रवींद्र सिंह रॉबिन
2022 विधानसभा चुनाव नतीजों का दिन अब नजदीक आ गया है. राजनीतिक पार्टियों की नजरें दल-बदलू नेताओं पर लगी है. इन दल-बदलू नेताओं के लिए लिए आदर्श और मूल्यों से ऊपर निजी स्वार्थ और राजनीतिक करियर होता है. अपना फायदा देखकर ऐसे नेता किसी भी दल के साथ लग सकते हैं. पंजाब में ऐसे दल-बदलू सरकर बनाने में इस बार बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.
2022 विधानसभा चुनावों से पहले न सिर्फ आम आदमी पार्टी ने कई बड़े नेताओं को दूसरी पार्टियों में जाते धेखा बल्कि दूसरी पार्टी में भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं. दल-बदल के लिए कमजोर कानून इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए काफी है. इस लिहाज से भारत को पड़ोसी देश पाकिस्तान से सीखना चाहिए. पाकिस्तान में दल-बदल को लेकर बेहद सख्त कानून है. पार्टी बदलने पर नेता को अपने पद से त्यागपत्र देना होता है और नई पार्टी के चुनाव चिह्न के साथ उप-चुनाव में उतरना पड़ता है.
पाकिस्तान में इस तरह के राजनेताओं के लिए एक 'अपमानजनक' शब्द 'लोटा' का प्रयोग किया जाता है. इन दल-बदलू नेताओं को बिन पेंदी का लोटा कहा जाता है. बार-बार पार्टी बदलने वाले नेता को यही शब्द कहकर बुलाया जाता है और आम लोगों के बीच यह शर्मिंदगी का सबब बनता है. दल-बदल का एक बड़ा हालिया उदाहरण बलविंदर सिंद लड्डी हैं. श्री हरगोबिंदपुर के विधायक ने विधानसभा चुनाव से पहले महज 2 महीने में कांग्रेस और बीजेपी के बीच में 3 बार पार्टी बदली है.
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28 दिसंबर 2021 को कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीतकर श्री हरगोबिंदपुर के एमएलए लड्डी ने पार्टी छोड़ी थी और बीजेपी में शामिल हुए थे. 3 जनवरी, 2022 को उन्होंने फिर से बीजेपी छोड़ दी और वापस कांग्रेस में चले गए. दल-बदल का यह सिलसिला थमा नहीं और 11 फरवरी को वापस बीजेपी में शामिल हो गए थे. कादियां से कांग्रेस विधायक फतेह सिंह बाजवा ने चुनाव से पहले बीजेपी का दामन थाम लिया था. बाजवा सांसद प्रताप सिंह बाजवा के छोटे भाई हैं.
राजनीति के जानकारों का मानना है कि दल-बदल पर सख्त कानूनों के अभाव में चुनाव नतीजों के बाद भी ऐसी घटनाएं होंगी. चुनाव जीतने वाले कुछ विधायकों का निजी हित के लिए एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आना-जाना होगा.
(लेखक रवींद्र सिंह रॉबिन वरिष्ठ पत्रकार हैं और जी मीडिया से जुड़े हैं.)
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