डीएनए हिंदी: भारत में ऐसे वैज्ञानिकों की कमी नहीं है, जिन्होंने ईसा पूर्व की सदियों से लेकर इक्कीसवीं सदी के अंत तक विज्ञान की दुनिया को रोशन किया. मगर ऐसे वास्तविक महान वैज्ञानिकों की संख्या बहुत कम है, जिन्हें दुनिया सर्वकालिक महान वैज्ञानिकों की चमकीली सूची में शामिल करती है. चैम्बर्स बायोग्राफिकल डिक्शनरी के सन् 1997 के शताब्दी-संस्करण को देखिए. उसमें 17,500 वैज्ञानिकों के जीवन-वृत्त हैं. इन हजारों में भारतीय हैं सिर्फ छह : सर जेसी बोस, सीवी रामन, एस रामानुजन, सत्येन्द्रनाथ बोस, मेघनाथ साहा और होमी जहांगीर भाभा. कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ साइंटिस्ट्स (सन् 2002) की बात करें तो वहां सिर्फ चार भारतीय वैज्ञानिक हैं. वहां आचार्य जेसी बोस और एचजे भाभा अनुपस्थित हैं. डिक्शनरी ऑफ साइंटिस्ट ऑफ द ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस का काम देखें तो वहां भारत के मात्र पांच वैज्ञानिक मौजूद हैं. भाभा का नाम वहां नदारद है. इस तरह सिर्फ चार भारतीय वैज्ञानिक ऐसे हैं, जो चारों ग्रंथों में उपस्थित हैं. सत्येन्द्र नाथ बोस इन सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ रत्नों में से एक हैं.
कौन थे सत्येन्द्र नाथ बोस?
उनका योगदान था कि महानतम वैज्ञानिकों की गणना हुई तो उन्हें दुनिया ने पोरों पर गिना. वस्तुत: विज्ञान को बोस का योगदान अपूर्व और आधारभूत है.उन्हें क्वांटम सांख्यिकी सैद्धांतिक भौतिकी की आधारशिला रखने का श्रेय प्राप्त है. आधुनिक भौतिकी के वे केन्द्रीय स्तंभ हैं और उनका नाम विज्ञान के सार्वकालिक महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के साथ लिया जाता है. आज आधुनिक भौतिकी की बात होती है, तो अनिवार्य रूप से ‘बोसान’ की बात होती है, जो बोस-आइंस्टीन युग्म का संक्षिप्त प्रतीक है. एसएन बोस के साथ अल्बर्ट आइंस्टीन की भांति मेघनाद साहा का नाम भी जुड़ता है. इन दोनों के साथ उनकी जुगलबंदी दिलचस्प रही है. उनके काम से इन दोनों महानुभावों को विलग नहीं किया जा सकता. उनमें भौतिकी और गणित दोनों में काम करने की यकसां सामर्थ्य थी, लेकिन उन्होंने भौतिकी को तरजीह दी. अलबत्ता उनके कार्यों की परिधि बड़ी थी और उसमें भौतिकी, रसायन, खनिज विज्ञान, जीव विज्ञान, मृदा विज्ञान, दर्शन शास्त्र, पुरातत्व, ललित कला, भाषा और साहित्य का समावेश है.
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स्मॉलपॉक्स की गिरफ्त में आए थे बोस
एसएन बोस का जन्म 1 जनवरी, 1894 को कलकत्ते में हुआ था, यद्यपि उनका पैतृक गांव नदिया जिले में जगुलिया था. मां का नाम अमोदिनी और पिता का सुरेन्द्रनाथ. सुरेन्द्र नाथ रेल विभाग में मुलाजिम थे. एसएन ने प्राथमिक शिक्षा उसी नार्मल स्कूल में ग्रहण की, जहां बचपन में रवीन्द्रनाथ ठाकुर पढ़े थे. बाद में एसएन न्यू इंडियन स्कूल और हिन्दु स्कूल में पढ़े. हिन्दु स्कूल के गणित के प्राध्यापक उपेन्द्र बक्षी जीवित किंवदती थे.वे पारखी भी थे. उन्होंने एकदा टेस्ट में एसएन को सौ में से एक सौ दस अंक दिए. प्राचार्य के तलब करने पर बक्षी ने कैफियत दी : ‘एसएन नियत अवधि में कोई भी ऑप्शन छोड़े बिना सभी प्रश्न सही ढंग से हल करने में सफल रहा.’ यह प्रसंग पूत के पांव पालने का स्पष्ट लक्षण था. स्माल पॉक्स की बीमारी से एसएन एक साल परीक्षा में बैठ नहीं सके और उन्होंने सन् 1909 में इंट्रेंस किया, लेकिन उन्होंने एक खाली वर्ष का उपयोग उच्च गणित और संस्कृत की शास्त्रीय कृतियों के अध्ययन में किया. एंट्रेंस के बाद उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से विज्ञान में इंटरमीडिएट किया, जहां आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय और जगदीश चंद्र बोस जैसे मनीषी पढ़ाते थे. एमएससी ऑनर्स के बाद उन्होंने 92 प्रतिशत कीर्तिमान अंकों के साथ अव्वल आकर मिश्रित गणित में एमएससी किया. इन दोनों परीक्षाओं में द्वितीय पायदान पर थे मेघनाद साहा. दिलचस्प संयोग है कि दोनों ही सद्यस्थापित यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में प्रवक्ता हो गये. दोनों ने अध्यापन के साथ-साथ शोध पर भी ध्यान दिया. दिक्कत यह थी कि प्रयोगशाला का अभाव था और नवीनतम किताबें उपलब्ध न थीं. उन दिनों डॉ. ब्रुल नामक ऑस्ट्रेलिया के निष्णात वनस्पतिशास्त्री कलकत्ते में आकर रहने लगे थे. वे बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज में अभियांत्रिक भौतिकी पढ़ाते थे और उनकी प्रयोगशाला भी थी. बोस और साहा ने उनसे किताबें उधार लेकर पढ़ना शुरू किया और मार्गदर्शन भी.
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इनके लेख हुए दुनिया भर में मशहूर
बीसवीं सदी में दूसरे दशक के अंतिम वर्ष बोस और साहा की अद्भुत जुगलबंदी के दौर थे. डॉ. सुबोध महंती लिखते हैं,'सैद्धांतिक भौतिकी में बोस का पहला महत्वपूर्ण साहा के साथ संयुक्त रूप से लिखित लेख आनंद इंफ्लुरंस ऑफ द फाइनाइट वॉल्यूम ऑफ मॉलिक्यूल्स ऑन द इक्वेशन ऑफ द स्टेट था. वह लेख सन् 1918 में ‘फिलॉसाफिलकल मैग्जीन’ में छपा. अगले साल ‘बुलेटिन ऑफ द कैलकटा मैथेमेटिकल सोसायटी में बोस के दो और लेख प्रकाशित हुए. एक लेख का शीर्षक था ‘द स्ट्रेट इक्वेशन ऑफ इक्वीलिब्रियम’ और दूसरे का ‘ऑन हार्पोल होड’. ये दोनों लेख विशुद्ध गणित से संबंधित थे. 1920 में एक लेख मेघनाद साहा के साथ उन्होंने पदार्थ की अवस्थाओं से संबंधित समीकरण के बारे में लिखा, जो कि ‘फिलॉसाफिकल मैग्जीन’ में प्रकाशित हुआ. इसके बाद उन्होंने सन् 1920 में ‘ऑन द डिडक्शन ऑफ रिडबर्ग्स लॉ फ्राम द क्वांटम थियरी ऑफ स्पेक्ट्रल इमिशन’ पर लेख लिखा. उनका यह लेख भी ‘फिलॉसाफिकल मैग्जीन’ में प्रकाशित हुआ.
कहना न होगा कि इन लेखों ने सारी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया. सन् 1921 में ढाका विश्वविद्यालय स्थापित होने पर बोस वहां रीडर होकर चले गये. वहीं उन्होंने पाया कि मैक्स प्लैंक के विकिरण नियम के परिणाम संतोषजनक नहीं हैं. उन्होंने साहा से विमर्श किया और आइंस्टीन के फोटोन समीकरण के आधार पर तार्किक व संतोषजनक व्याख्या लिखकर ‘फिलॉसॉफिकल मैग्जीन’ को भेजी। आश्चर्य कि वह व्याख्या बैरंग लौट आई. इस पर उन्होंने उसे आइंस्टीन को इस अर्जी के साथ भेजी कि वे ‘जेइट्स स्क्रिप्ट फुट फिजीक’ में उसके प्रकाशन की व्यवस्थआ करें. एस एन का यह निश्चय साहसिक था. 4 जून, 1924 को आइंस्टीन के नाम बोस का पत्र विज्ञान के इतिहास का मूल्यवान दस्तावेज है.एसएन ने अनुवाद लायक जर्मन न आने का हवाला देते हुए लिखा : ‘...हालांकि मैं आपसे पूरी तरह अपरिचित हूं. फिर भी मुझे आपसे अनुरोध करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है. इसका कारण यह है कि हम सभी आपके लेखों के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करके लाभान्वित होते रहे हैं, इसलिए आपके शिष्य हैं. मैं नहीं जानता कि आपको याद है या नहीं कलकत्ते के एक व्यक्ति ने सापेक्षता संबंधी आपके लेख को अंग्रेजी में अनूदित करने की अनुमति मांगी थी. आपने उस अनुरोध को स्वीकार किया था. वह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है. सामान्य सापेक्षता संबंधी आपके लेख का मैंने ही अनुवाद किया था.’’
आइंस्टीन ने न केवल पत्र की पावती दी, बल्कि प्रकाशन का आश्वासन भी. उन्होंने स्वयं एसएन के लेख का तर्जुमा किया और वह ‘जेइट्स स्क्रिप्ट फुट फिजीक’ के अगस्त, 1924 के अंक में आंस्टीन की इस टिप्पणी के साथ छपा : ‘‘प्लैंक के सूत्र के बारे में बोस ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे मुझे आगे की दिशा में बढ़ा हुआ कदम लगते हैं. वहां प्रयुक्त विधियों ने क्वांटम सिद्धांत को आदर्श रूप दिया है. इस बात को मैं अन्यत्र कहीं दर्शाऊंगा.’’
तो इस तरह क्वांटम सांख्यिकी और बोस-आइंस्टीन के रिश्तों का जन्म हुआ. दिलचस्प है कि आइंस्टीन भी बोस के सिद्धांत की अर्थवत्ता और संभावनाओं का सटीक अ्नुमान नहीं लगा सके थे. बाद में फर्मी ने उसे विकसित कर मूलभूत कणिकाओं को दो समूहों में श्रेणीकृत करने का आधार निर्मित किया. प्रथम समूह कहलाया बोसान और दूसरा फर्मिआस.
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बोस और आइंस्टीन का रिश्ता
सन् 1924 में एसएन ने ढाका विश्वविद्यालय से दो साल की छुट्टी ली, ताकि वे योरोप जाकर अधुनातन अनुसंधान की जानकारी ले सकें. यह छुट्टी भी उन्हें तब मिली, जब उन्होंने कुलपति को आइंस्टीन का सिफारिशी खत दिखाया. बहरहाल, अक्टूबर, 1924 में वे पेरिस पहुंचे और वहां करीब एक साल रुके. आइंस्टीन के वे सतत संपर्क में थे. पेरिस में कई रोचक और महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं. वे लेंगेविन के संपर्क में आए और भारतविद् सिल्मैन लेबी से उनका परिचय हुआ. वे रेडियोधर्मी तकनीक के बारे में मेरी क्यूरी (1867-1934) और एक्स किरण स्पेक्ट्रमी के बारे में मौरिस डी ब्रोग्ली (1892-1967) से सएकने के इच्छुक थे. लैंगेविन के सुझाव पर उनके अनुशंसा पत्र के साथ वे क्यूरी से मिले भी. क्यूरी उनकी प्रतिभा से प्रभावित हुईं, लेकिन फ्रेंच के एसएन के ज्ञान से आश्वस्त न होने से शोध-सहायक के तौर पर अनुभव सिरे नहीं चढ़ सका. बहरहाल, लैंगेविन का परिचय पत्र ब्रोग्ली के यहां काम कर गया. ब्रोग्ली ने उन्हें मुख्य सहायक अलेक्जेंडर डॉविलियर के साथ काम की अनुमति दे दी. उनकी प्रयोगशाला में बोस ने क्रिस्टल विज्ञान का गहन अध्ययन किया. अक्टूबर, 1935 में वह बर्लिन आए. आइंस्टीन से मुलाकातों से वे लाभान्वित हुए. उनके पत्र से उन्हें विश्वविद्यालय लाइब्रेरी से किताबे लेने वैज्ञानिक कार्यक्रमों में भाग लेने और चोटी के वैज्ञानिकों से मेल-मुलाकात की सुविधा मिल गयी. उन्होंने पॉलेनेई की लैब में काम किया. हॉन और मेइटनर की रेडियोधर्मी प्रयोगशाला में कई बार गये. गाटिंजन की यात्रा की और मैक्स बार्न और एरिक हकेल से मिले.
सन् 1926 में तसल्लीबख्श प्रवास के बाद एसएन ढाका लौटे, लेकिन प्रतिभा और आइंस्टीन की सिफारिश के बाद भी उन्हें प्रोफेसरी के लिए पापड़ बेलने पड़े. उन्होंने मणि भों की संरचना का अध्ययन किया और प्रायोगिक उपकरणों का निर्माण भी. साहा की प्रेरणा से उन्होंने आयनमंडल में रेडियो तरंगों के परावर्तन पर शोध किया. सन् 1945 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में खैरा प्रोफेसर हो गये. सन् 1955 में जब आइंस्टीन की मृत्यु हुई तो एसएन ने शोकावेग में अपने महत्वपूर्ण शोधपत्र की इकलौती प्रति फाड़ दी. आइंस्टीन को एसएन ‘मास्टर’ संबोधित करते थे.
बोस अत्यंत सरल मना थे. वे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में लुंगी पहनकर चले जाते थे. उन्होंने पीएचडी तक नहीं की. वे बांसुरी और यसराज बजाते थे. यकीनन वे वैज्ञानिक न होते तो कलागुरू होते. यात्रा व समारोहों में वे आंखें मूंद लेते थे. लोग समझते कि वे सो रहे हैं, लेकिन वे बात का सिरा पकड़कर आगे की बात कह देते थे. बंगीय विज्ञान परिषद के गठन में उनकी मुख्य भूमिका थी. 4 फरवरी, 1974 में उनकी मृत्यु पर एसडी चटर्जी ने लिखा : ‘सत्येन्द्रनाथ बोस की मृत्यु के साथ एक युग का-भारत में विज्ञान की उत्पत्ति करने वाले महान लोगों के युग का अंत हो गया.’
डॉ. सुधीर सक्सेना लेखक, पत्रकार और कवि हैं. 'माया' और 'दुनिया इन दिनों' के संपादक रह चुके हैं.)
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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