डीएनए हिंदी. भारतीय इतिहास और महिला अधिकारों के लिए सावित्रीबाई फुले एक जरूरी नाम है, जिसे नज़रअंदाज करना अपने साथ ही नाइंसाफी होगी. जानते हैं क्यों है ये नाम जरूरी और इतिहास का कौन-सा अध्याय इस नाम के बिना अधूरा है-

सावित्रीबाई फूले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था. महज नौ साल की उम्र में उनकी शादी 13 साल के ज्योतिबा फुले से हो गई थी. ज्योतिबा भी शिक्षा और महिलाओं को बराबरी का हक देने की हिमायत करने वाले व्यक्ति थे. उस वक्त शायद ही किसी ने सोचा होगा कि दो बालकों का ये विवाह भारतीय इतिहास का एक क्रांतिकारी अध्याय साबित होगा.

17 साल की उम्र में बनीं स्कूल टीचर
सावित्री और ज्योतिबा ने साथ मिलकर जब शिक्षा के लिए काम करना शुरू किया तो मिसाल कायम की. ज्योतिबा की मदद से सावित्री ने पाश्चात्य शिक्षा हासिल की. 17 साल की उम्र में ही ज्योतिबा के खोले गए लड़कियों के स्कूल की शिक्षिका और प्रिंसिपल बनीं. उस वक्त इस स्कूल में सिर्फ नौ लोग थे. अपने समाज कल्याण और स्त्री अधिकारों से जुड़े कार्यों की वजह से सावित्रीबाई और ज्योतिबा फूले को घर भी छोड़ना पड़ा था, क्योंकि उनके ससुर उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों से नाराज थे. 

देश भर में शुरू किए 18 स्कूल
घर तो छोड़ दिया, लेकिन फुले दंपत्ति ने अपने समाज कल्याण से जुड़े कार्य नहीं छोड़े. उनकी मेहनत का ही नतीजा रहा कि देश भर में इस दंपत्ति ने 18 स्कूल बनाए. 1851 के अंत तक फुले दंपत्ति पुणे में तीन स्कूल चला रहे थे, जिसमें 150 लड़कियां थीं. यह उस समय के लिहाज से काफी बड़ी बात थी. 

लोग फेंकते थे कीचड़ और पत्थर
बताया जाता है कि सावित्रीबाई स्कूल जाते वक्त अपने साथ एक एक्सट्रा साड़ी रखती थी, क्योंकि जो कपड़े पहनकर वो घर से निकलती थीं उन पर रास्ते में उन्हें देखने वाले लोग कीचड़ और पत्थर फेंकते थे. उन्हें गालियां तक देते थे. महिला शिक्षा के बारे में बात करने और उसके लिए काम करने की वजह से उन्हें तरह-तरह के विरोध का सामना करना पड़ा था. यही नहीं सावित्रीबाई ने रेप पीड़ित गर्भवती महिलाओं के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना भी की. यहां वह रेप पीड़ित गर्भवती महिलाओं के प्रसव में मदद करती थीं. सावित्रीबाई को कविता लिखने का भी बहुत शौक था. उन्होंने कन्या शिक्षा और छुआछूत जैसे मुद्दों पर जागरुकता लाने के लिए कविताएं लिखीं. उनकी किताब काव्य फुले सन् 1854 में प्रकाशित हुई थी. 

प्लेग की बीमारी से हुआ निधन
फुले दंपत्ति ने एक विधवा ब्राह्मिण महिला के बेटे को गोद लिया था. उन्होंने बेटे का नाम रखा यशवंत राव फुले. बाद में मेडिकल की पढ़ाई करके वह डॉ. यशवंत राव फुले के नाम से जाने गए. सन् 1897 में जब प्लेग की महामारी फैली तब फुले और उनके बेटे ने एक क्लीनिक की स्थापना कर लोगों की मदद की. सावित्रीबाई की भी प्लेग से ही मौत हुई क्योंकि वह प्लेग से पीड़ित एक व्यक्ति को अपनी पीठ पर लादकर अस्पताल ले गई थीं. 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई का निधन हो गया. वह भारत की पहली महिला अध्यापिका और पहली महिला शिक्षाविद थीं. 

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सावित्रीबाई फुले - पढ़िए देश की पहली महिला टीचर की कहानी
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