डीएनए हिंदी: चुनाव की तैयारी में होने वाले खर्चों का बोझ उठाने के लिए राजनीतिक पार्टियां चंदा जुटाती हैं. यह चंदा कहां से इकठ्ठा होता है? यह सवाल आपके मन में भी उठता है तो बता दें कि यह चंदा संस्थाओं, संगठनों और जनता से इकट्ठा करती है. अब जानते हैं चुनावी बॉन्ड होता क्या है? चुनावों में राजनीतिक पार्टियों के चंदा जुटाने की प्रक्रिया को ट्रांसपेरेंट बनाने के उद्देश्य से चुनावी बॉन्ड यानी इलेक्टोरेल बॉन्ड की घोषणा की गई थी. चुनावी बॉन्ड एक ऐसा बॉन्ड है जिसमें एक करेंसी नोट लिखा रहता है. इस बॉन्ड में उसकी वैल्यू होती है. इस बॉन्ड का इस्तेमाल पैसा दान करने के लिए किया जाता है. इसकी कम से कम कीमत 1 हजार रुपये और अधिकतम 1 करोड़ रुपये होती है.
इस मूल्य में चुनावी बॉन्ड उपलब्ध होते हैं
- 1 हजार रुपये
- 10 हजार रुपये
- 1 लाख रुपये
- 10 लाख रुपये
राजनीतिक दलों को कैसे मिलता है चंदा ?
2017-18 में चुनावी बॉन्ड की शुरुआत साल की गई थी. सरकार ने इसकी शुरुआत फंडिंग व्यवस्था को ट्रांसपेरेंट बनाने के लिए किया था. हालांकि इसके बावजूद भी देश की बड़ी राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग में धांधली की खबरें आती रही हैं. इसे समझने के लिए पहले यह जानना बेहद जरूरी है कि राजनीतिक पार्टियों को कैसे चंदा मिलता है? चंदा जुटाने के कुल चार तरीके होते हैं.
- जनता के जरिए
- बड़ी कंपनियों या उनके मालिकों के जरिए
- विदेशी कंपनियों के जरिए
- पब्लिक और सरकारी चंदा भी जुटाया जा सकता है
किसी पार्टी को जनता कैसे को चंदा देती है?
किसी पार्टी को चंदा देने के लिए जनता चाहे तो कैश, पार्टी के अकाउंट में पैसा डालकर या चुनावी बॉन्ड के जरिए भी मदद कर सकती है.
बड़ी कंपनियां या उनके मालिक कैसे चंदा देते हैं?
बड़ी कंपनियां या उनके मालिक चुनावी ट्रस्ट या चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा देते हैं.
पब्लिक और सरकारी चंदे में क्या अंतर होता है?
डायरेक्ट पब्लिक फंडिंग: राजनीतिक दलों को चुनाव लड़वाने के लिए भारत सरकार सीधे पार्टियों को पैसा देती है.
इनडायरेक्ट पब्लिक फंडिंग: इस फंडिंग में पार्टियों को सरकारी मिडिया में प्रचार के लिए मुफ्त समय, रैली के लिए फ्री में स्टेडियम, मैदान, कॉन्फ्रेंस हॉल दिया जाता है.
कितना दिया जा सकता है चंदा?
कोई भी व्यक्ति 2000 रुपये तक ही कैश में चंदा दे सकता है. अगर कोई व्यक्ति 2 हजार रुपये से ज्यादा चंदा देता है तो उसे DD, चेक या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर और चुनावी बॉन्ड के जरिए ही दे सकता है. कोई व्यक्ति अगर 20 हजार रुपये से ज्यादा का चंदा देता है तो RPA 1951 के तहत् पार्टी को डोनर की जानकारी चुनाव आयोग को देना होगा. हालांकि अगर कोई व्यक्ति इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 20 हजार से ज्यादा का चंदा देता है तो ऐसी स्थिति में उसकी जानकारी गोपनीय रखी जाएगी.
राजनीतिक पार्टियां कैसे करती हैं धांधली?
इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह का बियरर चेक होता है. इस पर न तो बॉन्ड खरीदने वाले का नाम होता है और ना ही उस पार्टी का जिक्र होता है जिसे यह दिया जाता है. मान लीजिए किसी व्यक्ति ने किसी पार्टी को एक लाख रुपये कैश दिया है. ऐसे में पार्टियां इस चंदे को 2-2 हजार रुपये के रूप में अलग-अलग दिखा देती हैं जिससे चंदा देने वालों का नाम बताने की जरुरत नहीं पड़ती है. मतलब यह कि इस योजना से पार्टियां बड़ी ही आसानी से धांधली कर लेती हैं.
कहां मिलता है इलेक्टोरल बॉन्ड?
केंद्र सरकार जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10-10 दिन के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने का समय निर्धारित करती है. इसके लिए देश में SBI के 29 ब्रांच तय किए गए हैं जहां से कोई भी इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद सकता है. बता दें कि जारी होने के 15 दिनों के भीतर ही इलेक्टोरल बॉन्ड को भुनाया जा सकता है. 15 दिनों के बाद बॉन्ड को कैश करने पर यह PM केयर फंड में चला जाता है.
साल 2019-20 में इलेक्टोरल बॉन्ड से कितना चंदा मिला?
ADR की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में शीर्ष 5 राजनीतिक दलों में 70 से 80 प्रतिशत तक हिस्सा इलेक्टोरल बॉन्ड का होता है. साल 2019-20 में BJP को कुल 2,354 करोड़ रुपये का चंदा मिला था जिसमें से इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 1,450 करोड़ रुपये जुटाए गए थे. वहीं कांग्रेस ने भी 551 करोड़ रुपये का चंदा इकट्ठा किया था जिसमें से इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 383 करोड़ रुपये की फंडिंग हुई थी. BJD ने कुल 242 करोड़ रुपये जुटाए थे जिसमें से 213 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉन्ड से जुटाए गए थे. इधर TRS ने 182 करोड़ रुपये की फंडिंग जुटाई जिसमें से 141 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉन्ड से जुटाए गए थे. आखिर में VSR कांग्रेस ने 181 करोड़ रुपये जोड़े जिसमें से 99 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉन्ड से जुटाए गए.
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