वैसे तो ये अजीब सी बात है कि मनोज कुमार को उपकार, पूरब और पश्चिम या क्रान्ति जैसी फिल्मों से ना याद कर के गुमनाम से याद किया जाए लेकिन कई बार दीर्घ-संचित भावनाएं भारी पड़ जाती हैं. 

दरअसल मैं जिस जगह पर पला-बढ़ा वह भारत-नेपाल के बॉर्डर का इलाका था. टीवी तो थे लेकिन स्टेशन के नाम पर नेपाल ही आता था. शनिवार दोपहर को नेपाली दूरदर्शन से हिंदी फिल्में दिखाई जाती थीं. सिनेमा का बहुत ज्यादा एक्सपोजर भी नहीं था. हाँ, देखने में मजा बहुत आता था. दो बजे से फिल्म शुरू होती थी और ऐड ब्रेक के साथ लगभग साढ़े चार तक खत्म हो जाती थी. उसके बाद क्रिकेट खेलने का समय हो जाता था, और उसको छोड़ा नहीं जा सकता था. 

तो उन्हीं शनिवारों में से एक में गुमनाम आ रही थी. एक द्वीप पर कुछ लोग फंस जाते हैं और एक-एक कर हत्यायें होने लगती हैं. फिर उन सब की गुथ्थी सुलझाने की जिम्मेदारी आ जाती है इंस्पेक्टर आनंद (मनोज कुमार) पर. फिल्म तो 1965 की थी लेकिन मेरे देखने तक तीस साल निकल चुके थे.

गुमनाम है कोई गीत की हॉन्टिंग तर्ज बहुत दिनों तक मन पर छायी रही. एक और बात जो याद रह गयी वो थी डैशिंग इंस्पेक्टर आनंद. क्या पर्सनलिटी, क्या संवाद अदाएगी और क्या स्क्रीन मूवमेंट. हत्या की साजिश का पर्दाफाश तो हो ही जायेगा लेकिन करेगा यही इंस्पेक्टर. और किसी के बस की बात नहीं. 

सच वास् हिज औरा! 

आज वह अभिनेता चला गया लेकिन जब उसका ऐसा अद्भुत प्रभाव गुमनाम जैसी फिल्म से बन सकता था तो पूरब और पश्चिम और उपकार की बात ही क्या!

गुमनाम है कोई...

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गुमनाम के बहाने याद करना मनोज कुमार को...
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