डीएनए हिंदी: शिक्षण सिनेमा एक कला माध्यम है और कलाएं सामाज के लिए होती हैं उसका उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं हो सकता. यह सही है कि फिल्म की कला का विकास पूंजीवादी के रूप में हुआ लेकिन यह समझना सही नहीं है कि फिल्म बुनियादी तौर पर पूंजीवादी कला है. दुनिया में विभिन्न सामाजिक अवस्थाओं में साहित्य और कला के विभिन्न रूप पैदा हुए लेकिन वे उसी सामाजिक अवस्था की न तो सीमाओं में बंधे रहते हैं और न ही उस सामाजिक अवस्थाओं की रक्षा का काम करते हैं. कला का यह स्वभाव ही है कि वह जिस सामाजिक-ऐतिहासिक स्थिति से पैदा होती है, उसकी सीमा और आकांक्षाओं से मुक्त होने का प्रयास करती है और अपनी जन्मभूमि वाली ऐतिहासिक स्थिति के विरूद्ध खड़ी होती है. यह बात साहित्य के अनेक रूपों के बारे में सच है और कला के अनेक रूपों के बारे में भी.
फिल्म की तरह ही उपन्यास भी पूंजीवाद के दौर में ही दुनिया में अस्तित्व में आया लेकिन दुनिया भर के महान उपन्यासों ने पूंजीवाद की जैसी धारदार आलोचना की है वैसी आलोचना केवल फिल्मों में ही मिलती है. पूंजीवाद के दौर में पैदा होने के बावजूद पूंजीवाद की असंगतियों के विरूद्ध फिल्म की कला का जैसा प्रयोग चार्ली चैपलिन ने किया है वह फिल्म कला की स्वतत्व सामाजिक चेतना का अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रमाण है. सिनेमा के शुरुआत से ही सिनेमा और समाज के संबंधों की व्याख्या भिन्न-भिन्न ढंग से होती है. क्या फिल्में समाज पर कोई प्रभाव डालती हैं? क्या सिनेमा द्वारा लोगों की चेतना और सोच में बदलाव लाया जा सकता है? फिल्मों के प्रति लोगों में नशे की हद तक आकर्षण क्यूं होता है? वह हम सब लोगों की किन-किन भावनाओं और इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं ? इस तरह के प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं.
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हर दिन बदलता है समाज और सिनेमा
परिवर्तन प्रकृति का एक अनिवार्य और शाश्वत नियम है. मानव समाज भी इसी प्रकृति का अंग है अतः वह परिवर्तनशील है.ठीक उसी प्रकार समाज के बिम्बों को ही सेल्युलॉइड के पर्दों पर सिनेमा उसी समाज रूपी दर्शक वर्ग के सामने अपने को प्रस्तुत करता है. समकालीन समाज का बोध बहुलता वाले समाज के बोध से होता है. संस्कृति से, परंपरा के रीति-रिवाजों से और अनुष्ठानों से ज्ञान की मनोदशा का विकास होता है. कई बार एक समाज दूसरे समाज के साथ अर्थों और प्रतीकों को साझा कर समाज को संगठित बनाते हैं. जो समाज में हमें दिखता है उसका निर्माण ज्ञान की वजह से हुआ है. प्रत्येक मनुष्य अपने हितों की वजह से समाज को बनाता है. मानवीय जरूरतों के क्रिया व्यापार ही समाज के निर्माण में सहायक सिद्ध होते हैं. आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक ज्यों-ज्यों संस्कृति में परिवर्तन हुआ है त्यों-त्यों हमारे समाज का स्वरूप बदलता आया है और उसके अभिव्यक्ति के माध्यम से समाज के परिवर्तन का असर भी साफ तौर पर सिनेमा पर देखा जा सकता है. हर दिन कितने अविष्कार हो रहे हैं और प्रत्येक अविष्कार का असर समाज और सिनेमा पर भी पड़ रहा है. इस तरह से देखें तो पता चलता है कि समाज और सिनेमा में प्रत्येक दिन परिवर्तन हो रहा है.
मनोरंजन का पक्ष क्या है
सिनेमा का जन्म सिर्फ मनोरंजन परोसकर पैसे कमाने के लिए नहीं हुआ है.इसके साथ ही वह किसी समाज की कला अभिव्यक्ति का साधन भी है.सदा से सिनेमा के मजबूत कन्धों पर देशकाल और सामाजिक दायित्व का दोहरा बोझ भी हुआ करता है.
यहां यह कहना भी उचित होगा कि किसी भी समाज में कला की अवस्थिति उस समाज के ज्ञान और अवस्थिति से सीधा रिश्ता रखती है.इस प्रकार कला के माध्यम से ज्ञान भी जुड़ा होता है या कहें कि कला ज्ञान को और ज्ञान कला को प्रभावित करता रहता है. इस स्थिति में एक महत्वपूर्ण सवाल यह छूट जाता है कि आखिर इस जटिल यथार्थवादी दुनिया में मनोरंजन का कोई दार्शनिक पक्ष है या नहीं?
शिक्षण और मनोरंजन के अंर्तसंबंध को समझाने के लिए जिस बेहतर चोखटे को विमर्श में रखा जाता है वो सत्ता विमर्श होता है या फिर विचारात्मक पक्ष. किसी भी विमर्श में, शिक्षण और मनोरंजन में प्रतीकों और स्मृतियों की भूमिका पर ज़ोर दिया जाता है परन्तु शिक्षण और मनोरंजन के अंतरसूत्र जहां कहीं मिलते हैं उसका प्रत्यक्ष रिश्ता व्यक्ति और समाज में दिखता है. सिनेमेटोग्राफी के आविष्कारक अगस्ट और लुई लुमियर ने शायद यह कभी स्वप्न में भी न सोचा होगा कि एक दिन उनकी यह विशिष्ट खोज बीसवीं सदी की सबसे बड़ी सामाजिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त करेगी. वास्तव में सिनेमा अपने अस्तित्व के लिए इन फ्रांसीसी भाइयों की प्रतिभा का ऋणी है जिन्होनें पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में सिनेमेटोग्राफी का आविष्कार कर भारत सहित विभिन्न देशों में इसके सफल व्यावसायिक प्रदर्शनों से दर्शकों को चमत्कृत कर दिया था.
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सिनेमा और साहित्य की केमिस्ट्री
तदुपरान्त अनेक अग्रणी हस्तियों ने अपने अथक प्रयासों से सिनेमा को नए आयाम देकर उच्चतम सोपान तक पहुंचा दिया और आज यह कला,संस्कृति और मनोरंजन का एक अत्यन्त सशक्त माध्यम है. हम यह जानते हैं तथा एक संवेदनशील पाठक,श्रोता एवं दर्शक होने के नाते हमने यह अनुभव भी किया है कि इनमें से प्रत्येक विधा में सहृदय के मन और मस्तिष्क को स्पर्श करने की कितनी अद्भुत क्षमता होती है. इन कलाओं का पारस्परिक संयोग और समन्वय जिस सीमा तक बढ़ता चला जाता है, उसकी प्रभावक क्षमता भी उतनी ही बढ़ती चली जाती है इसीलिए यदि गीत के साथ संगीत का समन्वय हो या फिर गीत और संगीत के साथ नृत्य का भी समन्वय हो तो अंर्तमन के तारों को वह उतना ही अधिक झंकृत करता है. प्रत्येक कला रूप में साहित्य का कुछ न कुछ अंश होता ही है. सिनेमा में भी प्रत्येक कला का कुछ न कुछ अंश होता है इसीलिए यह मानना कठिन नहीं है कि सिनेमा को सहित्य से अपने संबंध सौहार्दपूर्ण रखने चाहिए. यह बात इसके ठीक विपरीत नहीं हो सकती कि साहित्य सिनेमा से अपने संबंध सौहार्दपूर्ण रखे क्योंकि साहित्य को सिनेमा की जरूरत नहीं है. साहित्य एक ‘शब्द विधा’ है इसलिए उसकी अनिवार्यता ‘भाषा’ है न कि ‘कैमरा. यह अपने आपमें एक पूर्ण एवं आत्मनिर्भर विधा है. उसे पाठक चाहिए दर्शक नहीं. यहां तक कि नाटक के दर्शक की मानसिकता पाठक की मानसिकता के अधिक निकट होती है. बजाय सिनेमा के दर्शक के. फिर ऐसी बात भी नहीं है कि जो नाटक खेला न जा सके वह व्यर्थ होता है. लोकमंच की बात अलग है, किन्तु साहित्यिक नाटक पूरी तरह दर्शकों पर अवलम्बित नहीं होता. इसलिए यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि श्रेष्ठ साहित्य पर श्रेष्ठ फिल्म भी बनायी जा सकती है या हर अच्छे साहित्य पर फिल्म बननी चाहिए या कि हर फिल्म साहित्य पर ही बननी चाहिए. सत्यजीत रे उन फिल्मकारों में थे जिन्होंने साहित्य पर सबसे अधिक फिल्में बनाईं किन्तु उनकी सभी फिल्में साहित्य पर नहीं है. उन्होंने उस साहित्य को अपनी फिल्म के लिए प्राथमिकता दी जिसमें ‘डिटेल्स’ थे ताकि साहित्य की आत्मा को चित्रित और साहित्यकार तथा निर्देशक के संवेदनात्मक टकराव एवं विलगाव को कम से कम किया जा सके उन्होंने विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास का अपनी फिल्म के लिए चयन किया. इस फिल्म ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई.
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साहित्य आदर्श विधा और सिनेमा एक क्रांति
साहित्य को आरम्भ से ही एक आदर्श विधा के रूप में स्वीकार किया गया जबकि सिनेमा अपने स्वभाव से ही क्रांतिकारी रहा है. साहित्य ने अपनी सीमाओं को पार करने में बहुत समय लगा दिया लेकिन सिनेमा ने हमेशा ही ऐसे विषयों को आधार बनाया जिस पर लोग खुलकर बातचीत नहीं कर पाते. साहित्यकारों ने सिनेमा को ऐसा साधन मान लिया जो सिर्फ मनुष्य को बिगाड़ने का काम करता है. साहित्य को मानने वालों ने सिनेमा के सामाजिक सरोकारों को कभी स्वीकार ही नहीं किया. इस संबंध में सिने आलोचक प्रहलाद अग्रवाल की टिप्पणी महत्वपूर्ण है “सिनेमा को कभी साहित्य के मानदंडों पर परखा गया, कभी इसे नैतिक मानदंडों के आधार पर नापा गया लेकिन इसे एक स्वतंत्र कलात्मक अभिव्यक्ति समझते हुए इस पर समझदार विमर्श की आवश्यकता हिन्दी में तो नहीं ही समझी गयी. सिनेमा वह रचनात्मक विधा है जिसके सृजन में जीवन के लगभग हर कार्य व्यापार से संबंधित व्यक्ति जुड़ा होता है.” समाज और सिनेमा का संबंध किसी न किसी रूप में मौजूद रहा ही है. हिन्दी सिनेमा का भारतीय समाज और दर्शकों से गहरा संबंध है. यही कारण है कि वर्तमान समय के निर्देशकों ने अपने सिनेमा में सामाजिकता के साथ शिक्षा को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि अगर कोई भी व्यक्ति किसी सिनेमा से प्रभावित होकर अपनी सोच को बेहतर बना सके तो सिनेमा का उद्देश्य पूरा व सार्थक होगा.
(प्रोफेसर रमा दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज की प्राचार्य हैं)
(यहां दिए गए विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)
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