डीएनए हिंदी: ये बात तो किसी से छिपी नहीं है कि महिलाओं के साथ एक लंबे समय तक गैर-बराबरी का व्यवहार किया गया. उन्हें उनके हकों के लिए एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी और ये लड़ाई कई मायनों में आज भी जारी है. इस लड़ाई में जिस भी स्तर तक जीत मिली है और महिलाएं आज बराबारी का हक हासिल कर पाई हैं उनमें उस दौर की नारीवादी महिलाओं को अहम रोल है, जब ऐसा कर पाना मुमकिन भी नहीं समझा जाता था. ऐसी ही एक नारीवादी महिला थीं रमाबाई. आज की भाषा में बात करें तो उन्हें भारत की पहली फेमिनिस्ट कहा जा सकता है.
हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ जन्म
रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 को कर्नाटक के मराठी बोलने वाले हिंदू परिवार में हुआ. उन्हें याद करने की वजह है उनकी पुण्यतिथि. 5 अप्रैल को उनका निधन हुआ था. आज भी यूरोप के चर्च 5 अप्रैल को उनकी याद में फीस्ट डे के तौर पर मनाते हैं. भारत में भी रमाबाई का बनाया पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय है. ये अलग बात है कि इतिहास के पन्नों में उन्हें लेकर वैसा बखान नहीं है जैसा होना चाहिए.
रमाबाई की कहानी एक हिंदू ब्राह्मण परिवार से शुरू होकर ईसाई धर्म अपनाने तक जाती है. इस बीच उन्होंने कई तरह के संघर्ष किए और बदलाव की पुरोधा बनीं इसके लिए विवेकानंद से बैर लेने में भी वह पीछे नहीं रहीं.
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मिली पंडित और सरस्वती की उपाधि
रमाबाई के पिता अनंत शास्त्री डोंगरे संस्कृत के विद्वान थे. उन्होंने ही रमा बाई को भी संस्कृत की पढ़ाई कराई. रमाबाई ने बचपन में ही संस्कृत के 20 हजार से ज्यादा श्लोक कंठस्थ कर लिए थे. वह व्याख्यान देने में माहिर थीं. यही वजह थी कि उन्हें सरस्वती और पंडित जैसी उपाधि दी गईं. विडंबना यह रही कि यह उपाधि जिस समाज ने दी उसी ने छीन भी ली क्योंकि रमाबाई ने महिलाओं के हक की बात करना शुरू कर दिया और हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं पर वह सवाल उठाने लगीं.
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उस दौर में किया अंतरजातीय विवाह
रमा बाई ने बचपन में ही अपने मां-बाप को खो दिया था. इसके बाद वो पूरे देश में घूमती और व्याख्यान देती रहीं. 22 की उम्र तक रमाबाई संस्कृत की प्रकांड विद्वान बन चुकी थीं. सन् 1880 में उन्होंने गैर ब्राह्मण बंगाली वकील विपिन बिहारी से शादी कर ली. इस अंतरजातीय विवाह को लेकर उन्हें खूब विरोध झेलना पड़ा. उनकी पंडित और विद्वान व सरस्वती जैसी उपाधि भी छीन ली गई. शादी के दो साल बाद ही उनके पति का निधन हो गया. इस बीच रमाबाई एक बेटी की मां बन गई थीं.
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इंग्लैंड जाकर ईसाई बन गईं
1883 में रमाबाई इंग्लैंड चली गईं. यहीं उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया. इस दौरान जब स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में पहुंचे और उन्होंने हिंदू धर्म के महान पक्ष को दिखाते हुए अमेरिका में लेक्चर दिया तो रमाबाई की अगुवाई में कई महिलाओं ने विवेकानंद का विरोध किया और सवाल किए कि अगर उनका धर्म इतना महान है तो उनके देश में महिलाओं की इतनी खराब हालत क्यों है.
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Ramabai: पहली महिला जिसे मिली 'पंडित' की उपाधि, हिंदू धर्म छोड़कर बन गई थीं ईसाई