डीएनए हिंदी : उस शख्स को पता भी नहीं था कि उसकी बांह में गोली लगी है. पता तब चला जब वे कृशकाय हो गए, बिल्कुल दुबले-पतले. जब बुढ़ापे में हड्डियों का ढांचा हो चुका था उनका शरीर, तो उनकी बांह में सूजन के साथ दर्द हुआ. उन्हें लगा कि यह दर्द बुढ़ापे का असर है, उन्होंने नजरअंदाज किया. मगर कुछ ही दिनों में उनकी बांह में फंसी गोली धीरे-धीरे बाहर आने लगी. वह यह देखकर डर गए. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि हड्डी से क्या निकल रहा है. उन्हें तब भी अहसास नहीं था कि बाहर निकल रही चीज गोली है.
जी हां, हम बात कर रहे हैं आजाद भारत में हुए जलियांवाला बाग जैसे गोलीकांड की. यह गोलीकांड 1 जनवरी 1948 में खरसावां में हुआ था. तकरीबन 2000 लोग मारे गए थे. खरसावां गोलीकांड का एक शिकार साधु चरण बिरूआ भी हुए थे. मौत उनके बिल्कुल करीब से निकल गई थी. इस जुल्म के 55 बरस बाद यानी 2003 में झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा ने खरसावां गोलीकांड के शिकार लोगों की तलाश शुरू की. ऐसे में उनकी मुलाकात दशरथ माझी और साधु चरण बिरूआ से हुई. ये दोनों उड़िसा मिलिट्री पुलिस की गोलियों का शिकार हुए थे.
अंतड़ियों में लगी थी गोली
दशरथ माझी ने बताया कि अंतड़ी में गोली लगने के बाद एक पेड़ की ओट में लाश की तरह जमीन पर लेटकर उन्होंने अपनी जान बचाई थी. उनके पेट से लगातार खून बह रहा था. चलना संभव नहीं था. तब पुलिस ने उन्हें घसीटते हुए खरसावां थाना लेकर गई थी. वहां से उन्हें सरायकेला अस्पताल भेजा गया था. सरायकेला में पूरा इलाज नहीं हो सका तो उन्हें कटक भेजा गया. तीन महीने तक वहां इलाज चला. फिर ठीक होने के बाद वे घर लौटे.
7 पुलिसवालों का कहर
साधु चरण बिरूआ ने भी बहुत विस्तार से उस जुल्म का आंखों देखा हाल अनुज कुमार सिन्हा को बताया. साधु के मुताबिक, वह दिन गुरुवार था. इस दिन खरसावां में जबर्दस्त भीड़ थी. लोगों को गिनना मुश्किल था. बाढ़ के पानी की तरह लोग शहर में घुसते जा रहे थे. मुझे नहीं पता था कहां जाना है, पर भीड़ के साथ बढ़ते जा रहे थे. अचानक उड़िसा पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी थी. मैंने देखा 7 पुलिसवाले मशीनगन से भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चला रहे थे. लोग पटापट जमीन पर गिरने लगे. खून ही खून था चारों तरफ. मैंने देखा कि मेरे पास ही आम का एक पेड़ है. बस, वहीं चुपचाप मैं लेट गया. मेरे आसपास चारों तरफ गिरे हुए लोग थे. सबके शरीर से खून बह रहा था, कोई कराह रहा था, तो कोई तड़प रहा था. कई लोग तड़प-तड़पकर बिल्कुल शांत हो चुके थे. एकदम बेजान.
मैं दम साधे लेटा रहा
मैं बिल्कुल दम साधे लेटा रहा. जब तक लेटा रहा मुझे एक भी गोली नहीं लगी थी. आसपास कई लोग अब भी लेटे पड़े थे. समझना मुश्किल था कि कौन जिंदा है, कौन मरा. मेरी वह थैली मेरे से कुछ दूर गिरी पड़ी थी, जिसमें मेरे कुछ पैसे थे. जब फायरिंग की आवाज आनी बंद हो गई तो मैं उठकर अपनी थैली की ओर बढ़ा. अभी थैली उठाने को झुका ही था कि फिर से फायरिंग शुरू हो गई. फिर से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं. ठीक इसी समय मुझे भी गोली लगी. एक गोली मेरी हथेली में लगी थी, मेरी एक अंगुली गोली से उड़ गई थी. मेरा दाहिना हाथ काम करना बंद कर चुका था. दर्द इतना था कि कह नहीं सकता. मैं अर्द्धमूर्च्छित हालत में था.
बदहवास सा उठकर भागा
पता नहीं कितनी देर बाद, लेकिन गोलियों की आवाज आनी बंद हो गई थी. मैं बदहवास सा उठकर वहां से भागा. जमशेदपुर में अपना इलाज करवाया. इस इलाज से मेरी जान तो बच गई, स्वस्थ भी हो गया. पर मैं विकलांग हो चुका था. तब मेरी शादी नहीं हुई थी. हम संयुक्त परिवार में रहते थे. मेरी देखभाल मेरे घर के लोग करते रहे. इस कांड के 8 साल बाद यानी 1954 में मेरी शादी सूत्री बिरूआ से हुई.
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दर्द को किया नजरअंदाज
शादी के बाद सूत्री ने सारी जिम्मेवारी संभाल ली. मेरी देखभाल करने लगी. मेरे बच्चों की परवरिश की. फिर वक्त के साथ मेरे बच्चे जवान हुए और हम पति-पत्नी बुढ़ापे की ओर बढ़ चले. इस बीच 2002 के किसी महीने में मेरी दाहिने हाथ में बहुत तीखा दर्द हुआ. मुझे लगा कि यह बुढ़ापे का असर है. इस उम्र में मैं बहुत पतला-दुबला हो चुका था. ऐसा कि शरीर की हड्डियां दिखने लगी थीं. पर मैंने इस दर्द को नजरअंदाज किया.
बांह में आई सूजन
लेकिन कुछ रोज बाद मेरे दाहिने हाथ की बांह के पास की हड्डी निकलने लगी. वहां सूजन भी था. मेरी बांह के पास चमड़े के अंदर गूमड़ जैसा कुछ उठा सा दिखने लगा. मैं डर गया कि इस बुढ़ापे में हड्डी का यह रोग कैसा है. दर्द भी रहने लगा था. मेरे बच्चे मुझे लेकर जमशेदपुर के एक डॉक्टर के पास गए. डॉक्टर ने जांच की और एक्स-रे कराया. रिपोर्ट में बिल्कुल चौंका देने वाला खुलासा हुआ.
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बांह में गोली फंसी थी
डॉक्टर ने रिपोर्ट देखकर बताया कि यह जो सूजा हुआ हिस्सा है वह हड्डी नहीं है, बल्कि वहां गोली फंसी है. तब समझ में आया कि 1 जनवरी 1948 को पुलिस की चली गोली ने मेरी बांह पर कब्जा कर रखा है. और लगभग 54 साल से मेरी हड्डी में घुसकर छुपा बैठा है. इसके बाद 13 अगस्त 2002 को डॉक्टर ने ऑपरेशन कर बांह में फंसी गोली निकाल दी. यानी 1 जनवरी 1948 को मिले जख्म से मुझे 54 साल 7 महीने 12 दिन बाद छुटकारा मिला. यह अलग बात है कि दिल और दिमाग पर उस गुरुवार का जो जख्म बना हुआ है वह तो मेरी मौत के साथ ही मेरे साथ जाएगा.
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आजाद भारत का जलियांवाला बाग: 1 जनवरी 1948 को चली गोली ने 54 बरस बाद दिखाया असर