Nepal Pro-Monarchy Protests: नेपाल में महज 17 साल में जनता का लोकतंत्र से मोहभंग हो गया है. लोकतंत्र हटाकर राजशाही लौटाने और देश को फिर से हिंदू राज्य घोषित करने की मांग हो रही है. देश के कई हिस्सों में राजा ज्ञानेंद्र सिंह शाह को सत्ता सौंपे जाने की मांग के समर्थन में लोग सड़कों पर हैं. हैरानी की बात ये है कि 17 साल पहले जिस हिंसा के जरिये नेपाल में राजा को गद्दी से हटाकर लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित किया गया था, अब लोग उसी हिंसा के जरिये राजा को दोबारा गद्दी सौंपने पर उतर आए हैं. शुक्रवार को भी नेपाल में कई जगह हिंसक प्रदर्शन हुआ है. खासतौर पर नेपाल की राजधानी काठमांडू में राजशाही समर्थकों ने सड़कों पर उतरकर जोरदार प्रदर्शन किया है. इस दौरान पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच तीखी झड़प भी हुई है. इसके बाद काठमांडू के कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया है. इससे अब ये सवाल उठने लगा है कि आखिर महज 17 साल में ही जनता लोकतंत्र के बजाय फिर से राजशाही क्यों मांग रही है? क्या 17 साल में स्थिर लोकतांत्रिक सरकार देने में राजनेताओं की असफलता इसका कारण है या फिर सच में लोकतांत्रिक सरकार में 'भ्रष्टाचार' इतना ज्यादा हो गया है कि जनता उससे इतनी जल्दी आजिज आ गई है?
चलिए हम 5 पॉइंट्स में इन सवालों के जवाब बताते हैं-
1- प्रदर्शनकारियों ने काठमांडू में इमारत में लगाई आग, एक सप्ताह का अल्टीमेटम दिया
नेपाल में राजशाही के समर्थन में हुए प्रदर्शन में 40 से ज्यादा नेपाली संगठन शामिल होने का दावा किया जा रहा है, जो देश की लोकतांत्रिक सरकार और राजनीतिक दलों पर 'भ्रष्टाचारी' होने का आरोप लगाते हुए दोबारा सत्ता की बागडोर राजा के हाथ में सौंपने की मांग कर रहे हैं. नेपाल पुलिस ने शुक्रवार को प्रदर्शन कर रही भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोलों और पानी की बौछार का इस्तेमाल किया, जिससे लोग भड़क गए. भड़की हुई जनता ने काठमांडू के तिनकुने में एक इमारत में तोड़फोड़ करने के बाद आग लगा दी है और पुलिस पर भी पथराव किया है. इस दौरान एक युवक के घायल होने की खबर है. काठमांडू की सड़कों पर प्रदर्शनकारियों की तरफ से फेंके गए ईंट-पत्थर ही नजर आ रहे हैं. 'राजा आओ, देश बचाओ' जैसे नारे लगा रहे प्रदर्शनकारियों ने नेपाल सरकार को अपनी मांगें मानने के लिए एक सप्ताह का समय दिया है. इसके बाद उन्होंने और ज्यादा उग्र प्रदर्शन करने का ऐलान किया है.
2- नेपाल में 2008 में घोषित किया गया था लोकतांत्रिक गणराज्य
नेपाल में साल 1990 में पहली बार लोकतंत्र स्थापित हुआ था, जिसे तत्कालीन राजा बीरेंद्र बिक्रम शाह ने स्वीकार कर लिया था. तब नेपाल में ब्रिटेन की तर्ज वाला लोकतंत्र स्वीकार किया गया था, जिसमें सत्ता का सर्वोच्च शिखर राजा ही थे और उनके आदेश के दायरे में लोकतांत्रिक सरकार चुनी जानी थी. हालांकि इसके बाद भी पूर्ण लोकतंत्र की मांग को लेकर आंदोलन और हिंसा होती रही. खासतौर पर माओवादी संगठनों ने नेपाल में बड़े पैमाने पर हिंसा को अंजाम दिया. साल 2001 में राजा बीरेंद्र की हत्या के बाद गद्दी पर राजा ज्ञानेंद्र के बैठने के बाद यह हिंसा और ज्यादा जोर पकड़ गई, जिसे दबाने के लिए राजा ने भी सेना के जरिये हिंसा की राह अपनाई. इससे नेपाल में जमकर टकराव देखने को मिला.
राजा ज्ञानेंद्र ने लोकतांत्रिक सरकार को मानने से इंकार करते हुए संसद भंग कर दी थी. इसके बाद नेपाल में साल 2006 में पूर्ण लोकतंत्र के लिए सभी राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर आंदोलन शुरू किया, जिसे जनता का भी समर्थन मिला. इसके बाद दबाव में आए राजा ज्ञानेंद्र ने अंतरिम सरकार बनाने की इजाजत दी. अंतरिम सरकार ने संसद में प्रस्ताव लाकर राजा के अधिकार छीने, जिसके बाद उन्हें महल छोड़ने के लिए भी मजबूर होना पड़ा, जो अब म्यूजियम बना दिया गया है. इसके बाद 28 मई, 2008 का दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज हुआ, जब नेपाली संसद ने 240 साल पुरानी राजशाही को 'बाय-बाय' कहते हुए देश को हिंदू देश के बजाय धर्मनिरपेक्ष संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया था. लेकिन अब जनता का महज 17 साल में इस लोकतंत्र से मोह भंग हो गया है.
VIDEO | Nepal: Clashes erupt between security and pro monarchy activists in Kathmandu demanding restoration of monarchy and Hindu Kingdom status.
— Press Trust of India (@PTI_News) March 28, 2025
(Source: Third Party)
(Full video available on PTI Videos - https://t.co/n147TvrpG7) pic.twitter.com/4ffcGas6kr
3- महज 17 साल में क्यों भंग हो गया लोकतंत्र से मोह
नेपाल में महज 17 साल में जनता के लोकतंत्र से मोहभंग होने का बड़ा कारण राजनीतिक दलों का 'स्थिर सरकार' नहीं दे पाना माना जा रहा है. नेपाल में 1990 में लोकतंत्र की स्थापना के बाद 35 साल में 36 सरकारें बदली हैं. साल 2008 में पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना के बाद भी 17 साल के दौरान देश को 14 सरकारें देखने के लिए मिल चुकी हैं. इस दौरान 2 बार संविधान भी बदला जा चुका है. इससे लोगों का राजनीतिक दलों पर भरोसा कम हुआ है. माना जा रहा है कि जनता के सामने इसके चलते राजनीतिक दलों की इमेज 'जनहित नहीं स्वहित' साधने वाली बन गई है. लोगों का आरोप है कि इस दौरान नेपाल में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है. लोगों को छोटे-छोटे काम कराने के लिए भी भ्रष्टाचार से जूझना पड़ रहा है. इसी कारण आम जनता लोकतंत्र के बजाय राजा की सत्ता में वापसी की मांग कर रही है.
4- नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र की जनता के बीच वापसी
नेपाल में जनता के बीच लगातार उपज रहे असंतोष को देखते हुए पूर्व राजा ज्ञानेंद्र ने वापस काठमांडू लौटने की घोषणा की. राजा ज्ञानेंद्र ने 19 फरवरी को प्रजातंत्र दिवस पर लोगों से समर्थन मांगा, जिसके बाद उनके पक्ष में बड़े पैमाने पर आम जनता जुट गई. राजा ज्ञानेंद्र 9 मार्च को पोखरा से काठमांडू लौटे और उसके बाद से ही जनता देश में 'राजा लाओ, देश बचाओ' की मांग लेकर सड़कों पर उतरी हुई है. यह आंदोलन लगातार हिंसक होता जा रहा है.
5- नेपाली राजनीतिक दलों के भारत से दूरी बढ़ाने का कितना हाथ?
नेपाल भले ही अलग देश हो, लेकिन उसका नाता भारत के साथ हजारों साल से छोटे भाई-बड़े भाई जैसा रहा है. नेपाल और भारतीय जनता के बीच 'रोटी-बेटी' का नाता आज भी सीमावर्ती इलाकों में देखा जाता है. नेपाल अधिकतर सामान के लिए भारत पर निर्भर रहता है. इसको ऐसे समझ सकते हैं कि साल 2015 में नेपाल ने संविधान संशोधित करते हुए भारत विरोधी बातें उसमें शामिल की थीं. इसके बाद भारत ने उससे संपर्क काटा तो नेपाली जनता को 'इकोनॉमिकल ब्लॉकेड' का सामना करना पड़ा, जिससे वहां जरूरत के मामूली सामान की भी किल्लत हो गई थी. भारत पर इस निर्भरता के बावजूद नेपाली राजनीतिक दलों ने लगातार उससे दूरी बढ़ाई है और चीन के साथ नजदीकी रिश्ते बनाने की कोशिश की है. इसका असर भारत और नेपाल की जनता के रिश्तों पर भी पड़ा है.
भारत और नेपाल के बीच उत्तराखंड के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधारा इलाकों को लेकर भूमि विवाद 1947 से ही चल रहा है. इसके बावजूद यह विवाद कभी दोनों देशों के रिश्तों में खटास नहीं लाया, लेकिन साल 2018 में नेपाली सरकार ने जबरन अपना राजनीतिक नक्शा बदलते हुए इन इलाकों को नेपाल का हिस्सा दिखाया, जिससे भारत के साथ तनाव अपने चरम पर पहुंच चुका है. आम जनता में भारत के साथ लगातार बढ़ते तनाव से अपनी मुश्किलें बढ़ने के कारण भी वहां के राजनीतिक दलों से नाराजगी बढ़ी है.
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