लता मंगेशकर भारतीय सिनेमा की अकेली ऐसी महिला हैं जिनके सामने किसी भी मान-सम्मान का कद बहुत छोटा है. उनकी जीवन यात्रा इतनी गरिमामयी और अनुकरणीय है कि उनसे केवल प्रेम किया जा सकता है.

मध्यप्रदेश भारत का ऐसा उर्वर हिस्सा है जहां हजारों कलाएं सांस लेती हैं. लता मंगेशकर इसी कला की उर्वर भूमि में पैदा हुईं. उनका जन्म भारतीय सिनेमा की बिखरी हुई धुनों को एक लय देने के लिए हुआ. उनसे पहले गायन की जो परम्परा थी वह घरानों से विकसित हुई थी. लता ने उन्हीं गूंजती आवाजों की अंगुली पकड़कर अपनी यात्रा को सुखद बनाया.

लता मंगेशकर की गीत-यात्रा में जीवन के हर रंग मौजूद हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है जो छूट गया हो, शायद इसलिए उन्हें सुर-साम्राज्यी कहा गया. उन्हें चाहने वाले युवा भी हैं और बूढ़े भी. बच्चे भी हैं और जवान भी. 

लता जी भारतीय सिनेमा की साफ़, स्वच्छ और पाक आवाज़ थीं. उनके गीतों ने देशभक्ति का सबक सिखाया, बलिदानियों के प्रति प्रेम का भाव जगाया, प्रेम का वियोग और संयोग दोनों उनके कंठ से फूटा जिसे  सुनकर कोई हंसा तो कोई रोया भी. 

आठ दशकों तक अपनी आवाज़ से दुनिया को मोहित करने वाली लता जी ने छत्तीस भाषाओं में पच्चीस हज़ार से अधिक गीत गाए. सिनेमा जैसे आधुनिक कला माध्यम में भी स्त्रियों को अपने हिस्से का संघर्ष करना पड़ा. कभी काम पाने के लिए तो कभी पहचना बनाने के लिए. उनका संघर्ष कभी कम नहीं हुआ. 

हिंदी सिनेमा में यह संघर्ष और बड़ा है. जिस तरह की घटनाएं लगातार सुनने को मिलती हैं उसके लिहाज से देखें तो लता मंगेशकर का जीवन प्रेरणा स्रोत है. 1931 में भारतीय सिनेमा की एक निर्णायक फिल्म ‘आलम आरा’ का प्रदर्शन हुआ. इतिहास में ‘आलम आरा’ पहली बोलती फिल्म के रूप में दर्ज हुई. यहां से सिनेमा को एक आवाज की जरुरत था. ईश्वर भी शायद इस जरुरत को समझता था. इसलिए 1929 में ही लता जी का जन्म होता है, गोयाकि उनके जन्म से ही सिनेमा में स्वर और सुर का कंठ फूटा हो. 

लता का जन्म इंदौर में हुआ लेकिन जीवन यात्रा महाराष्ट्र से शुरू होती है. उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर रंगमंच के सम्मानित कलाकार के साथ गायक भी थे. वह लता को नायिका बनाना चाहते थे लेकिन उनकी असमय मृत्यु ने लता को ही पिता की भूमिका में लाकर खड़ा कर दिया. 

आर्थिक समस्या से परिवार इस कदर जूझ रहा था कि रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए कठोर संघर्ष करना पड़ा. शास्त्रीय संगीत से दीक्षित उनके पिता उन्हें गायन की बारीकी सिखाते थे जिसे वह अपनी गायकी का आधार मानती हैं. 

लता मंगेशकर.

लता जी के जीवन का संघर्ष स्त्री जीवन त्रासदी है और उपलब्धि भी. परिवार की जिम्मेदारियाँ उन्हें फिल्मों में ले आई. अभिनय से शुरू हुई यह यात्रा पहले गायन के रूप में स्वीकृत नहीं हुई. काम पाने के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ा. 

बड़ी सफलता की शर्त होती है-'रिजेक्शन.' इस रिजेक्शन से जो घबरा गया वह गुमनाम हो जाता है और जो उसे चुनौती मान लेता है वह इतिहास बनाता है. लता जी की जिस पतली आवाज़ की आलोचना की गई उसे उन्होंने उसे ऐसा साधा कि फिर उनके जैसा कोई दूसरा गायक नहीं हुआ. 

हिंदी सिनेमा में उनकी शुरुआत जिस तरीके से होती है वह लगभग गुमनाम थी. गुमनामी के गलियों से सफलता के आसमान तक पहुंचने में केवल उनकी अनथक साधना और मेहनत थी. पिता की मृत्यु ने उनसे केवल पिता ही नहीं बल्कि गुरु और जीवन जीने का हुनर सिखाने वाला भी छीन लिया था. उनके पिता के अभिन्न मित्र मास्टर विनायक ने लता के करियर को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई. 

पहला ब्रेक उन्हें मराठी फिल्म ‘किटी हसाल’ में ‘नाचु या गड़े, खेलो सारी मणि हौस भारी’ गाने से मिला लेकिन बाद में यह गाना फिल्म से हटा दिया गया. 1948 में प्रदर्शित फिल्म ‘मजबूर’ में उनका गया गीत ‘दिल मेरा तोड़ा, ओ मुझे कहीं का न छोड़ा’ ने उन्हें पहचान दी.

‘मजबूर’ के इस गीत के मात्र तीन वर्ष के अन्दर ही उनके पास गीतों का अम्बार लग गया. बड़े से बड़ा निर्देशक उनके साथ काम करने के लिए लाइन में खड़ा हुआ. अपने समय के दिग्गज कलाकारों के साथ उन्होंने काम किया. राजकपूर, दिलीप कुमार और मोहम्मद रफ़ी से उनके घरेलु संबंध थे. 

अपनी गरिमामयी सौम्य छवि के कारण वह हिंदी सिनेमा में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में ‘लता दीदी’ के नाम से मशहूर हुईं. अपने समय के संगीतकारों की पहली पसंद थीं. 

गाने के बोल उनके कंठ तक पहुंचते ही जीवंत हो उठते थे. नौशाद से लेकर एआर रहमान तक के साथ उनकी गीत यात्रा अनवरत चलती रही. असफलता से वह कभी विचलित नहीं हुई और न ही सफलता से उनमें कोई अभिमानी आया. 

मधुबाला से लेकर ऐश्वर्या रात तक की पहली पसंद लता जी रहीं. हिंदी सिनेमा में स्त्री के संघर्ष की जो कहानियां सुनने को मिलती हैं उसके हिसाब से लता जी ने जो जीवन जीया वह किसी भी स्त्री की चाहत हो सकती थी. अपने गीतों से उन्होंने आम जनता से लेकर सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को भी प्रभावित किया. 

भारत और चीन का युद्ध 1962 में हुआ. यह ऐसा युद्ध था जिसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी. इस युद्ध के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में 27 जनवरी 1963 लता जी ने विख्यात कवि प्रदीप का लिखा गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर पानी’ गाया. 

लता जी के स्वर से फूटा यह गीत वहां बैठे सभी लोगों को रुला गया. आज भी कोई राष्ट्रीय पर्व इस गीत के बिना अधूरा लगता है. 

हिंदी सिनेमा में महिलाओं की स्थिति इसी बात से समझी जा सकती है कि उन्हें केवल नायक के इर्द-गिर्द घुमाने के लिए लाया जाता था या गहन दुःख में डूबे नायक को साहस देने के लिए. सिनेमा में स्त्री की उपस्थिति अभिनय और गायन के आलावा वर्षों तक शून्य थी. 

लता जी ने पहली बार गायकों की रॉयल्टी का मुद्दा उठाया जिसके लिए राजकपूर, रफ़ी जी आदि से उनके संबंध ख़राब हुए. उनकी यह लड़ाई आसान नहीं थी लेकिन वह डिगी नहीं और अंतत: उनकी जीत हुई. यह हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार हुआ जब किसी महिला ने रॉयल्टी का सवाल उठाया और उसे प्राप्त भी किया. 


सिनेमा की दुनिया में व्यक्तिगत सफलता के लिए हर समझौते किए जाते हैं. स्त्रियों के साथ ‘यूज एंड थ्रो’ जैसा व्यवहार होता रहता है, लता जी जीवन के हर पक्ष में विजय प्राप्त किया. व्यक्तिगत सफलता या ख़ुशी उनके लिए बचपन से ही मायने नहीं रखते थे. 

पारिवार उनकी प्राथमिकता थी. वह दिन रात काम करती रहीं. कहते हैं राजस्थान के डूंगरपुर राजघराने के राज सिंह से उन्हें प्रेम था लेकिन बचपन का यह प्रेम पूरा नहीं हुआ. राज सिंह उच्च शिक्ष के लिए मुंबई आए, जहां लता जी से उनकी लगातार मुलाकातें होती रहीं. बीच में विवाह की भी चर्चा हुई लेकिन नियति को शायद यह मंज़ूर नहीं था. 

एक दूसरे से अथाह प्रेम करने के बाद भी वह विवाह नहीं कर पाए क्योंकि राज सिंह ने अपने पिता को यह वचन दिया था कि वह किसी सामान्य घर की लड़की को बहू के रूप में राजघराने में नहीं लाएंगे. उनके पिता की भी यह यही इच्छा थी कि कोई खानदानी और राजघराने की लड़की ही उनकी बहु बने. 

लता जी ने जीवन में वह सब कुछ हासिल किया जो एक महारानी के पास होना चाहिए लेकिन उन्हें अपने स्वाभिमान की भी चिंता था शायद इसलिए वह खुद भी आगे नहीं बढीं. शायद उन्हें डर रहा हो कि राजघराने में कहीं उनकी अपनी पहचान न खो जाए. दोनों ने विवाह तो नहीं किया लेकिन आजीवन प्रेम किया. उस प्रेम को जीवित रखने के लिए दोनों आजीवन अविवाहित भी रहे. 

लता मंगेशकर.

लता मंगेशकर का कंठ बढ़ती उम्र के साथ और मधुर होता गया. उनकी मधुरता शोध का विषय है. मोहब्बतें का ‘हमको हमीं से चुरा लो’ कौन भूल सकता है. 

‘कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पर’, ‘दिल तो पागल है’ से लेकर ‘दीदी तेरा देवर दीवाना’ तक सिनेमा लतामय है. वह पहली ऐसी गायिका हैं जिन्होंने एक साथ चारों पीढ़ियों के लिए गाया.

भारतीय सिनेमा में उनके कद का कोई दूसरा गायक नहीं हुआ. भारतरत्न से विभूषित लता जी ने असाधारण जीवन जिया. एक मनुष्य के जीवन में सफलता के जितने मानक होते हैं, उसको तोड़ते हुए नए कीर्तिमान स्थापित करती, आगे बढ़ती और निरंतर गाती हुई वह आज हम सबसे बहुत दूर हो चुकी हैं लेकिन उनकी स्मृतियां, गीत तब तक आबाद रहेंगे, जब यह दुनिया रहेगी. 

प्रेम, राष्ट्र, जीवन संघर्ष और उत्कर्ष के जितने भी पक्ष होते हैं, सब उनके गीतों में जीवंत हैं. लता जी की जीवन -यात्रा पर हम गर्व करते हैं. उनका होना भारतीय सिनेमा, कला, संस्कृति का होना है, उनका होना भारतीय महिला की ऐसी छवि का होना है जो काजल की कोठरी में भी उज्ज्वल बनी रही. 

उनके चेहरे में खेलती निश्चल मुस्कान किसी को भी मोहित कर सकती थी. मैं कभी यह मान ही नहीं सकती कि वह हमारे बीच में नहीं हैं. वह हर उस जगह हैं जहां–जहां मनुष्य होने की कसक बची हुई है.

अपने जीवन के शतक लगाकर भारत की यह स्वर कोकिला 6 फरवरी 2022 को हमसे जुदा हो गई लेकिन छोड़ गई सुरों और धुनों की ऐसी नायब दुनिया जिसे दुनिया रहने तक याद किया जाएगा.

मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में उनकी मृत्यु हुई वह भी धन्य हुआ. वास्तव में लता जी विश्व धरोहर हैं उसकी प्रतिभा देश और सीमाओं से परे एक ऐसे महनीय व्यक्तित्व की है, जिसने ऐसी लकीर खींच दी है जिसके आगे कोई दूसरी लकीर खींची ही नहीं जा सकती.

प्रोफेसर डॉक्टर रमा.

(प्रोफेसर रमा दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज की प्राचार्य हैं)

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Lata Mangeshkar The Dignified Image of Indian Women article by Professor Rama
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Lata Mangeshkar: स्त्री की गरिमामयी छवि
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भारत रत्न लता मंगेशकर. (फाइल फोटो)
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भारत रत्न लता मंगेशकर. (फाइल फोटो)

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Lata Mangeshkar: स्त्री की गरिमामयी छवि