डीएनए हिंदी: हंस साहित्योत्सव 2023 के तीन दिनी आयोजन में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत की गई. यह आयोजन दिल्ली के हैबिटैट सेंटर के एएमफी थियेटर में 27 से 29 अक्टूबर तक किया गया. साहित्य विमर्शों में बढ़ती आक्रामकता का मुद्दा हो या लेखक की पहचान के संकट का - पहले दिन के अलग-अलग सत्रों में विशेषज्ञ रचनाकारों ने अपनी बात रखी. इस आयोजन में विमर्शों का हर सत्र लगभग डेढ़ घंटे का था और यह सच है कि महज डेढ़ घंटे की बातचीत में किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता. लेकिन ऐसे विमर्शों का फायदा यह होता है कि यहां से विचार के नए रास्ते खुलते हैं, संभावनाओं का नया द्वार तो दिखता ही है, उसका पसरा हुआ आकाश भी नजर आता है.
पहले दिन के आयोजन में सृजन और संघर्षों की पाठशाला के विमर्श में भागीदार थे वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव, समाजशास्त्री योगेंद्र यादव, अध्यापिका लतिका गुप्ता और अनुवादक व शोधकर्ता माने मकर्तच्यान. इस सत्र का संचालन कर रहे थे कवि, कथाकार, आलोचक व पत्रकार प्रियदर्शन. इस बातचीत के केंद्र में आज की शिक्षा पद्धति तो रही ही, इस बात पर भी विचार किया गया कि आनेवाली युवापीढ़ी को हम किस रूप में तैयार कर रहे हैं, घर-परिवार का माहौल, समाज और राजनीति के संबंध व धर्म और शिक्षा का स्तर कैसा होना चाहिए.
साहित्यिक विमर्श में बढ़ती आक्रामकता
इस सत्र में हंस के मुक्ताकाशी मंच पर मौजूद आलोचक वीरेंद्र यादव, मीडिया विश्लेषक सुधीश पचौरी और सामाजिक कार्यकर्ता व आलोचक अनीता भारती ने आक्रामकता को पहचानने की कोशिश की. इस सत्र का संचालन कर रही थीं कथाकार-पत्रकार गीताश्री. वक्ताओं ने यह बात स्वीकार की कि आलोचकों को कभी भी विमर्श को व्यक्तिगत नहीं होने देना चाहिए, इसी तरह रचना पर की गई टिप्पणी को निजी हमले की तरह देखने से लेखकों को बचना चाहिए.
हिंदी लेखन में अल्पसंख्यक आवाजें
दूसरे दिन के कार्यक्रम की शुरुआत हिंदी साहित्य में अल्पसंख्यक आवाजों को पकड़ने से शुरू हुई. इस सत्र में अध्यापक अब्दुल बिस्मिल्लाह, शोधकर्ता ऋतु बाला, कथाकार कैलाश वानखेड़े और युवा कवि अनुज लुगुन बतौर वक्ता मौजूद थे. मंच संचालन की कमान रेडियो उद्घोषक सबाहत आफरीन के पास थी. इस सत्र में एक तरफ तो वक्ताओं ने विचार किया कि हिंदी साहित्य में अल्पसंख्यक समाज को किस तरह देखा जाता है. क्या यह नजरिया ब्राह्मणवादी है या कोई और? अल्पसंख्यकों के अनुभवों के आधार पर यह भी बताया गया कि सतह पर तो सबकुछ सामान्य दिखता है, मगर अब भी समाज में जाति और समाज का मुद्दा ज्वलंत है. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच कई बार भेदभाव भी नजर आ जाता है, मगर इस फर्क को महसूस करते साहित्य को वह दर्जा नहीं मिल पाता, जो दूसरे साहित्य को मिलता है. शायद एक यह भी वजह है कि बड़े सम्मानों से हिंदी साहित्य के अल्पसंख्यक लेखक वंचित हैं.
हिंदी आलोचना के प्रतिमान
हिंदी आलोचना की धार क्या नामवर सिंह के बाद कुंद पड़ी है, जैसे सवाल पर इस दूसरे सत्र में विचार-विमर्श हुआ. इस सत्र में वक्ता के तौर पर उपन्यासकार प्रेम कुमार मणि, आलोचक संजीव कुमार, आलोचक सुजाता और आलोचक वैभव सिंह थे, जबकि सत्र का संचालन पत्रकार अनुराग अन्वेषी कर रहे थे. वक्ताओं की बातचीत से यह बात उभरी कि पुराने प्रतिमानों से संवाद तो जरूरी है ही, वक्त की नब्ज पकड़ने की भी जरूरत है. जब कोई आलोचना सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को समझे बिना की जाएगी तो उस आलोचना की आलोचना होगी ही. इसलिए इस दौर में जितना सजग होकर लिखता है, उससे ज्यादा सजग होकर आलोचक को कंटेंट समझने की जरूरत है.
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लेखक का संशय-कितनी वर्जनाएं कितने भय
दूसरे दिन के तीसरे सत्र में बतौर वक्ता लब्धप्रतिष्ठ रचनाकार मृदुला गर्ग, कथाकार व आलोचक अखिलेश, कथाकार व पत्रकार अनिल यादव और लोकगीतों की रचनाकार नेहा सिंह राठौर मौजूद थे. इस सत्र में संचालन की जिम्मेवारी अविनाश मिश्र के पास थी. मृदुला गर्ग ने कहा कि संशय के बिना कोई सृजन संभव नहीं है. अगर हमारे मन में संशय नहीं होगा तो हम सृजन कैसे करेंगे. इसलिए संशय का होना सृजन के लिए सकारात्मक पहलू है. लेखन में सेल्फ सेंसरशिप के सवाल पर अखिलेश ने कहा कि आज के दौर में किसी की भावना बड़ी जल्दी आहत हो जाती है, ऐसे में लेखक को अक्सर कानून के पेच में फंसने की नौबत आ जाती है. इसलिए कई बार लगता है कि इस अयाचित स्थिति को टालने के लिए लेखक सेल्फ सेंसर करते हैं. अखिलेश जी की बात आगे बढ़ाते हुए मृदुला गर्ग ने कहा कि पहले ऐसे हालात नहीं थे. ईश्वर और धर्म की आलोचना पहले बुनियादी और आम बात हुआ करती थी.
परसाई परंपरा और हिंदी की बांकी मुस्कान
इस सत्र में हंस के मंच पर देश के चर्चित व्यंग्यकारों का जमावड़ा था. हिंदी व्यंग्य पर बातचीत के लिए व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी, व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय, व्यंग्यकार आलोक पुराणिक और स्टैंडअप कॉमेडियन राजीव निगम मौजूद थे. इस सत्र में सूत्रधार की भूमिका निभा रही थीं कवि व उपन्यासकार अणुशक्ति सिंह. इस सत्र में हास्य और व्यंग्य के बारीक फर्क पर भी चर्चा हुई. वक्ताओं ने कहा कि हास्य का एकमात्र उद्देश्य हंसाना होता है, जबकि व्यंग्य दृष्टि देता है, समाज को साफ करने का काम करता है. वक्ताओं ने माना कि व्यक्तियों पर लिखा गया व्यंग्य न दीर्घजीवी हो सकता न श्रेष्ठ, प्रवृतियों पर लिखे गए व्यंग्य की उम्र लंबी होती है और श्रेष्ठ होता है.
वैश्विक साहित्य के आईने में हिंदी साहित्य
हंस साहित्योत्सव के आखिरी दिन 'वैश्विक साहित्य के आईने में हिंदी साहित्य' और 'हिंदी मीडिया में कितना साहित्य' जैसे विषयों पर चर्चा हुई. वैश्विक साहित्य के आईने में हिंदी साहित्य की पड़ताल के लिए मंच पर लेखक-संपादक पूनम सक्सेना, अध्यापक व अनुवादक हरीश त्रिवेदी और लेखक-संपादक शम्पा शाह मौजूद थे. इस सत्र का संचालन आशुतोष भारद्वाज ने किया. हरीश त्रिवेदी ने विश्व साहित्य की अवधारणा के शुरुआती पक्ष को उद्घाटित किया. अनुवाद के सवाल पर पूनम सक्सेना ने कहा कि अनुवाद को प्रोत्साहित करना बहुत जरूरी है. खाली अनुवाद करके छोड़ देना काफी नहीं है, उसका प्रचार और प्रसार करना जरूरी है. शम्पा शाह ने कहा कि हिंदी लेखन में अनुवाद की परंपरा रही है. बेहतरीन लेखकों ने भी अनुवाद किया है. इस सत्र में हिंदी साहित्य का वैश्विक साहित्य में क्या योगदान है? उसकी भूमिका और उसके विस्तार में अनुवाद का क्या महत्व है और भारतीय साहित्य का वैश्विक परिदृश्य कैसा है? आदि विषयों पर सारगर्भित चर्चा हुई.
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हिंदी मीडिया में कितना साहित्य
इसी दिन हिंदी मीडिया में साहित्य की परख भी की गई. इस परख के लिए पत्रकार और लेखक अकु श्रीवास्तव, उपन्यासकार और पत्रकार संजीव पालीवाल, कहानीकार और पत्रकार आकांक्षा पारे काशिव, संपादक सौरव द्विवेदी और टीवी एंकर और स्तंभकार मुकेश कुमार मंच पर मौजूद थे. इस सत्र का संचालन पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नवीन कुमार ने किया. इस सत्र में पत्रकारिता क्या है? उसका साहित्य से क्या संबंध है? वंचित समुदाय को पत्रकारिता कितना स्थान देती है? पत्रकारिता का स्वरूप क्या है? जैसे प्रश्नों पर चर्चा हुई. अकु श्रीवास्तव ने कहा कि उदारीकरण के बाद लोगों को पता चला कि साहित्य का कलेवर बहुत व्यापक है, जिसमें नए माध्यमों का बहुत बड़ा योगदान है. संजीव पालीवाल ने कहा कि क्या हम साहित्य को वहीं देखना चाहते हैं जहां वह पचास साल पहले था? आजकल तो साहित्य हर जगह है. उसकी रेंज बहुत बढ़ गई है. तकनीकी दौर में साहित्य का खूब विस्तार हो रहा है. वहीं मुकेश कुमार ने कहा कि मीडिया में साहित्य की जगह सिकुड़ती चली गई है. उसने साहित्य और साहित्यकारों को हाशिये पर ढकेल दिया है. इसीलिए मीडिया की भाषा उथली होती चली गई है. मुख्यधारा का मीडिया एक आपराधिक रूप अख्तियार कर चुका है. सौरव द्विवेदी ने क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को मीडिया के संदर्भ में रेखांकित किया. आकांक्षा पारे काशिव ने कहा कि मीडिया से साहित्य कहीं नहीं गया है, वह वहीं है.
विपरीत वास्तविकताओं के बीच झूलता हिंदी सिनेमा
तीन दिनी साहित्योत्सव के अंतिम दिन के अंतिम सत्र में हिंदी सिनेमा की स्थितियों पर चर्चा के लिए हंस के मुक्ताकाशी मंच पर फिल्म निर्देशक गौतम घोष, अभिनेता मोहन आगाशे, पटकथा लेखक अनु सिंह चौधरी और कवि-लेखक विजय रंचन उपस्थित थे. इस सत्र का संचालन डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता अनवर जमाल कर रहे थे. इस मौके पर मोहन आगाशे ने फिल्म सद्गति की चर्चा करते हुए कहा कि इनसान एक-दूसरे से जैसा बर्ताव करता है उसका सटीक चित्रण इस फिल्म में हुआ है. इस फिल्म में मैंने कुछ नहीं किया, जो किया सब माणिक दा ने किया. फिल्म में बात कहने का तरीका होना चाहिए. इस फिल्म में काम करते हुए जितना कुछ मैंने सीखा, उतना किसी दूसरी फिल्म से नहीं सीख सका. अनु सिंह ने कहा कि बदलते दौर में नायिकाएं भी बदली हैं. स्त्री का इस्तेमाल सिर्फ टोकन की तरह हो रहा. यह बाजार की डिमांड भी है. इस फील्ड में कांटे छुपे हुए हैं, सिर्फ फूल दिखते हैं. इस सत्र में वक्ताओं ने कहा कि फिल्म की टेक्नोलॉजी बनिया लोगों के हाथों में चली गई है. बिजनेस हो गया है ये फील्ड, सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन भर रह गया.
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हंस साहित्योत्सव 2023 का समापन, बहसों और विमर्शों से भरा पूरा रहा तीन दिन, पढ़ें विस्तृत रिपोर्ट