- डॉ विशाल विक्रम सिंह
आधुनिक शिक्षा और संस्कार ने सामान्य पाठकों और विद्यार्थियों को अपनी मध्यकालीन समृद्ध साहित्यिक विरासत से दूर कर दिया है. राजपाल एंड सन्ज़ की मध्यकालीन साहित्य के अध्येता माधव हाड़ा के संपादन में प्रकाशित पुस्तक शृंखला ‘कालजयी कवि और उनका काव्य’ विद्यार्थियों और सामान्य पाठकों को अपनी परंपरा और विरासत से परिचित करवाएगी. शृंखला के पहले पहले चरण में चार कवियों-अमीर ख़ुसरो, मीरां, तुलसीदास और सूरदास की चयनित रचनाएं, इन कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व के परिचयात्मक भूमिका के साथ प्रकाशित की गयी हैं. राजपाल एंड सन्ज़ पहले भी उर्दू की कालजयी शायरी और कथा साहित्य के क्षेत्र में इस तरह की अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक शृंखलाओं का प्रकाशन कर चुका है जो आधी सदी से भी अधिक समय हो जाने पर भी लोकप्रिय बनी हुई हैं.
अमीर ख़ुसरो
शृंखला की पुस्तक ‘अमीर ख़ुसरो’में ख़ुसरो के विशाल साहित्य भण्डार से चुनकर प्रतिनिधि हिंदवी पहेलियां, मुकरियां, निस्बतें, अनमेलियां, दो सुखन और गीत दिए गए हैं, जो पाठकों को ख़ुसरो के साहित्य का आस्वाद दे सकेंगे. ख़ुसरो हिन्दीके प्रारम्भिक कवियों में माने जाते हैं. बहुमुखी प्रतिभा के धनी खुसरो नेअरबी, फ़ारसी और तुर्की में भी विपुल मात्रा में लेखन किया. अपने को ‘हिन्दुस्तान की तूती’ कहने वाले ख़ुसरो पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ’हिन्दवी’ का प्रयोग किया. भारतीय जनजीवन और लोक की गहरी समझ और उसके प्रतिप्रेम ख़ुसरो के साहित्य की बड़ी विशेषता है. यही कारण है कि लंबा समयव्यतीत हो जाने पर भी उनकी रचनाएँ आज भी भारतीय जनमानस में लोकप्रिय हैं. सल्तनतकाल के अनेक शासकों के राज्याश्रय में रहे ख़ुसरो उदार सोच रखते थेऔर उनमें धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता बिलकुल नहीं थी.
मीरां
शृंखला की पुस्तक ‘मीरां’ में मीरां के विशाल काव्य संग्रह से चुनकर प्रेम, भक्ति, संघर्ष और जीवन विषय पर पद प्रस्तुत किये गये हैं. इनमें मीरां के कविता के प्रतिनिधि रंगों को अपने सर्वोत्तम रूप में देखा-परखा जा सकता है. मीरां भक्तिकाल की सबसे प्रखर स्त्री-स्वर हैं और हिन्दी की पहली बड़ी स्त्री कवयित्री के रूप में विख्यात हैं. उनकी कविता की भाषा अन्य संत-कवियों से भिन्न हैऔर एक तरह से स्त्रियों की ख़ास भाषा है, जिसमें वह अपनी स्त्री लैंगिक औरदैनंदिन जीवन की वस्तुओं को प्रतीकों के रूप में चुनती हैं. वे संसार-विरक्त स्त्री नहीं थीं, इसलिए उनकी अभिव्यक्ति और भाषा में लोक अत्यंत सघन और व्यापक है. उनकी कविता इतनी समावेशी, लचीली और उदार है कि सदियों से लोग इसे अपना मान कर इसमें अपनी भावना और कामना को जोड़ते आए हैं. मीरां के पद राजस्थानी, गुजराती और ब्रजभाषा में मिलते हैं.
सूरदास
इसी तरह पुस्तक ‘सूरदास’ में सूरदास की प्रतिनिधि रचनाएं भूमिका सहित संकलित हैं. सूरदास वात्सल्य रस के महाकवि माने जाते हैं. निःसंदेह वात्सल्य में उनसे बड़ा कवि कोई नहीं हुआ. भक्तिकाल के इस महान् कवि द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में उनके कवित्व का वैभव मिलता है. भावों की सघनता के कारण पूरे भक्तिकाल में सूरदासकी कविता के जैसा वैविध्य अन्यत्र दुर्लभ है. मध्यकाल में ब्रजभाषा जिस शिखर तक पहुंची, इसमें सूरदास की कविता का बड़ा योगदान है. जनश्रुतियों के अनुसार सूरदास जन्मांध थे, किन्तु उनकी कविता का वैभव और जीवन सौंदर्य का विविधवर्णी चित्रण बताता है कि संभवतः वे जीवन के उत्तरार्ध में कभी नेत्रहीन हो गए हों. सूरदास अपनी कविताओं में भक्ति के विनय और सख्य रूपों के श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं. प्रस्तुत चयन में सूरदास के काव्यसंसार से विनय, वात्सल्य और वियोग में उनकी श्रेष्ठ रचनाओं का चयन प्रस्तुतकिया गया है.
तुलसीदास
इसी शृंखला की पुस्तक ‘तुलसीदास’ में रामायण को लोकभाषा में लिखकर साधारण जनमानस के हृदय में स्थान बनाने वाले तुलसीदास की लोकप्रिय और प्रसिद्ध रचनाएं संकलित हैं. तुलसी अपनी अद्भुत मेधा और काव्य प्रतिभा के लिए भक्तिकाल के सबसे बड़ेकवि माने गए. उन्होंने परम्परा के दायरे में रहकर अपने समय और समाज के लिए उचित भक्ति पद्धति और दर्शन का विकास किया, जिसमें समन्वय की अपार चेष्टा थी. अपने समय के विभिन्न मत-मतान्तरों के संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता का उन्होंने अपनी रचनाओं में शमन और परिहार किया. प्रस्तुत चयन में तुलसीदास के यश का आधार मानी जाने वाली कृतियों- ‘रामचरितमानस’, ‘विनय पत्रिका’, ‘कवितावली’, ‘गीतावली’, ‘दोहावली’ और ‘बरवै रामायण’ से चुनकर उनके श्रेष्ठकाव्य को प्रस्तुत किया गया है. इनमें तुलसीदास की काव्य कला की विशेषताओं को देखा जा सकता है, जहां कविता लोकप्रिय होकर जनसामान्य का कंठहार बनी और शास्त्र की कसौटी पर भी खरी उतरी.
शृंखला के सभी पुस्तकों में संपादक माधव हाड़ा द्वारा लिखित सारगर्भित भूमिकाएं दी गयी हैं, जो कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व से संबंधित अद्यतन शोध पर आधारित हैं और यह उनकी कविता के कई अनछुए पहलुओं पर रोशनी डालती है. डॉ हाड़ा ने मध्यकाल के साहित्य को जिस नई सूझबूझ से प्रस्तुत किया है वह इस साहित्य में नई पीढ़ी की रुचि को जगाएगा. मध्यकालीन साहित्य के पढने - समझने में सबसे बड़ी बाधा इसकी भाषा है. जनसाधारण इसकी भाषा नहीं समझता. शृंखला की ख़ास बात यह यह भी है कि इसमें साधारण पाठकों को ध्यान में रखकर मध्यकालीन भाषाओं के कठिन और अप्रचलित शब्दों के अर्थ भी दिए गये हैं. हमारा जनसाधारण और उसमें भी ख़ासतौर पर युवा वर्ग हमारी समृद्ध मध्यकालीन साहित्यिक विरासत से परिचित हो, इसके लिए इस तरह की शृंखला की बहुत ज़रूरत है, इसलिए इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
डॉ विशाल विक्रम सिंह
हिन्दी विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
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