्ड भारतीय महिलाओं के संघर्ष और कठिनाइयों को दर्शाने वाली सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है. जिसमें दिखाया गया है कि किस तरह से एक विधवा, एक निःसंतान महिला और एक सेक्स वर्कर; पितृसत्ता के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए निरंतर संघर्ष करती हैं. फिल्म भारतीय महिलाओं(Women’s Equality Day in Hindi) से संबंधित कई विषयों जैसे घरेलू हिंसा, बाल विवाह, शादी के लिए महिलाओं का व्यापार, महिलाओं को पुरूषों के पैर की जूती समझना (असमानता की बात) आदि को उजागर करती है. यह फिल्म यह भी बताती है कि किस तरह से महिलाओं को डिस्पोजेबल सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में कैसे देखा जाता है. जिस पुरूष समाज की बेकार मानसिकता का शिकार महिलाएं आजतक होती आईं हैं उस मानसिकता पर यह फिल्म एक गहरा तमाचा है.
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“NO MEANS NO” के कड़े संदेश के साथ पिंक एक ऐसी मूवी जिसे देखने के बाद हर कोई अपना आत्मनिरीक्षण करने के लिए मजबूर हो जाएगा. दरअसल ये कहानी मीनल अरोड़ा (Taapsee Pannu) और और उसके दोस्तों की है जिनके साथ रसूखदार नेता का भतीजा और उसके दोस्त पार्टी में गलत काम करने की कोशिश करते हैं. मीनल के कई बार मना करने के बावजूद राजवीर मीनल के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करता है. राजवीर(Angad Bedi) को लगता है कि कोई महिला उसके साथ मुस्कुराकर बात कर ले और शराब पी ले तो वह उसके साथ सेक्स करने के लिए तैयार है. मीनल एक बोतल से अपना बचाव करके अपने दोस्तों के साथ पार्टी से भाग जाती है. उस घटना के कई दिन बाद भी राजवीर और उसके दोस्त मीनल और उसके दोस्तों को मारने का प्रयास करते हैं.
इन सबसे परेशान होकर मीनल रिटायर वकील दीपक सहगल(Amitabh Bachchan) की मदद से राजवीर और उसके दोस्तों पर केस करती है. अमिताभ बच्चन न सिर्फ उन लड़कियों को इंसाफ दिलाने में मदद करते हैं बल्कि एक कड़ा संदेश समाज को देते हैं लड़कियों का पुरूषों के साथ हँसना, शराब पीना इस बात का इशारा नहीं कि लड़की आपके साथ सेक्स करना चाहती है या उसके लिए तैयार है. दूसरा 'ना का मतलब सिर्फ ना होता है फिर चाहे उसे बोलने वाली लड़की आपकी गर्लफ्रेंड हो, कोई परीचित हो, अपरिचित हो, सेक्सवर्कर हो या आपकी अपनी बीवी ही क्यों ना हो हो ? No Means No' उसका ना उतनी ही अहमियत रखता है जितना किसी पुरूष के ना कहना.
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इंसान की महत्वाकांक्षाओं, लक्ष्यों और सफलता के झंझट में कई चीजें ऐसी होती हैं, जिन पर कभी किसी का ध्यान ही नहीं जाता और उनमें से एक है मां अफसोस की बात यह है कि जो व्यक्ति देखभाल करता है, बिना किसी शर्त के हमेशा आपकी मदद करता है आपका सहारा बनता है और प्यार देता है, उस इंसान को ही हम लोग अक्सर हल्के में लेते हैं.
इंग्लिश विंग्लिश फिल्म भी यही दर्शाती है. एक गृहिणी और कैटरर शशि की कहानी जिसकी कमजोर अंग्रेजी का मजाक उसकी बेटी, पति से लेकर समाज के कई लोग उड़ाते हैं. एक बार को बाहर वाले भले ही मजाक बनाए लेकिन जब कोई अपना घर वाला मजाक बनाए तो कैसा महसूस होता है ये आप सब समझते होंगे. शशि (sridevi) किसी तरह अपने बेटी और पति की आंखों में बराबरी का सपना लिए अंग्रेजी का कोर्स करती है और अंग्रेजी सीखकर ये साबित कर देती है कि एक भाषा कभी किसी महिला की कमजोरी नहीं हो सकती. किसी भाषा को ना बोल पाने की वजह से उनके साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी भाषा किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि कम्यूनिकेशन के लिए बनी है.
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एक मशहूर कहावत है कि "एक सफल पुरूष के पीछे एक औरत का हाथ और साथ होता है" लेकिन कल को वही सफल पुरूष उस औरत की इज्जत करना बंद कर दे जिसकी वजह से वह सफल बना है तो भला ऐसे में घर के बाकि लोग कहां ही इज्जत करेंगे ? सुपर नानी ऐसी आदर्श भारतीय नारी भारती भाटिया की कहानी है जिसने घर, पति और बच्चों की देखभाल में अपने 40 साल गुजार दिए पर ना पति को उसकी कद्र होती है और ना ही घर के अन्य लोगों को.
इस फिल्म (movies speaks about women's equality) में एक औरत को उसकी खोई हुई इज्जत पाने के लिए खुद ही लड़ना पड़ता है और इस काम में उसका नवासा उसकी मदद करता है. भारती फिर से अपने करियर को शुरू करती है और देखते ही देखते बहुत सारी कामयाबी हासिल कर लेती है. वहीं दूसरी ओर जब उसके बहू-बेटे के साथ-साथ पति का करियर खतरे में आ जाता है तो भारती अपने कमाएं पैसों और रूतबे की बदौलत उनकी मदद भी करती है. जब जाकर उसके परिवार को महसूस होता है कि उन्होंने घर की औरत ही नहीं बल्कि अपनी मां के साथ कितना गलत व्यवहार किया. जिस समानता और आदर की वो सदैव हकदार थी हमने उन्हें नहीं दिया.
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चक दे इंडिया एक ऐसी फिल्म है जो कई सामाजिक धारणाओं को एक साथ दर्शाती है. यह फिल्म देशभक्ति और प्रेरणा से भरपूर है. इस फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि खेल की दुनिया में महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है. हालांकि इस फिल्म में दो मुद्दों पर खासतौर से जोर दिया गया है. पहला एक पूर्व हॉकी स्टार कबीर खान (shahrukh khan) के इर्द-गिर्द है, जिसके ऊपर अपने देश से विश्वासघात करने दाग लगा हुआ है जिसे वह दौबारा हॉकी के जरिए धोने का काम करता है. दूसरा खेल में महिलाओं के प्रति पुरूषों के दृष्टिकोण को बदलने का मुद्दा.
भारतीय हॉकी एसोसिएशन को लगता है कि लड़कियों का काम घर में केवल चूल्हा चौका करने का है वो थोड़े ना देश को वर्ल्ड कप जीता सकती है. इसलिए उनको वर्ल्ड कप खेलने जाने के लिए मना कर दिया जाता है लेकिन लड़कियां भारतीय पुरूष हॉकी टीम को प्रैक्टिस मैच में गहरी टक्कर देकर वर्ल्ड कप खेलने जाने के लिए एसोसिएशन को मना लेती हैं और बाद में वर्ल्ड कप जीतकर ये भी साबित कर देती हैं कि महिलाएं किसी भी काम में पुरूषों से कम नहीं फिर वह चाहे खेल का मैदान ही क्यों ना हो. मैरी कॉम (Mary Kom), दंगल (Dangal) और साला खड़ूस (Saala Khadoos) जैसी ना जाने कितनी ही फिल्में ये साबित कर चुकी हैं कि महिलाएं पुरूषों से किसी भी काम में कम नहीं उन्हें बराबरी का हक है.