डीएनए हिन्दी : फ़िल्मों को समाज का आईना माना जाता है. जन संचार के तमाम माध्यमों में फ़िल्मों को विशेष जगह इसलिए हासिल है कि बिना अधिक बातें किये हुए यह देखने वाले तक अपना सन्देश पहुँचा देती है.बहुत से लोगों से पूछा जाए कि वे फ़िल्म क्यों देखते हैं तो ‘मनोरंजन’ सबसे आम जवाब होगा. क्या फ़िल्में केवल मनोरंजन करती हैं? नहीं... कई फ़िल्में गहन सामजिक सन्देश देती है. समाज की बुराइयों को बेहद अच्छे ढंग से रेखांकित करती हैं. आइये एक नज़र डालते हैं उन हालिया फ़िल्मों पर जिन्होंने सोशल इशू यानि सामजिक मुद्दों को शानदार ढंग से उठाया है.
थप्पड़ – घरेलु हिंसा को केंद्र में रखकर बनी यह फ़िल्म औरतों के ख़िलाफ़ होने वाले हिंसा और उसके सामान्यीकरण पर ध्यान आकर्षित करती है. यह परिवार और पति की सेवा के नाम पर औरतों के शोषण से जुड़े मुद्दों पर सीधा-सीधा सवाल उठाती है. 2020 में रिलीज़ हुई थप्पड़ को उसके मज़बूत सन्देश की वजह से काफ़ी पसंद किया गया था.
सैराट – मराठी भाषा की यह फ़िल्म जातिगत संघर्ष और ऑनर किलिंग सरीखे जघन्य मुद्दे पर नज़र डालती है और उससे जुड़ी हुई तल्ख़ सच्चाइयों को बयां करती है.
पिंक – 2016 में आयी हुई यह फ़िल्म औरतों की सहमति से जुड़ी ग़लतफहमियों और छेड़छाड़ बलात्कार सरीखे अपराध पर लड़कियों को ही ग़लत ठहराने की मानसिकता पर गंभीर सवाल उठाती है. इस फ़िल्म के कई डायलॉग बेहद प्रसिद्ध हुए थे.
छपाक – एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की ज़िन्दगी पर 2020 में आयी यह फ़िल्म एसिड अटैक और उसे झेलने के बाद की यातनाओं पर तीखे प्रश्न उठाता है. सौन्दर्य को लेकर समाज के दुराग्रहों पर से भी पर्दे हटाता है. इस फ़िल्म ने एसिड की सर्वउपलब्धि और औरतों की असहमति पर हिंसात्मक व्यवहारों की पड़ताल भी करती है.
ब्लैक फ्राइडे – 1993 के बम्बई दंगों पर बनी हुई यह फ़िल्म बम्बई बम ब्लास्ट और उसके बाद फ़ैले दंगों के बारे में वास्तविकता के क़रीब जाती हुई नज़र आती है. अन्य फ़िल्मों से तनिक पुरानी ब्लैक फ्राइडे 2004 में रिलीज़ हुई थी. यह फ़िल्म अफ़वाह से भी भंग हो जाने वाली आस्था की ओर भी नज़र देती है.
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