डीएनए हिंदी : विजयश्री तनवीर की कहानियों में प्रेम बहुत मुखर है. यह प्रेम स्त्री हो या पुरुष- दोनों के भीतर हिलोरें लेता है. कुछ समय के लिए पत्रकारिता से जुड़ीं विजयश्री अब हिंदी साहित्य में खूब सक्रिय हैं. देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविता और कहानियों को जगह मिलती रही है. समय-समय पर इन्होंने आलेख भी लिखे हैं.
विजयश्री के हिस्से अब तक कविताओं का एक संग्रह और कहानियों के दो संग्रह आ चुके हैं. कविता संग्रह 'तपती रेत पर' और कहानियों के संग्रह 'अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार' और 'सिस्टर लिसा की रान पर रुकी हुई रात' हैं. विजयश्री को कहानी 'गांठ' के लिए हंस कथा सम्मान मिल चुका है. और अभी हाल ही में 2023 का सविता कथा सम्मान मिलने की घोषणा की गई है. स्त्री के द्वंद्व और प्रेम में पगी कहानी है 'अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार'.

विजयश्री तनवीर

आठ महीने के देबू को कंधे से लगाए अनुपमा गांगुली जब नैहाटी जंक्शन पहुंची तो नौ-पंद्रह वाली लोकल पटरियों पर रेंगने लगी थी. उसने खुद को कोसना भेजा. कैसी कूढ़मगज हो वक्त का जरा अंदाज नहीं. कल भी कुछ फर्लांग की दूरी पर थी और ट्रेन सामने ही धड़धड़ाती गुजर गई. फिर सारा दिन का कोसना-कलपना. किसी पैने नश्तर की तरह मन-प्राण में पैबस्त होता एक अबूझ खालीपन जिसका कोई पार नहीं. अपनी कल की हालत को यादकर उसे घबराहट होने लगी. वही सब आज फिर नहीं. उसने इरादा किया और इससे पहले कि ट्रेन रफ्तार पकड़ती बिना एक पल गवांए साड़ी के पल्लू को कमर में खोंसकर वो ट्रेन की गति के साथ दौड़ पड़ी.
ये सम्मोहन और बेलगाम चाहतों की दौड़ थी. ट्रेन का छूट जाना आज मंजूर न था. 
इस दौड़ में कन्धे पर सोया देबू बांह पर खिसक आया था. थोड़ी सी भी चूक जानलेवा हो सकती थी. लेकिन उसे अपने यूं जोखिम उठाने पर कोई तअज्जुब नहीं. प्रेमिकाएं कच्चे घड़े का अवलंबन लिए उफनते दरिया में कूद पड़ती हैं.
उसने अपनी बांह में देबू को कसकर दबोच लिया, पायदान पर पांव जमाया और ठीक अगले ही क्षण पोल पर झूलती हुई बिल्ली की सी खूंखार फुर्ती के साथ अंदर समा गई.
उसे लगा वो बेकार ही डरती थी. कितनी ही औरतें तो रोज ऐसा करती हैं. दौड़ती लोकल पकड़ना उसके लिए एक सरल सा काम था. बिल्कुल इतना सरल जितना आजकल किसी औरत को देखने भर से उसकी ब्रेसियर का साइज जान लेना.
ये ख्याल आते ही उसका मन हंसने को हुआ कि कैसी बेहूदा नौकरी है. कितनी उल-जुलूल सी बातें मन में आती हैं.
ठस्समठस्स भीड़ थी. उसे बैरकपुर का इंतजार था. अभी पूरे बीस मिनट बाकी थे. तकरीबन एक घंटे के सफर में बस ये बीस मिनट ही उसे असह्य थे. बाकी समय को फुर्ररर से उड़ जाना था. अगर आज भी वो ये लोकल न पकड़ पाती तो...
उसकी सारी चेतना इस अप्रिय 'तो' पर ठहर गई. एक सयानी औरत के केंचुल में लिपटी अंधी प्रेयसी उद्विग्न हो उठी.
तो...
दिन पहाड़ सा होता. उसे देखे बिना एकदम फीका और बेरंग.
बाहर की सयानी औरत को ये उद्विग्नता फिजूल लगती है. उसने डपटकर कहा "कैसा फितूर है, तुम्हें उसके सिवा कुछ सूझता भी है?"
"नहीं सूझता."   प्रेयसी ढीठ और बेफिक्र है. 
"मैं उसके प्रेम में हूं."
"चौथी बार !" सयानी औरत विद्रूपता से मुस्कुराने लगती है.
"क्या हर्ज है?"
प्रेयसी मोहब्बत के फलसफे जानती है. उसे जिरह पैरवी करने से गुरेज नहीं.
"अगर एक बार तो चौथी बार क्यों नहीं. सही पात्र न मिले तो सौ बार भी लाजिम है."
सयानी औरत पूछती है.
"मगर किस बिना पर? कोई भला आदमी इस दमघोंटू लोकल में उसके रोते बच्चे को बहला दे और इसके बदले वो अपनी तमाम सोचों को उसके नाम लिख दे!"
"सिर्फ इसलिए तो नहीं." 
प्रेयसी को दंभ है कि वो सब जानती है जो कुछ भी मोहब्बत में है.
वो यकीन से कहती है  "लेकिन अगर वो भला आदमी किसी उद्धारक की तरह इस लोकल की सारी उलझनों से उसे उबार ले, तब तो सपने उसके नाम किए जा सकते हैं न?"
सयानी औरत मुतमइन न हुई. मगर खामोश हो गई.
प्रेयसी उस भले आदमी की उदारताओं को सोचने लगी कि जब देबू लोकल की इस निर्दयी भीड़ में दूध के लिए उसकी छातियां ढूंढ़ने लगता है और वो लज्जा से मरी जाती है, तो  नजदीक बैठा वो भला आदमी कैसे उसके लिए अपने अखबार की एक सुरक्षित दीवार चुन देता है. उसकी एक सिसकारी से बिना देखे ही वो कैसे जान लेता है कि देबू कटखना हो गया है. रबड़ की उन रंगीन चाबियों (टीथिंग कीज) को याद करके वो कृतज्ञ हो उठी, जिन्हें उसने देबू के हाथ में थमाया था. कौन कहता है पुरुष का प्रेम आंखों से और स्त्री का कानों से शुरू होता है. उसने तो कभी उसे आंख भर नहीं देखा न ही कभी उनके बीच प्रेम जैसे किसी शब्द पर कोई संवाद हुआ था.
अचानक उसे लगा कि कंधे पर लटके जूट के थैले में वाइब्रेशन मोड पर लगा मोबाइल बहुत देर से गुर्रा रहा है. उस तरफ उसका ध्यान ही न था. थैले में बहुत सी चीजें थीं. प्लास्टिक का लंचबॉक्स, बेबी पाउडर, डायपर, एक पुड़िया में बंधा सेरेलक, तौलिया, पानी की बोतल. उसने उंगलियों से टोहकर मोबाइल को बाहर खींच लिया. मोबाइल गुर्राकर खामोश हो चुका था. छह मिस्ड कॉल. सुरंजन आजकल खूब फोन करता है. दिन में दो-एक बार तो जरूर ही. उठाते ही बेसिर पैर के बीसियों सवाल.


बाप बनते ही मर्द आखिर बौरा क्यों जाते हैं! बिना किसी शारीरिक परिवर्तन के ऐसा हृदय परिवर्तन! इन अर्थों में पितृत्व मां होने से कहीं ऊपर है. उसे अपने पिता की याद हो आई और सुरंजन पर श्रद्धा होने लगी. किंतु अगले ही पल उसने सोचा कितना कहा था कि नौकरी के लिए बाहर न जाओ. एक बार मुल्क छोड़कर आदमी सारी उम्र के लिए परदेस का हो जाता है. मगर सुरंजन ने उसे समझाया "सत्तर हजार तनख्वाह है. ओवरटाइम अलग. खा-पीकर भी लाख रुपए कहीं नहीं गए." सुनकर उसकी आंखें फैल गई थीं. उसने खुद को आश्वस्त किया डेढ़ साल ही तो है, कट जाएगा.



"देबू बिल्कुल मुझ पर पड़ा है न... दूध-भात खाता है या नहीं... उसके बाल छिलवा देंगे तो बाल अबकी भी घुंघराले आएंगे न... अच्छा कितने दिन में वो उसे पहचानने लगेगा?
वो सोच रही थी इन बेजा सवालात में कोई एक भी उसके लिए है? घंटियों जैसी वो हंसी जिस पर सुरंजन मर मिटा था देबू की किलकारियों में जज्ब हो गई हैं. जिन्हें सुन लेने को वो आजकल खूब बेसब्र हुआ रहता है.
कैसे अचानक ही हमारे प्रेम का विस्थापन किसी दूसरे पर हो जाता है.
बाप बनते ही मर्द आखिर बौरा क्यों जाते हैं! बिना किसी शारीरिक परिवर्तन के ऐसा हृदय परिवर्तन! इन अर्थों में पितृत्व मां होने से कहीं ऊपर है. उसे अपने पिता की याद हो आई और सुरंजन पर श्रद्धा होने लगी. किंतु अगले ही पल उसने सोचा कितना कहा था कि नौकरी के लिए बाहर न जाओ. एक बार मुल्क छोड़कर आदमी सारी उम्र के लिए परदेस का हो जाता है. मगर सुरंजन ने उसे समझाया "सत्तर हजार तनख्वाह है. ओवरटाइम अलग. खा-पीकर भी लाख रुपए कहीं नहीं गए." सुनकर उसकी आंखें फैल गई थीं. उसने खुद को आश्वस्त किया डेढ़ साल ही तो है, कट जाएगा. फिर वो इस बाड़ी में नहीं रहेगी. एक ऊंची छतवाला खुला मकान लेगी. सुरंजन के चले जाने के पंद्रह दिन बाद उसे अपने गर्भ की खबर हुई. इतनी जल्दी जाने किस विपत में फंस गई. पता होता तो सुरंजन को कभी जाने न देती.
उसने देबू को देखा. देबू ने होंठ दूध पीने की मुद्रा में सिकोड़ रखे हैं. बीच-बीच में वो अपने होठों को चलाने लगता है. उसे उस पर लाड़ आने लगा. देबू है भी कित्ता प्यारा. गोल-मटोल गदबदे खरगोश सा. बिल्कुल सुरंजन पर पड़ा है. वैसी ही नाक, माथा और उजला रंग. वो रोज कानी उंगली से उसके माथे के बीचोंबीच एक नजरबट्टू रख देती है. घर छोड़ने से पहले ये आखिरी काम है जिसे वो कभी नहीं भूलती. उसने देबू को प्यार से चूम लिया. फिर याद आया सोते बच्चे को प्यार नहीं करना चाहिए.
मोबाइल दोबारा गुर्राने लगा था. एकबारगी मन हुआ बात कर ले. मगर बैरकपुर आने को है. अगर बात पर बात निकलती गई तो जाने कित्ती देर लगे और फिर  बैरकपुर ...
उसने मोबाइल को गुर्राने दिया.

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अब तक वो भीड़ के जटिल व्यूह को बेधकर खड़े होने लायक जगह बना चुकी थी. लेकिन उसे पूरी आशंका थी कि अगले ही स्टेशन पर भीड़ का कोई रेला आएगा और उसे कहीं भी पटक देगा. किसी की बदबूदार सांसों से जी घिन्ना जाएगा, किसी की गलीज अंगुलियाँ उसकी रान को छूती गुजर जाएंगी. कितना ही शरीर को सिकोड़ेगी किसी का गुस्ताख कन्धा उसके जिस्म को छीलता निकल जाएगा या किसी के जूते के तले उसका पांव कुचल जाएगा.
सारी धकापेल में बाकी दिनों से जुदा देबू आज कंधे पर चुप सोया पड़ा था. फिर से बुखार तो नहीं उसने बुशर्ट के भीतर हाथ सरकाकर तसल्ली की. उसका बदन पसीने से तर था. जैसे अभी हरारत टूटी हो. उसके माथे, नाक और होठों के ऊपर पसीने की बूंदें ओस कणों की तरह उभर आई थीं. और कोई दिन होता तो भीड़ और गरमी से आक्रांत होकर वो बुक्का फाड़कर रोने लगता. रोते-रोते इस कदर बिलखता कि फिर ब्लाउज के हुक खोले बिना त्राण नहीं. उसकी शिकायत कोई हो मगर जरूरत एक ही थी. वो कभी भी कहीं भी आक्रामक ढंग से उसकी छातियां टटोलने लगता. उसका रोना जितना प्रचण्ड होता उसी अनुपात में दूध के लिए उसकी आक्रामकता. ऐसे समय उसके जिस्म में चींटियां सी रेंगने लगती हैं और दिल अपनी जगह से दाईं ओर को झुक जाता है. उसे कुछ नहीं सूझता कि वो क्या करे. और तो और ये डरावने पल उसकी रातों के दुःस्वप्न बन गए थे.
वो सपनों में देखती कि देबू के चार छोटे धवल दांत किसी दैत्य की तरह लंबे और नुकीले हो गए हैं. उसके नाखून बहुत तेज, पैने और धारदार हैं. किसी जिद में उसने उसके ब्लाउज को दांतों और नाखूनों से चींथकर रख दिया है. हजूम का हजूम आंखें फाड़े उसे घूर रहा है. और वो दोनों हाथों से अपनी छातियों को ढांपे दोहरी हुई जा रही है. 
कभी देखती कि जाने किस हड़बड़ी में दूध पिलाने के बाद ब्लाउज के हुक लगाना भूल गई है. हवा का कोई निर्लज्ज थपेड़ा उसका पल्लू उड़ाए जा रहा है. बहुत से आदमी औरत उसकी नग्नता पर हंसी ठट्ठा कर रहे हैं.
इन सपनों ने मारे डर के उसकी नींदें उड़ा दी थीं. एहसान उस भले आदमी का जिसने उसे उबार लिया.
अपने सपनों में आजकल वो देखती है एक लंबी अकेली सड़क. जिसके दोनों ओर यूकिलिप्टस की कतारें हैं. उनसे लिपटी लाल सफेद फूलों की लतरें हैं. सड़क के दूसरे छोर पर एक दिव्य पुरुष की छाया उसे व्यग्र प्रेमी की तरह पुकार रही है. और वो इस आवाज को पहचानकर बेतहाशा दौड़ रही है.
सरपट भागती लोकल किसी स्टेशन पर रुकी. उसने झांककर देखा 'श्यामनगर'. अगला स्टेशन बैरकपुर होगा. वो संभल गई. बस दस मिनट और देबू यूं ही सोता रहे.
ट्रेन में रोज का परिचित माहौल था. 'आनंद बाजार' के पन्ने रुचि और रुझान के हिसाब से बांट लिए गए थे. कुछ हाथों में अंग्रेजी अखबार थे. उन चेहरों पर जहीनियत की ठसक थी. दाईं तरफ की एक सीट पर कुछ नौकरीपेशा मर्द ताश के पत्तों को जापानी पंखों की तरह हाथों में फैलाए जोशोखरोश के साथ 'स्वीप' की बाजी में मशगूल थे. छुट्टी के दिन सुरंजन बाड़ी के दोस्तों के साथ दिन-दिन भर ताश की बाजियों में लगा रहता था. और चाय पर चाय मांगता था. उसे सुरंजन पर खूब खीज होती थी.
ग्रैब हैंडलों पर झूलते कुछ नए लड़के शाम को होने वाले क्रिकेट मैच की हार-जीत का कयास लगा रहे थे. उसके निकट ही बगलों में झोले दबाए दो औरतें बड़ी देर से बढ़ती महंगाई पर अपना दुखड़ा साझा कर रही थीं. औरतें कितना बोलती हैं. इसलिए उसे जनाना डिब्बों से खास परहेज है. 
अचानक उसने अपनी पीठ के निचले हिस्से पर कोई सख्त दबाव महसूस किया. एक लिजलिजी छिपकली सी समूचे बदन पर रेंग गई. उसने मुड़कर देखा. एक बड़ा सा डोल लिए कोई सोलह-सत्रह का लड़का था. उसके कपड़ों से छेने की खटास भरी गंध उठ रही थी. होठों के ऊपर बालों की विरल रेखा अभी जमने ही लगी थी और आंखों में सारे जहां की वहशियत और नदीदापन. ये वो कुत्सित और भेदक आंखें थीं जो किसी औरत के बुर्के के पार भी झांक सकती हैं. घृणा से उसका बदन फरफरा उठा. अभी वो होता तो इस दुष्ट लड़के पर चढ़े कामुक प्रेत को एक झापड़ में झाड़ देता. उस भले आदमी की निर्विकार आंखें उसकी आंखों में मुस्कराने लगीं. वो कितना सज्जन और शालीन है. एक अनिवर्चनीय श्रद्धा से वो अभिभूत हो उठी. और चुपचाप दो सीटों के बीच के तंग गलियारे में खिड़की से सटकर खड़ी हो गई.
खिड़की वाली सीट पर दोहरी देह की एक औरत बैठी ऊंघ रही थी. उसकी बगल में जरूरत से कुछ अधिक ही तनकर बैठा मरघिल्ला सा आदमी शायद उसका पति था. जो दुबलेपन की अपनी हीनता को मूंछों में पैने खम देकर काफूर कर देना चाहता था. बावजूद इसके उसके चेहरे पर कतई रुआब न था. मोटी औरत उस पर ढही जा रही थी. उसके ब्लाउज की तंग बांहों से छितराया हुआ गोश्त और बाहर को उबली पड़ती उपलों सी छातियां.
अड़तीस...
उसने अनुमान लगाया और मुस्कुरा दी.

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चाડડડ गौरोमડડડ...
टेर लगाता चायवाला भीड़ में गलियारा बनाकर इसी तरफ को आ रहा था.
इतनी गरमी में गरम चाय!
सुरंजन जेठ की गरमी में उसके सारी ना-नुकर और झल्लाहट के बाद भी उसे दबोच लेता है. बाड़ी की नीची छत और नीचे उतर आती है.
"गरमी गरमी को मारती है ." 
कैसी उल्टी बात है! वो साड़ी के छोर से चीकट हो आई गर्दन को पोंछने लगी. चायवाला उसकी तरफ आस भरी नजर से देख रहा था. उसे जाने क्यों सुरंजन और चायवाला बिल्कुल एक से लगे. उसे लगा चायवाला अपनी निरीह मुस्कुराहट फेंककर कह रहा है "एक चाय ले लो जी... गरमी गरमी को मारती है."
उसने हिकारत से मुंह फेर लिया.
पीछे झाल मूड़ी वाला अपना खोमचा लिए तैयार था. कच्चे तेल की झांस चाय की गरमी से कुछ बेहतर थी. ऐसे माहौल में लोग खाते भी कैसे होंगे! इस समय उसके पेट में तंदूर सा जल रहा था. सुबह जल्दी में कुछ भी खाकर नहीं चली थी. सवेरे की मसरूफियत और जरूरतों में खाना ही उसे गौड़ लगता है. उसके थैले में दोपहर के लिए जल्दबाजी में बनाए गए दो परांठे और लाल मिर्च का अचार था.
कुछ दूर दो कमसिन लड़कियां मुंह जोड़े कुछ फुसफुसा रही थीं. वे बहुत धीमी आवाज में कुछ कहतीं और फिर बहुत जोर से हंस पड़तीं. इस उम्र में लड़कियां फुसफुसाकर बतियाना सीख जाती हैं. उसे उनकी हंसी पर रश्क हुआ. उसे याद आने लगीं अपनी हमजोलियां और ऐसी ही बेवजह की खिलखिलाहटें, ढेले मारकर शहतूत और झरबेरियां गिराना और उन पर टूट पड़ना, स्कूल कैंपस और घुंघराले बालों वाले म्यूजिक सर. उसे याद आ रहा था उनका गिटार बजाते हुए झूमकर गाना "ओડડડ सुजियाना नाउ डोंट यू क्राई फॉर मी...
वो होंठों ही होंठों में हठात गुनगुनाने लगी.
"ऐज आई केम फ्रॉम अलाबामा विद माय बैंजो ऑन माय नी..."
उसे अचंभा हुआ सालों पुराना सुजियाना गीत उसे याद है!
बोर्ड पर सरगम लिखते समय उसे गुम देखकर अक्सर म्यूजिक सर उसकी गर्दन के ठीक नीचे चॉक का टुकड़ा खींच मारते. "पॉमेला अंतरा सुनाओ." उन्नत शिखरों के बीच दर्रे में चॉक कहीं फंस जाती और शर्म से उसकी कनपटियां लाल हो आतीं. वहीं खुद पर गुरूर भी होता कि इतनी लड़कियों के बीच म्यूजिक सर ने अपनी इस दिलकश खुराफात के लिए उसी को चुना. उसे इल्म था कि उसकी कौन सी खूबी पर म्यूजिक सर उसे 'पॉमेला' बुलाते हैं. अपनी कमीज को दो इंच सिलाई लगाकर और स्कर्ट को ढाई इंच छांटकर उसने भी 'पॉमेला' बनने में कसर न छोड़ी. स्कूल छोड़ते समय म्यूजिक सर ने बड़े लाड़ से उसके गाल पर चपत लगाई थी. बहुत दिनों तक उसे लगा कि म्यूजिक सर अपनी गर्म उंगलियां वहीं उसके गाल पर छोड़ गए हैं.
कोई साल भर बाद इस सम्मोहन को मोहल्ले के एक जांबाज छोकरे ने तोड़ दिया. जो उसकी एक झलक के लिए घंटों छत पर तपा करता. और उसके पीछे फर्राटे से स्कूटर घुमाता. इस हिमाकत पर एक दिन उसे बेतरह पीटा गया.
सुरंजन से मिलना भी उसके लिए कुछ कम रोमांचक न था. वो लोकल में उसके बिल्कुल नजदीक खड़ा था और उसने पूछा था "कोथाई नाम्बे?"
बिना सोचे ही वो तपाक से बोल पड़ी "अनुपमा झा."
सुरंजन के साथ बाकी सब भी ही-ही कर हंस पड़े थे. वो खिसिया कर रह गई थी. उसने सोचा था इस शहर में बांग्ला सीखे बिना गुजर नहीं.
बात की बात में सुरंजन से मुलाकातों का सिलसिला चल निकला. बहुत जल्द वो अनुपमा गांगुली बन गई.
लोकल की रफ्तार धीमी पड़ने लगी थी और धड़कनों की तेज.
बैरकपुर आ गया था.
उसकी नजर गिद्ध की तरह प्लेटफॉर्म पर चिपक गई. एक दूसरे को धकियाते लोग ही लोग. जैसे मधुमक्खियों के छत्ते पर किसी ने ढेला मार दिया हो. और वो पगलाई सी उड़ती फिर रही हों. उसने नजरें गाड़कर देखा. वो कहीं न था. उसकी बेचैनी फनफनाकर बेकाबू हो रही थी. 
वो आया क्यों नहीं? 
कहीं बुखार-वुखार तो नहीं?
कहीं ऐसा न हो कि आज वो अपनी ट्रेन  गवां बैठा हो! 
आशंकाओं के पीछे भागते हुए उसकी सांसें फूलने लगीं. काश ये आखिरी स्टेशन होता तो वो बाहर निकलकर उसे  ढूंढ़ने लगती. 
मोटी औरत जागकर आंखें मल रही थी. उसने अपने भारी भरकम हाथ से उसे टहोककर अपनी जगह बैठने का इशारा किया और अपना कुल वजन घुटनों पर तौलती हुई उठ खड़ी हुई. इस वक्त उसकी टांगे जवाब दे रही थीं. वो बेजान सी सीट पर फैल गई. 
बैरकपुर पीछे छूट रहा था.
वो खिड़की से बाहर ताकने लगी. दृश्य तेजी से बदल रहे थे. पोखर में नहाती भैसें... काई जमी खपरैलें और बेढब झोंपड़े... खजूर और केले के दरख्त... और उन पर लटकी गाछें... मुंडेरों पर बैठे पीली आंखों वाले नंग-धड़ंग बच्चे... कीचड़ में लोटते सुअर... पटरियों के नजदीक कुड़कुड़ाती मुर्गियां... घरों के उपेक्षित पिछवाड़े... बिना पलस्तर की दीवारें और उन पर लिखे खोई ताकत और जवानी लौटाने वाले हकीमों के पते... निरमा साबुन और घोड़ा बीड़ी के विज्ञापन... क्रॉसिंग पर इंतजार देखते वाहनों की कतारें.
किंतु वो इन सबसे बिल्कुल असंपृक्त थी.
बराबर से कानों में हल्ला मचाती एक रेल गुजर गई. देबू चिहुंक कर जाग गया. वो अपनी अबोध आंखों से दुनिया देख रहा था. वो सोचने लगी जब देबू पैदा हुआ था उसे लगता था अब और कोई चाह बाकी नहीं. ऐसा ही सुरंजन को पाकर भी लगा था. अब कुछ और नहीं चाहिए कहते कहते भी मन कितना कुछ चाहता है. हवा की तुर्शी से या किसी और बात से उसकी आंखों में पानी छलक उठा.
सियालदह उतरी तो गला सूख रहा था. उसने झोले में रखी पानी की बोतल से गला तर किया. उसे प्यास लगी थी लेकिन पानी खारा और कुनकुना सा था. सूरज अभी से सिर पर था. रात थोड़ी बूंदाबांदी हुई थी. खुलकर बरस जाता तो कुछ राहत होती. वो रिक्शा देखने लगी. नजदीक ही छांव में सुस्ताता रिक्शेवाला शायद बीड़ी पीने की फिराक में था. लेकिन सवारी देख उसने बीड़ी अपने कान पर वापस अटका ली.
"कैनिंग स्ट्रीट."
रिक्शेवाला गमछे से पसीना पोंछकर बोला  
"दौस टका."
उसने छिपे-छिपे साड़ी की चुन्नटें ठीक की और बिना हील हुज्जत के बैठ गई.
रास्ते भर उसकी बंजारन आंखें सड़क छानती रहीं. बिल्कुल ऐसे जैसे हमारी कोई बेहद प्रिय चीज कहीं खो जाए और हम उसके मोह में उसे असंभावित जगहों पर भी खोजते रहें.

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दुकानों के पिछवाड़े संकरी गली के मुहाने पर जाने कब से रंग-रोगन को तरसती एक गंदली सी इमारत थी. उसके ठीक सामने गंधाता हुआ सार्वजनिक शौचालय. वो पल्लू से नाक भींचकर पहले तल्ले पर चढ़ गई.
एक मैली कुचैली अधेड़ औरत दौड़ी आई.
"अजा एता दुरा!" 
वो फीकी सी मुस्कुरा दी.
बिना खिड़कियों वाला हॉलनुमा कमरा था. मगर छत ऊंची थी. लकड़ी के नंगे तख्त पर आधे हिस्से में प्लास्टिक का बिछावन था. उस पर दो छोटे बच्चे सोए पड़े थे. फर्श पर एक बड़ी चटाई बिछी थी. आठ-दस महीने का एक बच्चा घुटनों के बल रेंग रहा था. वो हवा भरे रबड़ के बबुए को अपनी नन्ही हथेलियों में भर लेना चाहता था. एक कोने में बांस के हिंडोले में एक बच्ची गला फाड़कर रो रही थी. अधेड़ औरत एक हाथ से हिंडोले को और दूसरे हाथ में झुनझुना हिलाती हुई उसे पुचकार रही थी.
नेक औरत है देबू को ऐसे ही दुलार करती होगी उसने सोचा और दीवार की ओर मुंह करके चटाई पर बैठकर देबू को छाती से लगा लिया. दस मिनट में ही वो तृप्त हो गया.
उसने थैले से एक छोटा आईना निकालकर रुमाल के कोने से आंखों और होठों से नीचे बह आए काजल और लिपस्टिक को पोंछ दिया. अस्त व्यस्त हो गए बालों में उंगलियों की कंघी फिराकर चेहरे पर पाउडर पफ की एक और परत चढ़ा ली. दिवाकर सेठ हर बात में खुचड़ निकलता है. "ऐसे नाय चलेगा सेल्स गर्ल को स्मार्ट दिखना चाहिए." उसने देबू की दिन भर की जरूरत का सामान तख्त पर रख दिया. मगर जाने क्यों रबड़ की चाबियां निकालते निकालते थैले में वापस छोड़ दीं.
पौन घंटा देर... 
दिवाकर सेठ कुढ़ रहा होगा.
उसने तेज कदमों से दुकान का रास्ता पकड़ लिया.
'परफेक्ट इनरवियर्स' .
दस बाई बीस की अच्छी-खासी सुसज्जित दुकान थी. अंदर कदम रखते वक्त उसने अपने चेहरे पर जमाने भर की दीनता और बेचारगी को पसर जाने दिया. उसने देखा रमला और निवेदिता अपनी जगह पकड़ चुकी हैं.

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साफ चमकते काउंटर के एकदम बीचोंबीच दिवाकर सेठ की रिवॉल्विंग कुर्सी थी या लेडीज-जेंट्स को तकसीम करने वाला एक विभाजन बिंदु. कुर्सी के दोनों ओर मर्दाना और जनाना डमी थी. मर्दाना डमी पर V शेप का नीला जांघिया और जनाना डमी पर उन्नाबी रंग की ब्रेसियर-पैंटी. कुर्सी के सामने काउंटर पर कैलकुलेटर और कंप्यूटर बेजरूरत ही रखे थे. क्योंकि दिवाकर सेठ को उनसे कोई सबब न था. वो मगज का शक्की और हिसाब का पक्का ऐसा शख्स था जिसे अपने अतिरिक्त और किसी पर यकीन न था.
उसे अंदर दाखिल होते देख जुगाली करते हुए वो बाहर निकला और बेस्वाद हो चुके पान को पिच्च से एक कोने में थूक दिया.
"कोयट्टा बाजे?" वो घड़ी की ओर इशारा करके गुर्राया.
सूखे होंठों पर जुबान फिराकर उसने किसी तरह कहा.
"ग्यारह ."
वो सोच चुकी थी इन दिनों बुखार का बहाना ही ठीक होगा.
"दद्दा... आमार ज्वॉर छिला."
माकूल वजह सुनकर भी सेठ गुर्राता रहा.
"तुमी की भाभछा आमी बोका... . चाकरी छोड़े घोरे बोशो."
उसने चप्पलों के भीतर अपने पांव सिकोड़ लिए. और अपना कंठ छूकर कहा.
"शोत्ति दद्दा." 
दिवाकर सेठ ने उसे अनसुना कर एक भरपूर जम्हाई ली तो उसके दांतों की विकृति साफ नजर आने लगी. उसने नीम उपेक्षित भाव से कहा "ताले सौंध्या एक्स्ट्रा टाइम दुइ."
फरमान सुनकर उसे अपना दिल डूबता सा महसूस हुआ. कि अब शाम की लोकल में भी उससे मिलने की उम्मीद नहीं.
निवेदिता ने मुस्कराकर उसकी तरफ देखा तो उसे उसकी मुस्कराहट जहर की तरह लगी. निवेदिता उसे बहुत कुटिल और भौंडी सी लगती है. गहरी काट का गला और सीने में जबरन पैदा किया औचक नुकीलापन. उसे नजरअंदाज कर वो चुपचाप काम में जुट गई ये सोचते हुए कि शाम तक कोई जुगत लगाकर निकल लेगी.
कभी-कभी ये नौकरी उसे बहुत पकाऊ लगती है. सनक की हद तक औरतों की बेजा फरमाइशें. किसी को बैंगनी धरती पर सफेद फूल चाहिए, किसी को गुलाबी पर नीली बुंदकियां. किसी को सी थ्रू, किसी को पैडेड. सब की सब उसे बीमार लगती हैं. एक ने तो हद ही कर दी जब उसे घूरते हुए कहा "तुम्हारा ब्रांड कौन सा है... वही दिखाओ." उसे बड़ा क्रोध आया कि ब्रांड में क्या रक्खा है...
दिन भर यहां खाने तक की फुर्सत नहीं. काउंटर के पीछे छिपे-छिपे बस  किसी तरह ठूंस लो. चार बजे ढाई इंची के डिस्पोजेबल में मटमैली सी चाय और दो टिक्कड़ से बिस्कुट. या कभी दिवाकर सेठ बहुत खुश हुआ तो तेल में डूबा एक सिंघाड़ा.
सांझ तलक उसकी पिंडलियां दुखने लगती हैं. पीठ में अकड़न की एक तेज लहर सी उठती है. मगर उस भले आदमी को सोचते ही वो किसी अनिवर्चनीय खुशी से भर जाती है. एक मखसूस चेहरे पर उसकी देह, मन, बुद्धि सब दांव पर लगे हैं.
आज वो आपे में नहीं थी. हालांकि चौकोर खानों में डिब्बे पर डिब्बे जमाते उसके हाथ वहीं थे. एक से दूसरे पर थके हुए समूचे जिस्म का भार डालते उसके पांव वहीं थे. सनक भरी फरमाइशों पर झूठ-मूठ मुस्कुराते होंठ वहीं थे. डिब्बों पर वांछित रंग और नंबर खोजती आंखें वहीं थीं मगर औघड़ मन कहीं और रमा था. वो कभी प्लेटफॉर्म पर, कभी लोकल में और कभी सपने की उस लंबी अकेली सड़क पर भटक रहा था.
सात बजते ही उसने कातर स्वर में कहा 'दद्दा एबार आमी जेते दाओ."
किंतु दिवाकर सेठ अपने फरमान पर दृढ़ था. उसने उसकी दरख्वास्त को कोई तवज्जो न दी और उसे अनसुना करके जमा-घटा करते हुए घुटनों पर रखे रजिस्टर के नीचे बदस्तूर अपनी रानें खुजाता रहा. उस समय वो उसे अपनी प्रेम कहानी के खलनायक की बजाय किसी खुजलिहा कुत्ते की तरह जान पड़ा.

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दुकान छोड़ते वक्त उसका सारा जिस्म टूट रहा था. नखशिखांत एक स्तब्ध थकान. जैसे बुखार आने को हो. गठीले बदन का सारा करारापन ढुलमुला रहा था. उससे न मिल पाने की नाउम्मीदी ने मन को भी तोड़ दिया था. वो सुस्त कदमों से चलती हुई स्टेशन पहुंची. मन में किसी के मिल जाने की ललक न थी. ट्रेन पकड़ लेने की कोई जल्दी न थी. छूट भी गई तो क्या... दूसरी मिलेगी.
इस समय काजल उसकी आंखों में कीचड़ की तरह पड़ा था. दिन भर बगलों ने जो पसीना उगला था वो नीले ब्लाउज पर धब्बे बनकर बेतरतीब नक्शों सा उभर आया था. गर्दन पर टैल्कम पाउडर, गर्द और पसीने के मेल से धारियां बन गई थीं. बस गनीमत थी कि देबू को बुखार नहीं चढ़ा था. मगर वो बुरी तरह चिड़चिड़ा रहा था. ट्रेन छूटने में थोड़ी देर थी. खिड़की वाली जगह आसानी से मिल गई थी. देबू अपनी नन्ही अंगुलियों से जूट के थैले पर टंकी सीपियों और कौड़ियों को उखाड़ लेने की मशक्कत कर रहा था. छत पर लगे पंखे की कोई पंखुड़ी टेढ़ी होकर शोर कर रही थी. खिटर खिटर... खिट्ट खिट्ट...
उसने खिड़की के सहारे सिर टिकाकर अपनी श्रान्त आंखें मूंद लीं. 


लोकल अपनी रफ्तार कम कर रही थी. थोड़ी देर में वो उतर जाएगा. उसका जी हो रहा था वो उसे झिंझोड़ दे वो ऐसा क्यों कर रहा है. देबू का रुदन अब असहनीय था. उसका सारा सम्मोहन टूट गया, उसने देखा उसका प्रेमी अगली सीट पर बैठी एक लजीली सी औरत को बड़े एहतियात से सहारा देकर भीड़ से निकाल रहा था. उसकी मांग में ढेर सिंदूर था और हाथ में शंख चूड़ा. वो पेट से थी. उसकी तरफ बिना किसी तवज्जो के वो यूं उतर गया जैसे उसे जानता ही नहीं.


जाने कब आंख लग गई. और जब खुली तो देबू जोर से उसकी छाती पर अपनी उंगलियां और मुंह मार रहा था. खतरा भांपकर वो घबरा गई. ट्रेन खचाखच भर चुकी थी. पंखा लगातार शोर कर रहा था. उसने चारों तरफ देखा. अचानक आंखों में बिजली सी कौंध गई. वो उससे दो हाथ के फासले पर पीठ किए खड़ा था. जिसके बारे में उसका ख्याल था कि वो उसका प्रेमी है. जिसकी आवाज सपने में उसे रोज पुकारती है. खुशी के अतिरेक से उसकी देह कांप गई. वो उसके इतने करीब था कि वो हाथ बढ़ाकर उसे छू सकती थी. उसका जी हुआ उसे छूकर पूछे "कल से कहां थे?" देबू का रुदन और हमले तेज होने लगे थे. मगर अब उसे फिक्र क्यों हो. वो चट से सब संभाल लेगा. उसके लिए कुछ मुश्किल नहीं. 
देबू जोरों से चिंघाड़ने लगा था. इस समय रबड़ की चाबियां उसे बहलाने को नाकाफी थीं. वो उसकी छातियां टकोर रहा था. वांछित चीज न मिलने पर उसने अपने बालों को मुट्ठी में जकड़ लिया था. रोते-रोते उसका बदन ऐंठने लगा था. मगर उद्धारक पीठ किए खड़ा था. उसे हुआ क्या है! जरूर ही वो नाराज है. कल उसे न पाकर वो उदास हो गया होगा. उसी का गुस्सा दिखा रहा है. सोचकर उसे और अच्छा लगा. वो अविरल उसे ताक रही थी. एक बार आंखें मिले और वो आंखों-आंखों में सारे गिले-शिकवों की माफी मांग ले. कि अब ये नाराजगी छोड़ भी दो. ऐसी भूल फिर नहीं होगी.
देबू बेकाबू हो रहा हो रहा था. अब रोते-रोते गोद से बाहर निकला जा रहा था. उसका चेहरा लाल पड़ गया था. क्या ये सब वो नहीं देख रहा है! उसकी हर एक हरकत को पकड़ लेने वाला उसका मसीहा इतना उदासीन क्यों है. कैसी गुत्थी है. उसे अपनी सांस भारी होने लगी. इतना गुस्सैल! उसकी आंखें बरसने को हो आईं. बैरकपुर करीब ही था.
लोकल अपनी रफ्तार कम कर रही थी. थोड़ी देर में वो उतर जाएगा. उसका जी हो रहा था वो उसे झिंझोड़ दे वो ऐसा क्यों कर रहा है. देबू का रुदन अब असहनीय था. उसका सारा सम्मोहन टूट गया, उसने देखा उसका प्रेमी अगली सीट पर बैठी एक लजीली सी औरत को बड़े एहतियात से सहारा देकर भीड़ से निकाल रहा था. उसकी मांग में ढेर सिंदूर था और हाथ में शंख चूड़ा. वो पेट से थी. उसकी तरफ बिना किसी तवज्जो के वो यूं उतर गया जैसे उसे जानता ही नहीं. उसका कलेजा धक्क रह गया. कुछ देर को उसकी देह और दिमाग सब कुंद हो गए. देबू बदहवास हो रहा था. उसकी सांस चढ़ने लगी थी. लोग उसे अजीब नजरों से घूर रहे थे. अचानक उसने देबू को कसकर अपनी गोद में भींच लिया. उसकी नसें सख्त हो गईं उसने पल्लू फैलाकर एक पल में ब्लाउज के हुक खोल दिए. देबू नदीदा सा छाती से चिपट गया. अब उसके लिए जैसे वहां कोई न था. उसे किसी की शर्म न थी. उसके कानों में कोई आवाज न थी. न पंखे की खिट्ट-खिट्ट न भीड़ की किच-किच, न उसे पुकारती कोई आवाज. बस दहाड़े मारता हुआ देबू था और वो थी. वो थी और देबू था. रबड़ की चाबियां मुट्ठी में फिजूल सी पड़ी थीं. उसने खिड़की से बाहर हाथ निकाला और मुट्ठी खोल दी.
देबू के बालों को सहलाते हुए वो सोच रही थी आज सुरंजन को एक लंबा सा कॉल करेगी और पूछेगी "वापस कब आओगे?"

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DNA Katha Sahitya Vijayashree Tanveers story Anupama Ganguly ka chautha pyar
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DNA Katha Sahitya: विजयश्री तनवीर की कहानी 'अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार'
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DNA Katha Sahitya: विजयश्री तनवीर की कहानी 'अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार'

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