डीएनए हिंदी : बिहार की राजधानी पटना में रहनेवाली अर्चना सिन्हा पेशे से आयुर्वेद की डॉक्टर हैं और स्वभाव से कवि और कथाकार. इनकी कहानियों के केंद्रीय पात्र मध्यवर्गीय स्त्रियां होती हैं. ये स्त्रियां ऐसी होती हैं जो विचार करना जानती हैं, तर्क करना जानती हैं, जिरह करना जानती हैं, अपनी भावनाएं नियंत्रित करना या उन्हें मार देना जानती हैं. इन स्त्रियों के इन त्याग और समर्पण पर हमारा पुरुष समाज गर्व कर सकता है. कह सकता है कि ये स्त्रियां लोक लाज की रक्षा करना जानती हैं. इन स्त्रियों की अंतर्कथाएं 'मत जाओ नीलकंठ' कहानी संग्रह में प्रकाशित है.
प्रस्तुत कहानी भी ऐसी ही एक स्त्री की कहानी है जिसने अपने प्रेम को अपने प्रेमी की इच्छा के सामने कुर्बान कर दिया. लेकिन कोरोना बीमारी के दुर्योग के बीच अजब संयोग बना कि कोरोना पेशेंट हुई प्रेमिका और उसके पति का इलाज डॉक्टर बने पूर्व प्रेमी ने जी-जान से किया. यह अलग बात है कि इस कहानी की स्त्री ने अपने पूर्व प्रेमी से कोई शिकायत नहीं की. स्वस्थ होकर शुक्रिया कह विदा लिया. लेकिन जब इस पूर्व प्रेमी डॉक्टर खुद कोरोना का शिकार होता है और उसे प्लाज्मा की जरूरत पड़ जाती है तो वह पूर्व प्रेमिका प्लाज्मा डोनेट कर चुपचाप लौट जाती है. कथाकार अर्चना सिन्हा पाठकों पर छोड़ देती हैं कि वो तय करें यह किसकी अपराधमुक्ति है.
अर्चना सिन्हा की कहानी 'अपराधमुक्ति'
डॉक्टर मनीष शर्मा अब अपने केबिन में अकेले थे. साथी डॉक्टर उनकी स्थिति का मुआयना कर के जा चुके थे. वैसे उनका मुआयना कोई क्या करता, वो तो खुद ही शहर के ख्यातिलब्ध डॉक्टर थे. अपनी स्थिति बहुत अच्छी तरह समझ रहे थे. कल रात उनका ऑक्सीजन लेबल अचानक 70 पर आ गया था जो ऑक्सीजन सिलिंडर लगाए जाने के बाद भी 79 पर ही था. और यह अच्छा संकेत नहीं था.
एक सप्ताह पहले उन्हें अचानक बुखार और सिर दर्द के साथ हल्की खांसी आने लगी तो उन्हें संदेह हुआ. टेस्ट कराया तो कोरोना पॉजिटिव निकला. किसी को आश्चर्य नहीं हुआ था. वो लगातार कोरोना वार्ड में ड्यूटी कर रहे थे. लाख सावधानी बरतने पर भी संक्रमण का खतरा तो था ही. उनकी पत्नी सुगंधा का भी टेस्ट पॉजिटिव था. दोनों पति-पत्नी घर में ही क्वॉरंटीन हो गए. लेकिन कल रात उन्हें सांस लेने में दिक्कत होने लगी तो हॉस्पिटल में एडमिट हो गए. इसी हॉस्पिटल में कार्यरत थे इसलिए सारी सुविधाएं उपलब्ध हो गईं.
सहकर्मियों के जाने के बाद कुछ देर मनीष यूं ही अन्यमनस्क से पड़े रहे. चाह रहे थे कुछ भी नेगेटिव ना सोचें लेकिन दुश्चिंताएं थीं कि दिमाग से जाने का नाम नहीं ले रही थीं. मन बांटने के लिए उन्होंने मोबाइल उठा लिया और सुगंधा से बातें करने लगे. उसकी तबीयत में सुधार जान कर थोड़ा संतोष हुआ. दो चार वाक्य बच्चों से भी बातें कर लीं. उन्हें ना घबराने और ठीक से रहने की हिदायत दी. फिर व्हाट्स ऐप पर कुछ देर रिश्तेदारों और दोस्तों से बातें कीं और मोबाइल रखने ही जा रहे थे कि वापस कॉनटैक्ट्स पर आ गए. एक नाम ढूंढ़ा 'विकास उपाध्याय एम' और देर तक उसे देखते रहे. यह नाम उनके लिए महज एक नाम नहीं, एक कहानी था. एक ऐसी कहानी जिसे वो भूल चुके थे लेकिन जो पिछले महीने ना जाने किस अनजानी किताब से निकलकर उसके सामने आ गई थी जिसे वो बंद नहीं कर पा रहे थे. इन दिनों प्राय: इस नाम को निकाल कर देखते और रिंग कर लेने की चाहत से लड़ते. ऐसे तो इस विकास उपाध्याय नाम में कुछ विशेष नहीं था, जो कुछ था वो उसके साथ लिखे 'एम' में था. 'एम', जिससे उनका नाम आरम्भ होता था और होता एक और भी नाम - मनीषा.
मनीष की आंखों के सामने एक गोल चेहरा, उस पर जड़ी दो बड़ी-बड़ी काली आंखें और पीठ पर झूलती एक मोटी लंबी चोटी वाली दुबली-पतली आकृति खड़ी हो गई. उन्होंने एक सांस ले कर मोबाइल रख दिया और आंखें बंद कर लीं.
रोज की तरह डॉक्टर मनीष राउंड पर थे. वो उन डॉक्टरों में से थे जो चिकित्सा को अपना पेशा नहीं धर्म मानते थे. यही कारण था कि इस कोरोना काल में भी उनका मरीजों को उनके बेड पर जाकर देखने का कार्यक्रम बदला नहीं था. उसी क्रम में आज भी वो मरीजों का हालचाल लेते हुए बेड नंबर ग्यारह पर आए थे. मरीज का नाम था मनीषा उपाध्याय. उन्होंने चार्ट देखते हुए मरीज से उसकी हालत पूछी जिसका उत्तर उसने सिर्फ सिर हिला कर दिया. ''शीघ्र ठीक हो जाइएगा'' का आश्वासन दे कर आगे बढ़ गए. अगले बेड पर भर्ती मरीज का नाम विकास उपाध्याय देख कर सहज ही पूछ बैठे, ''आप दोनों रिलेटिव हैं क्या?''
''जी सर. पति-पत्नी हैं.'' विकास ने हाथ जोड़ते हुए कहा.
''अच्छा, अच्छा. कोई ज्यादा परेशानी तो नहीं है ना?"
''बुखार नहीं उतर रहा है. बहुत कमजोरी भी लग रही है. खांसी भी बहुत हो रही है." उसने थोड़ा हांफते हुए कहा.
''आपने हॉस्पिटल आने में थोड़ी देर कर दी. बीमारी थोड़ी गंभीर हो गई है. ऐसे घबराने की कोई बात नहीं है. ठीक हो जाइएगा. थोड़ा टाइम लग सकता है. ज्यादा घबराहट लगे तो उठ कर बैठ जाया कीजिए और जोर से सांस लीजिए. आराम होगा." कुछ और हिदायत दे रहे थे जब उन्होंने महसूस किया कि बगल के बेड पर बैठी उस पेशेंट की पत्नी उन्हें एकटक देख रही है. उन्होंने मुड़ कर देखा तो यह देखकर विस्मित रह गए कि आखें मिलने पर भी उस महिला ने पलकें झुकाईं नहीं बल्कि उन्हें देखती ही रही. पीपीई किट पहने, मास्क और शील्ड से ढके चेहरे में सिर्फ आंखें ही दिख रही थीं, फिर वो पता नहीं क्यों उन्हें देख रही थी. कुछ था उसकी आंखों में जो उस समय उनकी समझ में नहीं आया था. नर्स को हिदायत दे कर मनीष आगे बढ़ गए थे लेकिन वो आंखें उनके मन के किसी कोने में अटक गईं. अपने चेंबर में लौटने के बाद जब थोड़ा एकांत उन्हें मिला तो उन्हें उस महिला का एकटक देखना याद आया. 'वो लेडी मुझे ऐसे क्यों देख रही थी? क्या मुझे जानती है? मुझे भी ऐसा क्यों लग रहा है जैसे मैंने उसे देखा हो कहीं. क्या नाम था उसका?' उन्होंने उसका नाम याद करने की कोशिश की लेकिन नाम याद नहीं आया तो उसका ख्याल दिमाग से झटक दिया और शेष काम निबटाने लगे थे.
उस दिन स्कूल की प्रार्थना में लड़कियों की लाइन में एक नई लड़की थी. लंबा कद, गोरा रंग, गोल चेहरे पर थोड़ी सी मोटी नाक और खूब बड़ी-बड़ी आंखें, लेकिन चेहरा बहुत उदास था. पंद्रह वर्ष के मनीष को वह चेहरा बहुत भला लगा था.
डॉक्टर मनीष घर निकलने की तैयारी कर रहे थे जब उन्हें सूचना मिली कि कोविड वार्ड के बेड नंबर बारह के मरीज का ऑक्सीजन लेबल गिर रहा है और हॉस्पिटल में ऑक्सीजन सिलिंडर खत्म हो गया है. उन्होंने जाकर देखा तो मरीज बुरी तरह हांफ रहा था और उसकी पत्नी अपनी बीमारी भूल कर उसकी पीठ सहला रही थी. उन्हें देखकर वह हट गई. मनीष मरीज को चेक करने लगे. इंजेक्शन और दवाओं की आवश्यकता थी.
''कोई अटेंडेंट है आपलोगों के साथ?" उन्होंने दवा लिखते हुए उससे पूछा. उसने खुद उत्तर ना दे कर पति को देखा.
''जी. बेटा है." विकास ने हांफते हुए ही उत्तर दिया.
''तो उसे इन मेडिसिन्स को लाने के लिए बोल दीजिए." उन्होंने कहा और पेशेंट को देखने लगे. उसकी पत्नी ने बेटे को फोन लगाया.
''मन्नू." नाम सुन कर मनीष ने मुड़ कर उसे देखा. यह उनकी स्वभाविक प्रतिक्रिया थी. मन्नू उनके बचपन का नाम था. उनकी आंखें उसकी आंखों से मिलीं.
''दवाई लाबे के छे बेटा." महिला ने उनकी आंखों में देखते हुए फोन पर कहा. डॉक्टर मनीष की स्मृति में अचानक कुछ कौंध गया. वो अंदर से सहम गए.
''कहां के रहने वाले हैं आपलोग? मिथिला साइड से हैं क्या?" उन्होंने स्वर को सहज रखते हुए पूछा.
''जी सर. मिथिला के ही हैं." उत्तर फिर पति ने ही दिया.
''कौन सा गांव?"
''सुपौल के हैं सर. आप भी उधर के ही हैं क्या?" उसने आशा से पूछा.
''नहीं. मेरा गांव तो नरकटिया गंज है. लेकिन सुपौल में मेरी बुआ का ससुराल है."
''अरे! नरकटिया गंज तो इनका नानी घर है." उसने उत्साह से कहा.
''अच्छा? किनके यहां?" तेज होती धड़कनों के बीच उन्हें स्वर को सामान्य बनाए रखने का प्रयत्न करना पड़ा.
''नाना जी तो इनके गुजर गए. मामा हैं, विशुन देव मिश्र."
''अच्छा? याद पड़ता है हमारे घर से आगे पड़ता था उनका घर. अभी जीवित हैं विशुन देव जी? बहुत बूढ़े हो गए होंगे?"
''जी बूढ़े तो हो गए हैं लेकिन हैं." डॉक्टर के अपनी तरफ का होने के उत्साह में मरीज की तबीयत में थोड़ा सुधार हो गया था.
''चलिए, अच्छा लगा आपलोगों के बारे में जान कर. अब आपको ठीक लग रहा है थोड़ा?"
''जी डॉक्टर साहब. थोड़ा ठीक तो लग रहा है."
''ठीक है. आराम कीजिए अब. दवा आती है तो भिजवा देता हूं. नर्स समझा देगी कैसे खाना है." कहकर मनीष मुड़ गए, बिना बगल के बेड पर बैठी महिला को देखे क्योंकि अब उन्हें पता था उन्होंने उन आंखों को कहां देखा था. और उन आंखों से आंखें मिलाने का साहस नहीं था उनमें.
उस दिन स्कूल की प्रार्थना में लड़कियों की लाइन में एक नई लड़की थी. लंबा कद, गोरा रंग, गोल चेहरे पर थोड़ी सी मोटी नाक और खूब बड़ी-बड़ी आंखें, लेकिन चेहरा बहुत उदास था. पंद्रह वर्ष के मनीष को वह चेहरा बहुत भला लगा था.
'देखें प्रार्थना के बाद किस क्लास में जाती है. पीछे की तरफ तो ऊंची क्लास के ही स्टूडेंट लगते हैं. उस हिसाब से तो नाइंथ या टेंथ की होनी चाहिए.' सोचते हुए वह लाइन में लग गया.
लड़की सचमुच दसवीं क्लास की ही थी. कक्षा में जब सब अपनी जगह पर बैठ चुके थे तो वह क्लास टीचर के साथ आई. उन्होंने उसे लड़कियों की तरफ भेज दिया. वह जाकर चुपचाप सबसे पीछे की खाली बेंच पर बैठ गई. क्लास टीचर ने एक बार उसे देखा और फिर उपस्थिति रजिस्टर खोलने लगे.
नाम पुकारे जाने लगे. मनीष को पता था एक वही नहीं सभी नई लड़की का नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे. मास्टर साहब सबका नाम पुकार कर रुके, सिर उठाकर उसे देखा. वह उन्हें ही देख रही थी. उन्होंने पुकारा,
''मनीषा पांडेय?"
''उपस्थित सर." एक बहुत धीमी आवाज आई.
''मनीष, तेरे नाम का स्त्रीलिंग रूप." बगल में बैठे कपिल ने मनीष को कुहनी मारी.
''चुप." मनीष ने घुड़का. फुसफुसाहट पर मास्टर जी उन्हें देखने लगे थे. लेकिन कपिल की बहुत धीरे से कही हुई बात क्लास खत्म होते-होते सारे लड़कों को सुनाई पड़ चुकी थी. क्लास खत्म कर जाते हुए मास्टर जी लड़कियों को मनीषा को अपने साथ बैठाने और दोस्ती करने के लिए कह गए. अलग से दी हुई इस हिदायत पर मनीष चौंका था, 'कुछ बुरा हुआ है इसके साथ क्या? बीच सेशन में एडमिशन और ऊपर से इतनी उदास?"
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जल्द ही सबों को मनीषा की कहानी पता चल गई. उसका पूरा परिवार, मम्मी-पापा और छोटा भाई, सब एक शादी से लौटते हुए बस एक्सीडेंट में मारे गए थे. वैसे तो मनीषा भी उसी बस में थी लेकिन वह गांव की किसी महिला के साथ उनलोगों से दूर बैठी हुई थी. वो अपने सहयात्रियों के ऊपर लद जाने के कारण बच गई.
मनीषा की मां गीता का मायका, मतलब किशुनदेव या कृष्णदेव मिश्र का परिवार बहुत संपन्न था. उनके बड़े बेटे विष्णुदेव तो खेती-बाड़ी ही देखते थे लेकिन उनके दोनों छोटे भाई शहर में बहुत अच्छे पदों पर नौकरी कर रहे थे. परिवार अभी एकजुट ही था. हर पर्व-त्यौहार पर दोनों भाई सपरिवार गांव आते थे. गीता अपने तीनों भाइयों की अकेली बहन थी और सबकी बहुत लाडली थी. बहन-बहनोई की मृत्यु के बाद वे लोग मनीषा को उसी समय ले आना चाह रहे थे लेकिन उस समय वह दसवीं में थी तो उसे परीक्षा तक वहीं चाचा-चाची के पास रहने दिया गया. मनीषा शीघ्र ही अपने चाचा-चाची की आंखों में खटकने लगी. चाचा खुद तो कुछ नहीं बोलते लेकिन चाची की अनावश्यक डांट-फटकार और कटूक्तियों का कोई विरोध भी नहीं करते थे. चाची तो स्पष्ट ही बोलने लगी थीं कि वो दोनों तो मर गए, यह मुसीबत हमारे सिर पर मढ़ गए. कारण था संपत्ति के एक दावेदार का जीवित रह जाना.
विशुनदेव एक बार मनीषा से मिलने गए तो उन्हें उससे अकेले में मिलने नहीं दिया गया, लेकिन मनीषा का चेहरा देख कर सारी बातें उनकी समझ में आ गईं. लौटकर उन्होंने पिता और भाइयों से मंत्रणा की. मनीषा के गांव के सरपंच का साला मनीषा के छोटे मामा के दफ्तर में कर्मचारी था. उसके माध्यम से गांव में पंचायत बुलाई गई और आधी संपत्ति मनीषा के नाम लिखवा कर, स्कूल से टीसी दिलवा कर उसे यहां ले आया गया.
कृष्ण देव मिश्र की पत्नी भली महिला थीं. उन्होंने मनीषा का स्नेह से स्वागत किया. ऐसे भी कृष्ण देव की बेटी का विवाह हो चुका था और घर में एक बेटी की जगह खाली थी. तो अब मनीषा यहां स्कूल में पढ़ने आ रही थी.
कृष्ण देव का घर मनीष के घर से दो मोड़ पीछे था तो मनीषा के स्कूल जाने का रास्ता वही था. हालांकि कृष्ण देव का बेटा भी उसी स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ता था, फिर भी मनीषा को छोड़ने और लाने कृष्ण देव खुद आते थे. शायद इसके पीछे मनीषा को अकेले नहीं छोड़ना कारण था, क्योंकि वह बहुत उदास रहती थी और उसका नाना परिवार यह नहीं चाहता था कि उसे जरा भी इसका एहसास हो कि उसके ऊपर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
मनीष की चचेरी बहन चंचल आठवीं कक्षा में थी, वह भी मनीष के साथ स्कूल जाती थी और अपने नाम के अनुरूप ही बहुत चंचल भी थी. उसने आते-जाते बहुत जल्दी मनीषा से दोस्ती कर ली. अपनी सहपाठिनों से अलग होते ही वह मनीषा के साथ चलने लगती. मनीषा बोले-न-बोले, उसे कोई अंतर नहीं पड़ता था. ''दीदी ए मैडम ऐसी तो वो मैडम ऐसी", वह रास्ते भर कुछ-कुछ बोलती रहती. धीरे-धीरे मनीषा की भी जड़ता टूटी और वह उसकी बातों में रुचि लेने लगी. मनीष भी कभी उन दोनों के पीछे तो कभी कृष्ण देव के साथ चलता रहता. धीरे-धीरे कृष्ण देव ने मनीषा के साथ आना बंद कर दिया और वह अपने ममेरे भाई, चंचला और मनीष के साथ स्कूल आने-जाने लगी.
इस आने-जाने के क्रम में मनीष और मनीषा कब आपस में बातें करने लगे यह उन्हें भी पता नहीं चला. चंचला के आग्रह पर मनीषा धीरे-धीरे उसके घर आने लगी और शीघ्र ही मनीष की मां के वात्सल्य का केंद्र बन गई. मातृ-पितृ विहीन इस बालिका पर मनीष की मां ने ही नहीं मनीष के पूरे परिवार ने स्नेह बरसाया. मनीष की मां तो मन-ही-मन उसे अपनी पुत्रवधू के रूप में भी देखने लगीं. धीरे-धीरे पूरा परिवार उनकी इस इच्छा से परिचित हो गया. जाति एक, लड़की और परिवार भी ठीक तो किसी को ऐतराज भी नहीं था. शीघ्र ही यह खबर स्कूल में भी पहुंच गई और मनीषा का नाम मनीष की मनीषा में बदल गया.
देखते-देखते दोनों मैट्रिक पास कर के ग्यारहवीं में आ गए. अब तक पूरे गांव को दोनों परिवारों की रजामंदी की खबर हो चुकी थी. दोनों कभी अकेले भी साथ-साथ स्कूल जाते दिख जाते तो कोई कुछ नहीं बोलता बस मुस्कुरा कर रह जाता. मनीषा भी अब पहले वाली गुमसुम मनीषा नहीं रह गई थी. उसकी आंखों में चमक और होठों पर हल्की सी मुस्कान रहने लगी थी. पर्व-त्यौहार में जब सजधज कर मनीष के घर जाती तो मनीष की मां उसकी नजर उतारने लगती और मनीष परदे के पीछे छुप कर उसे निहारता. दोनों कभी-कभी अकेले में भी बैठ के बातें करते. भावी जीवन की कितनी कल्पनाएं, कितने वादे!
मनीष की लोकप्रियता के दायरे में लड़के ही नहीं लड़कियां भी थीं. इन्हीं लड़कियों में एक सुगंधा भी थी. घने कटे बालों, भूरी आंखों वाली. दूध जैसे रंग वाली देह से फूटने वाली सुगंध मनीष के मनोमस्तिष्क में कब प्रवेश कर गई, उसे पता भी नहीं चला और थर्ड इयर आते-आते मनीष के दिल में काली आंखों और लंबी मोटी चोटी की जगह भूरी आंखों और घने कटे बालों ने ले ली. उस पर जब सुगंधा ने अपनी सहेलियों के सामने ही उसे 'आई लव यू' कह दिया तो उसके मन में मनीषा की धुंधला चली छवि भी एक झटके से गायब हो गई.
समय बीता और बारहवीं की परीक्षाएं आ गईं. परीक्षा का सेंटर दूसरे गांव में पड़ा था. जाने की तैयारी भी लगभग हो चुकी थी लेकिन उसके चार दिन पहले मनीषा की मामी को तेज बुखार हुआ. जांच कराने पर टायफॉयड निकला. डॉक्टर ने उन्हें बेड रेस्ट कह दिया. मनीषा पर घर का भार आ गया. नाना मामा ने कहा, ''जाने दे बेटी. अगले साल परीक्षा दे देना." मनीषा के सामने और कोई रास्ता नहीं था. मामी ने उसका ख्याल एक मां की तरह ही रखा था, अब उसकी बारी थी.
बारहवीं में मनीष के बहुत अच्छे अंक आए थे. उसे डॉक्टर बनने की इच्छा थी सो उसे कोचिंग के लिए पटना आना पड़ा. वह पहले ही कॉम्पिटीशन में सफल हुआ और उसे पटना का सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज पीएमसीएच मिल गया. और यहीं से शुरू हुआ मनीष और मनीषा के जीवन का दूसरा मोड़.
कोचिंग के लिए उसे विदा करते समय मनीषा का दिल धड़का नहीं था लेकिन अब आगे पढ़ने के लिए उसे विदा करते हुए वह बहुत रोई थी. शायद उसे भविष्य का अंदेशा हो रहा था.
शहर के रंग और मिजाज से तो मनीष कोचिंग के समय से ही परिचित हो गया था लेकिन इस बार मेडिकल कॉलेज के जीवन ने उसे बदल ही डाला. अपनी पढ़ाई के बल पर सहपाठियों में और संस्कारी छात्र के रूप में लेक्चरर, प्रोफेसर के बीच शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया. पहली छुट्टियों में घर लौटने पर उसके पास मनीषा को बताने के लिए बहुत कुछ था लेकिन उस बताने में एक नाम बार-बार आ रहा था, 'सुगंधा'. न जाने क्यों जब-जब उसने यह नाम लिया, मनीषा के कलेजे में एक हूक सी उठी. लेकिन मनीष की निश्छल आंखें देखकर वह इस हूक को झेल गई. मनीष चला गया, मनीषा के मन में भय की एक अनचीन्ही लकीर छोड़कर. उसके पास अपना मोबाइल भी नहीं था. कभी-कभी किसी सहेली को फोन करने के बहाने मामा के मोबाइल से वह मनीष से बातें कर लेती या मनीष के घर गई तो चंचला की कृपा से मनीष से बातें हो जातीं. आरंभ में मुश्किल से मिले इस अवसर पर मनीष देर तक बातें करता लेकिन धीरे-धीरे ''अच्छा अब रखो, बाद में बात करते हैं", की स्थिति आ गई.
उस बार जाड़ों में जब वह लौटा तो विष्णु देव मिश्र ने दबे कंठ से दोनों की शादी की बात चलाई लेकिन इसकी परिणति वही हुई जो होनी थी. 'अभी तो मात्र उन्नीस ही वर्ष का है और जल्दी क्या है'. मनीष के परिवार वालों को पूरी आशा थी कि मनीष उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करेगा.
मनीष की लोकप्रियता के दायरे में लड़के ही नहीं लड़कियां भी थीं. इन्हीं लड़कियों में एक सुगंधा भी थी. घने कटे बालों, भूरी आंखों वाली. दूध जैसे रंग वाली देह से फूटने वाली सुगंध मनीष के मनोमस्तिष्क में कब प्रवेश कर गई, उसे पता भी नहीं चला और थर्ड इयर आते-आते मनीष के दिल में काली आंखों और लंबी मोटी चोटी की जगह भूरी आंखों और घने कटे बालों ने ले ली. उस पर जब सुगंधा ने अपनी सहेलियों के सामने ही उसे 'आई लव यू' कह दिया तो उसके मन में मनीषा की धुंधला चली छवि भी एक झटके से गायब हो गई. उस साल मनीष गर्मियों की छुट्टियों में घर नहीं लौटा. मनीषा के सामने खड़े होने और कुछ कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी उसकी. उसने उसका फोन उठाना एक तरह से बंद ही कर दिया था. कभी उठा भी लेता तो ''बिजी हूं, बाद में बात करता हूं" कहकर रख देता. वह चाहता था कि मनीषा खुद ही सब कुछ समझ ले.
गर्मियों की छुट्टियों में तो मनीष बहाने बना कर शहर में ही रह गया लेकिन नवंबर में उसे कुछ दिनों के लिए गांव आना पड़ा. उसके बड़े चाचा की बेटी की शादी थी और संयुक्त परिवार होने के कारण उस पर शादी में आने का बहुत दबाव था. वह बस चार दिनों के लिए आया और बहुत प्रयत्न कर मनीषा के सामने पड़ने से बचता रहा. एक बार सामना हो जाने पर भी ''कैसी हो?" जैसी बातें ही कीं. बहन की विदाई के बाद वह डरता रहा कि कहीं मनीषा शाम को मिलने न आ जाए. वैसे उसने सोच लिया था कि वह उसे सच बता देगा. बचपन की उस नासमझी के लिए माफ़ी मांग लेगा. लेकिन मनीषा नहीं आई. उसने जो समझाना चाहा था, मनीषा ने वह समझ लिया था. मनीष शहर लौट गया और जाते-जाते चंचला को अपने मन की बात कह गया.
घर में जैसे विस्फोट हो गया. मां तो मां, पापा का भी फोन आ गया लेकिन मनीष नहीं डिगा. उसके पिता ने मनीषा के मामा से हाथ जोड़ कर माफी मांगी और मनीषा के विवाह में हरसंभव सहायता की बात कही लेकिन विष्णु देव उनके पूरे खानदान को धोखेबाज कहकर लौट गए.
मनीषा के लिए लड़का देखा जाने लगा लेकिन पता नहीं कैसे लड़के के परिवारवालों तक मनीष और मनीषा की कहानी पहुंच जाती और रिश्ता टूट जाता. दो-तीन साल गुजर गए. मनीष को एमएस में दाखिला मिल गया और मनीषा का घर से निकलना बंद हो गया. उसके खुद का दुःख और लोगों की घूरती नजरें उसके तन और मन दोनों का लावण्य छीनने लगे. विष्णु देव घबरा गए. उन्होंने हर स्तर पर प्रयत्न तेज कर दिया लेकिन सारा कुछ निष्फल जा रहा था. कुछ मनीषा की छूट चुकी पढ़ाई भी बाधक हो रही थी. दो साल और गुजर गए. जिस साल मनीष की नौकरी लगी उसी साल मनीषा की शादी हो गई. एक सरकारी स्कूल के विधुर शिक्षक से जिसकी एक डेढ़ साल की बेटी थी. यह सारी बातें मनीष को चंचला से पता चलीं जिसे उसने आगे की पढ़ाई के लिए अपने पास बुला लिया था.
और इतने सालों बाद डॉक्टर मनीष की मनीषा के मुलाकात हुई एक मरीज के रूप में, जिसने पूरे इलाज के दौरान एक भी शब्द बात नहीं की थी. शायद आवाश्यकता भी नहीं पड़ी थी. कुछ पूछना होता तो विकास ही उत्तर देता.
जिस दिन मनीष हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हुए, उनके जूनियर डॉक्टर ने उन्हें बताया, ''सर, आपने अपने गांव के जिस पेशेंट विकास उपाध्याय का ट्रिटमेंट किया था, उसकी पत्नी ने ही आपके लिए अपना प्लाज्मा डोनेट किया था और उसके एवज में जो पैसे दिए जाने थे उसे यह कह कर मना कर दिया कि डॉक्टर साहब के बहुत एहसान हैं मेरे ऊपर. मेरे प्लाज्मा से उनकी जान बच जाए, यही बहुत है मेरे लिए."
डॉक्टर मनीष पूरे प्राणप्रण से उन दोनों की देखभाल कर रहे थे. आईसीयू में बेड खाली होते ही विकास को अपना वार्ड बता कर एडमिट करना, ऑक्सीजन सिलिंडर का प्रबंध अपने परिचय पर करना, रेमडेसिविर इंजेक्शन को अपने पैसों से तीन गुने मूल्य पर मंगा कर उनलोगों को उसका वास्तविक मूल्य बताना. हर वो मदद जो मनीषा के स्वभिमान को ठेस पहुंचाए बिना हो सकती थी वह सब. उनलोगों की माली हालत का अनुमान उन्हें हो चुका था. उनकी सहायता को विकास बाबू भले ही नहीं समझ रहे थे लेकिन शायद मनीषा को इसका अनुमान था. जब भी मनीष किसी दवा या इंजेक्शन की व्यवस्था करते, उसका मुंह म्लान हो जाता लेकिन वह कुछ कहती नहीं थी, बस उदास आंखों से सब होता हुआ देखती.
मनीषा तो बहुत शीघ्र ही कोरोना मुक्त हो गई लेकिन विकास को समय लग गया. मनीषा ने उनके साथ रहने की अनुमति मांगी जो बेड की कमी के कारण पूरी नहीं की जा सकती थी. लेकिन उसे अपने पति से मिलते रहने की अनुमति दे दी गई थी. सीनियर डॉक्टर की व्यक्तिगत रुचि लेने के कारण हॉस्पिटल के सभी स्टाफ भी दोनों का बहुत ख्याल रख रहे थे.
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जिस दिन विकास डिस्चार्ज हुए, दोनों पति-पत्नी मनीष से मिलने उनके चेंबर में आए थे. विकास तो कृतज्ञता के मारे दोहरे हो रहे थे. उन्होंने बस उनके पांव ही नहीं छुए बाकी धन्यवाद के जितने शब्द थे सब उन्होंने कह डाले. मनीषा चुप ही रही थी. बस जाते समय पहली बार उसने पलट कर उन्हें देखा और एक शब्द बोली थी, ''शुक्रिया", और चली गई थी. मनीष को यह शब्द अपने अपराध से मुक्ति के प्रमाण पत्र की तरह लगा था.
बेहतरीन चिकित्सा के बाद भी डॉक्टर मनीष की हालत बिगड़ती जा रही थी. यहां तक कि रेमडेसिविर का इंजेक्शन भी कोई विशेष काम नहीं कर रहा था. घबराई सुगंधा ने अखबार में विज्ञापन निकलवा दिया कि कोरोना के वे रोगी जिन्हें ठीक हुए अट्ठाइस दिन हो चुके हैं, कृपया प्लाज्मा दान करें. तीन दिन तक कोई नहीं आया. सुगंधा और हॉस्पिटल के सभी डॉक्टर निराश होने लगे. मनीष के बचने की आशा क्षीण होने लगी थी फिर अचानक एक दिन एक ठीक हो चुका मरीज आया और अपना रक्तदान करके दिए जाने वाले शुल्क को विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर चला गया. प्लाज्मा थेरेपी काम कर गई. डॉक्टर मनीष की सांसें लौटने लगीं.
जिस दिन मनीष हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हुए, उनके जूनियर डॉक्टर ने उन्हें बताया, ''सर, आपने अपने गांव के जिस पेशेंट विकास उपाध्याय का ट्रिटमेंट किया था, उसकी पत्नी ने ही आपके लिए अपना प्लाज्मा डोनेट किया था और उसके एवज में जो पैसे दिए जाने थे उसे यह कह कर मना कर दिया कि डॉक्टर साहब के बहुत एहसान हैं मेरे ऊपर. मेरे प्लाज्मा से उनकी जान बच जाए, यही बहुत है मेरे लिए."
घर लौटते हुए मनीष बहुत चुप थे. सुगंधा ने पूछा, ''इतने चुप क्यों हो? बहुत वीकनेस लग रही है?"
''उस प्लाज्मा डोनर के बारे में सोच रहा था." मनीष ने धीरे से कहा.
''इसमें सोचने वाली क्या बात है? तुमने उन दोनों की इतनी हेल्प की थी. एहसान मानने वाले लोग होंगे. नहीं लिए उन्होंने पैसे. अपराधबोध हो रहा होगा तो मुक्त होने का यही रास्ता मिला उन्हें." सुगंधा ने सहजता से कहा लेकिन मनीष सहज नहीं थे. वो नहीं कह सके कि अपराधमुक्त तो उन्हें होना था.
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