- गिरीन्द्र नाथ झा
किसानी करते हुए अब तो सात साल हो गए. जब नौकरी करता था तब मेरा सबसे ज्यादा लगाव सितंबर के महीने से होता था क्योंकि मुझे इस महीने 15 दिनों की छुट्टी आसानी से मिल जाती थी लेकिन किसानी करते हुए मेरा दिसंबर से लगाव बढ़ गया. इस महीने की कोमल धूप मुझे मोह लेती है लेकिन इसी समय यह भी अहसास होता है कि साल समाप्त होकर विगत हो जाएगा- ठीक उसी तरह जैसे धरती मैया के आंचल में न जाने कितनी सदियां, कितने बरस तक दुबक कर छुपे बैठी हो.
फिर सोचता हूं तो लगता है कि हर किसी के जीवन के बनने में ऐसे ही न जाने कितने 12 महीने होंगे. इन्हीं महीने के पल-पल को जोड़कर हम-आप सब अपने जीवन को संवारते-बिगाड़ते हैं. ऐसे में किसानी जीवन या फिर गाम-घर का जीवन कोई अपवाद नहीं है. बस फसल की आस में हम सब एक चक्र में अपने जीवन को बांध देते हैं.
किसान हर चार महीने में एक जीवन जीता है
किसानी करते हुए हमने महसूस किया कि एक किसान हर चार महीने में एक जीवन जी लेता है. शायद ही किसी पेशे में जीवन को इस तरह टुकड़ों-टुकड़ों में जिया जाता होगा. टुकड़ों में जीना भी एक कला है. ठीक वैसे ही जैसे कोई पेंटर धीरे-धीरे अपनी पेंटिंग को रूप देता है. हम भी इस वक्त खाद-पानी से खेत में लगे मक्का फसल की पेंटिंग तैयार कर रहे हैं जो चार महीने बाद हमारे आंगन-दुआर को संवारने का काम करेगी.
दरअसल चार महीने में हम एक फसल तो उपजा ही लेते हैं. इस दौरान मौसम की मार भी हम पर पड़ती है लेकिन फसल काटते ही हम सबकुछ भूल जाते हैं. यही किसानी का रंग है जिसके आगे सब रंग फीका है. हमने कभी बाबूजी के मुख से सुना था कि किसान ही केवल ऐसा जीव है जो स्वार्थ को ताक पर रखकर जीवन जीता है. इसके पीछे उनका तर्क होता था कि फसल बोने के बाद किसान इस बात कि परवाह नहीं करता है कि फसल अच्छा होगा या बुरा..वह सबकुछ मौसम के हवाले कर जीवन की अगले चरण की तैयारी में जुट जाता है.
मैं किसानी करते हुए लिखता-पढ़ता भी रहता हूं. किसानी जीवन से उपजे अनुभवों को मैं कलमबद्ध भी करता जाता हूं. इस आशा के साथ कि किसानी को कोई परित्यक्त भाव से न देखे. अक्सर देखता हूं किसान और गाम घर की जब भी बात होती है तो चाहे ग्राम जीवन की महिमा का बखान होता है या फिर दुख की कहानी. हालांकि ऐसा तो हर पेशे में होता है. कौन कहां खुश है, कौन किस बात से दुखी है, इसका हिसाब-किताब हम आप कैसे लगा सकते हैं? सबकुछ तो नियति के हाथ में है.
पिछले दिनों बांग्ला उपन्यासकार विभूतिभूषण बंद्योपाद्याय की कृति ‘आरण्यक’ को एक बार फिर से पढ़कर पूरा किया है. बंगाल के एक बड़े जमींदार की हजारों एकड़ जमीन को रैयतों में बांटने के लिए एक मैनेजर पूर्णिया जिले के एक जंगली इलाके में दाखिल होता है. जिस कथा शिल्प का विभूति बाबू ने ‘आरण्यक’ में इस्तेमाल किया है, वह अभी भी मुझे मौजूं दिख रहा है. पू्र्णिया जिला की किसानी अभी भी देश के अन्य इलाकों से बिल्कुल अलग है. इस अलग शब्द की व्याख्या शब्दों में बयां करना संभव नहीं है. इसे बस भोगकर समझा जा सकता है. किसानी और ग्राम्य जीवन को लेकर भी अपना अनुभव यही है कि आप जबतक गाम को जीएंगे नहीं, खेती को समझ नहीं पाएंगे.
खेती नै करी आ जीवी त‘ खाई की
खैर, 2021 के अंतिम महीने के आख़िरी दिनों में मेरे जैसा किसान मक्का, आलू, गोभी और सरसों में डूबा पड़ा है. इस आशा के साथ कि आने वाले नए साल में इन फसलों से नए जीवन को नए सलीके से सजाया जाएगा लेकिन जीवन का गणित कई बार लाख सोच—समझ के बाद लगाने के बाद भी अच्छे परिणाम नहीं देता है लेकिन तभी बाबा नागार्जुन की मैथिली में लिखी एक पंक्ति याद आने लगती है- “मरैक सोचि क’ खेती नै करी आ जीवी त‘ खाई की”
महानगरों से दूर बिहार के पूर्णिया जिला के चनका गांव में पिछले सात साल से खेती-किसानी संग कलम –स्याही करते हुए बार-बार लगता है कि जीवन को देखने का नजरिया इस पेशे ने बदल दिया है. अब सबकुछ माटी-पानी सा लगता है. माटी और पानी ऐसी चीज है जिसके बिना हम नहीं रह सकते. हमारे सारे सपने को माटी ही साकार करती है.
गाम का जीवन जीते हुए हर रोज कुछ नया सीखने को मिलता है. कभी हाथ में कुछ नई कहावतें आ जाती है तो कभी सुंदर धान के सुंगधित चावल. कहने का अर्थ यही है कि किसानी निराश नहीं करती है.
किसानी करते हुए बातें बनाना भी सीख गया हूं
यह सब लिखते हुए लगता है कि किसानी करते हुए बातें बनाना भी सीख गया हूं. दरअसल इन सात वर्षों में किसानी करते हुए ही यह अहसास हुआ है कि हम लोग जिंदगी को लेकर इतने दार्शनिक अंदाज में बातें इसलिए करते हैं क्योंकि हम अपने-अपने हिस्से का भरम पाल बैठे हैं कि हम जो जीवन जी रहे हैं वह आसान नहीं है जबकि सत्य कुछ और है. दरअसल जीवन को जटिल हम खुद बनाते हैं. हम ही मकड़ी के जालों की तरह खुद को उलझाते रहते हैं. दिनकर की वह कविता याद आने लगी है, जिसमें वे कहते हैं- “आदमी भी क्या अनोखा जीव है, उलझने अपनी ही बनाकर, आप ही फंसता और बैचेन हो न जगता न सोता है...”
इन सबके बीच ठंड का असर बढ़ता जा रहा है. सुबह देर तक कुहासे का असर दिखने लगा है. सबकुछ मेघ-मेघ सा लगने लगा है. यह सब लिखते हुए बाबूजी की याद आने लगी है. यदि वे आज रहते तो कहते कि इस मौसम में आलू की किसानी करते वक्त सावधानी बरतनी चाहिए. फसल नष्ट होने की संभावना अधिक रहती है. सच बात यह है कि किसानी करते हुए मुझे मेघ और मौसम से अजीब तरह का लगाव हो गया है. बादलों को समझने लगा हूं. मेघों के इशारे भी.
मौसम विभाग के अलर्ट से पहले गाम का सहदेव आसमान को देखकर बता देता है कि हवा के साथ बादलों ने खेल करना शुरू कर दिया है, बारिश होगी.... गाम का जीवन इन्हीं सब छोटी-छोटी बातों से आगे बढ़ रहा है. हर रोज नए पात्र मिलते हैं जो राह दिखाकर फिर कहीं दूर निकल जाते हैं. साथ रह जाती है तो बस खेतों में लगी फसलें, कुछ पेड़-पौधे और ढेर सारी यादें...
(गिरीन्द्र नाथ झा किसान हैं. लेखक हैं. पत्रकार रह चुके गिरीन्द्र किसानी जगत की सबसे मौलिक बातों को रखने वाले सजीव मन हैं, जिनके पास कहने को इफ़रात है उस दुनिया के बारे में जिसे हम अक्सर दूर से देखकर राय बनाते रहते हैं.)
(यहाँ दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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