सांझ ढल चुकी थी और आहिस्ता-आहिस्ता स्याही बस्ती पर पसर रही थी. रोशनी के नाम पर लैंपपोस्टों और घरों में रोशन बल्बों का ही सहारा था, अन्यथा बस्ती इतनी लकदक न थी कि आंखें चुंधिया जाएं. वह सन् 1978 का सर्द दिसंबर था. संभवत: दिसंबर का आखिरी हफ्ता. सर्दी नामालूम सी थी और फकत स्वेटर से उससे मोर्चा लिया जा सकता था. हम गुढ़ियारी में थे. यह रायपुर में रेलवे स्टेशन के आगे शहर के उलटी ओर बसी बस्ती थी. रिहायश जहां खत्म होती है, वहीं तालाब था. तालाब के किनारे एक तिकोना तंबू गड़ा था. तंबू जिस बांस की बल्ली पर गड़ा था, उस पर ठुकी कोल पर लालटेन टंगी थी, ताकत भर बजिद अंधेरे से लड़ती हुई. तंबू में जरूरत का घरेलू सामान बिखरा हुआ था : चोट खाया टिन का बक्सा. कुछेक बर्तन. मिट्टी का अस्थायी चूल्हा. थोड़ा-बहुत मेकअप का सामान, जैसे लिपिस्टिक, काजल, पावडर, बिंदी, तेल-कंघी. झींगुरों और मेंढकों की आवाज बेरोक आ रही थी. जब तब रेलपांत से रेल गुजर जाती थी और हां, एक तंबूरा भी वहां चारपाई के सहारे टिका हुआ था.
हम एक श्यामल बरन अच्छे सौष्ठव की, पांच फुट से कुछ इंच ऊपर कद की खुशमिजाज महिला के अस्थायी डेरे पर थे. महिला की आंखों में बला की चमक थी और बात करते हुए वह जब-तब और तीक्ष्ण हो जाती थी. उसके होंठ पान की पीक से लाल थे और दांतों के किनारों पर लाल लकीरें थीं. जाहिर था कि वह पान की शौकीन है. जिस चीज ने सबसे पहले आकर्षित किया, वह था उसका गजब का आत्मविश्वास. झिझक से उसका वास्ता न था. याद पड़ता है कि वह चटख लाल रंग की साड़ी पहने थी, बेमेल ब्लाउज के साथ. चटख बिंदी. चांदी के थोड़े से आभूषण. करीने से काढ़े हुए केश. वह हंसती तो उसके दांत चमकते थे और साथ ही चमकता था उसका बिंदासपन. कोई बात काबिले-दाद होती तो वह बखुद अपनी जांघ पर थाप देकर आनंदित हो लेती थी.
आकाशवाणी से मिला था पहला चेक
तंबू में खटिया पर सामने बैठी इस साधारण छत्तीसगढ़िया औरत का ‘कांफिडेंस-लेवल’ औसत से काफी ऊंचा था और वह बातचीत में बरबस छलकता था. वही हुआ. देखते ही देखते वह लोककला के परिदृश्य में छा गयी. उसने सरहदें लांघी और उसकी ख्याति ने दिशाएं. एक दशक के भीतर वह सेलिब्रिटी थी. सन् 1988 में उसे पद्मश्री से नवाजा गया. फिर तो पदकों की झड़ी लग गयी. यह वह स्त्री थी, जिसने आकाशवाणी से बतौर पारिश्रमिक पहला चेक लिया तो पावती में हस्ताक्षर न कर अंगूठा लगाया था. उस रात गुढ़ियारी में पहला दफा रूबरू हुई यह स्त्री थी तीजनबाई.
आज 66 साल की हो गई हैं तीजन
वह आज भी हमारे बीच हैं. आज 24 अप्रैल को वह 66 साल की हो गई हैं. अब वह दादी मां हैं. उसकी ख्याति भी लंबा सफर तय कर चुकी है. सन् 2003 में उसे पद्मभूषण मिला और सन् 2019 में भारत के महामहिम राष्ट्रपति के हाथों पद्मविभूषण. पद्म पुरस्कारों से उसका सम्मान उस लोक कला का भी सम्मान है, जिसे उसने तमाम तकलीफें उठाकर निभाया. रायपुर में गुढ़ियारी में सर्द दिसंबर में लालटेन की धुंधली रोशनी में लिया गया वह इंटरव्यू उसकी जिंदगी का पहला साक्षात्कार था. इस इंटरव्यू के निमित्त बने थे लोककला मर्मज्ञ निरंजन महावर.इंटरव्यू ‘नवभारत’, रायपुर में छपा था. उसकी कतरन मेरी बेतरतीब फाइलों के जखीरे में कहीं सुरक्षित है. जस की तस तो नहीं, मगर उसकी कही कुछ बातें स्मृति में हैं.
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ख्वाब को ऐसे किया पूरा
तीजन का जन्मगांव इस्पात नगरी भिलाई से अनतिदूर है. जीरोमाइल से 14 किमी दूर गनियारी को अब भिलाई में ही मानिये. पिता चुनुक लाल. मां सुखमती. पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी. जाति की पारधी. उस अंत्यज समाज की जो मूलत: राजपूत समाज से संबद्ध होने के बावजूद जनजातियों में परिगणित है और आखेट तथा पक्षियों को पकड़ने के लिए जानी जाती है. पारधी परिन्दों को पकड़ने के लिए भांति-भांति के जाल या फंदे बुनने में निपुण होते हैं. बहरहाल महाराष्ट्र-गुजरात की अपेक्षा छत्तीसगढ़ में इनकी आबादी कम है. कई दशकों तक जरायमपेशों में शुमार पारधी अब घुमंतू जनजाति है. वे झाड़ू-चटाई, टोकरी आदि अच्छी बना लेते हैं. विडंबना देखिये कि जब जात-बाहर विवाह के कारण तीजन पारधी-समाज से निष्कासित हुई तो यही पेशा गांव के बाहर झोपड़ी बनाकर बर्तन-नाज-मांग-मूंगकर जीवनयापन में उसके काम आया, मगर यह स्थिति ज्यादा दिन तक नहीं रही. कला ने उसे दो जून की रोटी दी, नौकरी दी, सम्मान और प्रतिष्ठा दी और उसे उस पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां तक पहुंचना विपन्न और हत्भाग्य पारधियों के लिए ख्वाब में भी दूभर था.
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विरासत में मिली पंडवानी
तीजन को पंडवानी विरासत में मिली. मातृकुल से. उसके नाना बृजलाल पारधी पंडवानी कहते थे. बालपने में तीजन ने नाना से पंडवानी सुनी और वह उसे कंठस्थ हो गयी. तेरह की वय में समीपवर्ती गांव चंदखुरी में उसे पहली बार पंडवानी गायन का मौका मिला. दक्षिणा या चढ़ावे में मिले दस रुपये उसकी पहली कमाई थी. सवर्ण, विशेषत: ब्राह्मण रुष्ट हुए कि एक तो स्त्री और फिर पारधी होकर पवित्र कथा का वाचन. विरोध, लांछन, वर्जना का दौर चला. तीजन में हठ भी था और भगवान कृष्ण में अटूट भक्ति भी. वे उसके स्वप्न में आते थे. जीवन कष्टों से बिंधा था. पहले पति से अलग हुई. दूसरा पति जालिम निकला. वह अक्सर उसकी पिटाई करता था. तीजन ने पीड़ा-प्रताड़ना सही लेकिन पंडवानी नहीं छोड़ी. पंडवानी में ही उसकी मुक्ति थी, पीड़ा से भी, दैन्य से भी, वर्जनाओं से भी. पंडवानी ही उसे स्याह बोगदे के बाहर उस ठौर ले गयी, जहां खुली हवा थी, रोशनी थी और उसे सराहती हुई एक बड़ी दुनिया थी.
लिया विधिवत प्रशिक्षण
कला कोई भी हो, वह तैयारी या रियाज मांगती है. तीजन ने अपने को तैयार किया, मांजा या परिष्कृत किया और सबसे बढ़कर उसे नवाचारित भी किया. सबलसिंह चौहान की छत्तीसगढ़ी महाभारत कंठस्थ करने के बाद उसने उमेद सिंह देशमुख से विधिवत प्रशिक्षण लिया. पंडवानी पुरुषों के वर्चस्व का क्षेत्र था. बैठकर वाचन की वेदमती शैली उनके उपयुक्त थी, लेकिन तीजन ने इसकी विलोम कापालिक शैली चुनी. अब देखो तो लगता है कि तीजन का चयन सही था. कापालिक शैली में खड़े-खड़े ‘महाभारत’ गायी जाती थी. तबला, खड़ताल, ढोलक, मंजीरा, हार्मोनियम जैसे इने-गिने वाद्य. साथ में तंबूरा. तीजन का बदन दोहरा है. आवाज थोड़ी कर्कश. कहें तो थोड़ा मर्दानापन. तंबूरे से वह कईं प्रयोजन साधती है. वह अर्जुन का बान है और भीम की गदा भी. तीजन वाचिक को आंगिक अभिनय से निखार देती है. माहौल के मुताबिक शब्द चयन में थोड़ा हेर-फेर. वह गायन, नृत्य, प्रलाप, वादन, संवाद और अभिनय से अपना ‘डोमेन’ रचती है और दर्शकों को बांध लेती हैं. चीरहरण और दु:शासन वध उसके प्रिय प्रसंग हैं.उसकी बुलंद आवाज और मंच पर तीव्र पदाघात अलग रस की वृष्टि करते हैं. वह खूब जानती है कि मंच पर नाटकीयता का निर्वाह कैसे किया जाता है.
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निरक्षर हैं, लेकिन जीवन का है पूरा ज्ञान
तीजन निरक्षर हैं. बड़े-बड़े हरूफ में दस्तखत करना उसने सीख लिया है. अनपढ़ होने का उसे मलाल नहीं है. उसके तईं सब प्रभु की माया है. मोरपंखजड़ा तंबूरा उसका वाद्ययंत्र है, आयुध भी और साथी भी. तंबूरा हाथ में आते ही उसमें ओज आ जाता है. सन् 80 के दशक में उस पर रंगकर्मी हबीब तनवीर की निगाह पड़ी. कला-गुरु को कलासाधिका की प्रतिभा चीन्हते देर न लगी. वह भारत महोत्सव में गयी. दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी के सम्मुख उसने पंडवानी प्रस्तुत की. उसे जगह-जगह से न्यौता मिला. दिशायें गौण हो गयीं. वह फ्रांस, जर्मनी, मॉरीशस, तुर्की, रोमानिया, बांग्लादेश और स्विट्जरलैंड गयी ही, माल्टा, ट्यूनीशिया और साइप्रस भी हो आई. फ्रांस उसे सर्वप्रिय है. वहां वह कई बार हो आई हैं. उसके हिसाब से इवनिंग इन पेरिस का जवाब नहीं. पहली फ्रांस यात्रा के बाद उसने ‘आई-ब्रो’ (भौहे) बनाना सीख लिया है. आधुनिक सौन्दर्य प्रसाधन भी उसके जीवन में आ गये हैं. तुलसीराम देशमुख में उसे पति मिला और साथी भी. पेटी (हार्मोनियम) वादक देशमुख उसके कामों में हाथ भी बंटाते थे और उसे साइकिल से भिलाई इस्पात संयंत्र के उसके दफ्तर भी छोड़ आते थे.
'हमारे यहां पढ़ाई का कोई रिवाज न था', तीजन ने कहा था-'मैं पढ़ी होती तो शायद पंडवानी गायिका नहीं बनती. बहुत दु:ख झेले, लेकिन सरस्वती मैया की कृपा कि पंडवानी मेरी जिंदगी हो गयी. सब उसी का दिया है.'
तीजन अपने पति को 'मिस्टर' कहती है. गोदरेज का ‘डाई’ (खिजाब) उसे भाता है. पान के बिना वह रह नहीं सकती. बंगला पान उसे पसंद है, अलबत्ता लवंग-इलायची युक्त सादा पत्ता भी चाव से चबाती है. अचार की वह शौकीन हैं. खासकर आम का अचार. वह ठेठ छत्तीसगढ़िया हैं. एक जून बोरे बासी और चटनी उसकी आहारचर्या है.
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तीजन के जीवन-वृत्त में पदकों की लंबी तालिका है. उसे देवी अहिल्या सम्मान मिला और संगीत नाटक अकादेमी का पुरस्कार भी. सन् 2016 में उसे एस. सुब्बलक्ष्मी शताब्दी पुरस्कार मिला और 2018 में फुकुओका पुरस्कार. उसे ईसुरी पुरस्कार से भी नवाजा गया. एक चरण के बाद पुरस्कार और सम्मान गौण हो जाते हैं. मुझे याद आता है श्याम बेनेगल का धारावाहिक ‘भारत : एक खोज’. पं. जवाहरलाल नेहरू की कालजयी कृति ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर आधारित इस सीरियल में बेनेगल ने ‘महाभारत’ को साकार करने के लिये तीजनबाई को चुना था. यह तीजन की उपलब्धि थी और पुरस्कार भी.
तीजन निरक्षर है, लेकिन वह जीवन और जगत के आखरों को बखूबी चीन्हती और सस्वर बांचती है. उसने लोककला को क्लासिकी ऊंचाइयां दी हैं. चीरहरण के प्रसंग से वह दर्शाती है कि नारी के अपमान में गौरवशाली वंशों का भी पतन या विनाश निहित है. मिथकों की शैली में बात करें तो तीजनबाई को विधि ने पंडवानी के लिये ही रचा था.
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डॉ. सुधीर सक्सेना लेखक, पत्रकार और कवि हैं. 'माया' और 'दुनिया इन दिनों' के संपादक रह चुके हैं.
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