डीएनए हिंदी: उत्तर प्रदेश की सियासत में कभी सबसे मजबूत रही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) हाशिए पर जाती दिख रही है. बसपा सुप्रीमो मायावती की जमीनी पकड़ तब कमजोर पड़ने लगी जबसे साल 2012 में समाजवादी पार्टी (सपा) की सत्ता के खेवनहार अखिलेश यादव बने. यह वही साल था जब सपा को यूपी में बहुमत मिला और मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को यूपी की कमान सौंप दी.
अखिलेश यादव ने 15 मार्च 2012 को यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. उनका कार्यकाल 19 मार्च 2017 तक चला. यह कार्यकाल यूपी की सियासत में 'मायावती युग' के लिए अच्छा नहीं रहा. दरअसल साल 2012 में सपा ने यूपी में इतिहास रचा. बिना किसी पार्टी के सहयोग से सपा ने 224 सीटों पर जीत दर्ज की. बसपा 80 सीटों पर सिमट गई. हाशिए पर रहने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 47 सीटें हासिल कर ली थीं. वहीं कांग्रेस के हिस्से में 28 सीटें आईं थीं.
यह तब था जब मायावती 2007 में यूपी की सत्ता संभाल रही थीं. साल 2007 में हुए विधानसभा चुनावों में बसपा ने 403 में से सबसे ज्यादा 206, सपा ने 97, बीजेपी ने 51 और कांग्रेस ने 22 सीटें जीती थीं. राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) ने 17 सीटों पर जीत हासिल की थी. 10 सीटों पर अन्य दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों को जीत मिली थी.
2012 से ही जमीनी राजनीति से छूट रही है मायावती की पकड़
2017 के विधानसभा चुनावों में सारी राजनीतिक पार्टियों की राणनीति ध्वस्त हो गई थी. 5 साल के शासन व्यवस्था में ही अखिलेश शासन का अंत हो गया था. 2012 में 224 सीटों वाली सपा 47 सीटों पर सिमट गई. कांग्रेस के साथ हुआ सपा का गठबंधन फ्लॉप रहा. कांग्रेस दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सकी थी और महज 7 सीटों पर सिमट गई थी. बीजेपी ने 312 सीटें हालिस कर लीं. बसपा के खाते में आईं महज 19 सीटें. यह मायावती का सबसे खराब प्रदर्शन था.
2007 में 206, 2012 में 80, 2017 में 19 सीटों पर सिमटना यह स्पष्ट संकेत था कि मायावती का कोर दलित वोट बैंक खिसक रहा है. कारण कई थे. 2012 में अखिलेश यादव दलित, यादव और मुस्लिम समीकरणों को साधने में सफल हो गए थे. मायावती दलित वोटरों का समर्थन हासिल करने में असफल रही थीं. सवर्ण और ओबीसी समुदाय से भी मायावती को समर्थन नहीं मिला.
यूपी में दलित वोटरों की संख्या 20 से 21 फीसदी तक है. ओबीसी वोटर 42 से 45 फीसदी तक हैं. आंकड़ों पर गौर करें तो 2007 में 30.43 फीसदी दलित वोटर मायावती के साथ थे. 2012 में 25.9 फीसदी दलित वोटरों ने बसपा को वोट दिया. 2017 में बड़ी गिरावट आई और महज 23.0 प्रतिशत दलित वोटरों ने मायावती का साथ दिया. मायावती का गिरता जनाधार लगातार उनके लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है.
राजनतिक नब्ज पकड़ने में फेल हो रही हैं मायावती!
2019 के लोकसभा चुनावों में भले ही मायावती की पार्टी को 10 लोकसभा सीटों पर कामयाबी मिली हो लेकिन यह सच है कि ऐसा सिर्फ सपा के साथ गठबंधन की वजह से हुआ था. सपा की वजह से ओबीसी और मुस्लिम वोटर बसपा के साथ शिफ्ट तो हो गए लेकिन बसपा के कोर वोटर सपा के पक्ष में नहीं आए. यही वजह है कि खुद सपा 5 सीटों पर सिमट गई. मायावती यूपी में सबसे बड़ी राजनितिक चूक कर रही हैं. मायावती को दलित वर्ग का सबसे बड़ा नेता देश स्तर पर माना जाता है. दलित वोटरों में मायावती को लेकर क्रेज भी है. लेकिन राजनीतिक समीकरण सिर्फ एक वर्ग का ध्यान रखकर नहीं हासिल किया जाता. दूसरे वर्गों को लुभाने में मायावती फेल हो रही हैं.
सोशल मीडिया की सक्रियता वोटरों को नहीं लुभाती
मायावती की सक्रियता सोशल मीडिया तक सिमट गई है. प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव और ओवैसी जैसे नेता जहां कई स्तर की रैलियां करते नजर आ रही हैं वहीं मायावती रैलियों से दूर भागती नजर आ रही हैं. मायावती की सक्रियता सोशल मीडिया तक सिमट गई है. सत्तारूढ़ योगी सरकार के खिलाफ विपक्षी नेता जमीन पर उतर रहे हैं लेकिन मायावती सिर्फ सोशल मीडिया के जरिए ही अपनी राजनीति कर रही हैं. यह वोटरों की नाराजगी की एक बड़ी वजह बन सकती है. हाथरस और लखीमपुर खीरी कांड के दौरान देशभर के नेता इन जगहों पर पहुंच रहे थे, मायावती ने जाने के बारे में विचार तक नहीं किया.
चंद्रशेखर क्या बिगाड़ेंगे मायावती का खेल?
भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद युवाओं का युवाओं में क्रेज है. दलित युवा उन्हें हीरो के तौर पर देखते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनकी मजबूत पकड़ मानी जाती है. मायावती से नाराज दलित भी उनके साथ हैं. यही वजह है कि चंद्रशेखर आजाद को अपने साथ लाने की कोशिश में अखिलेश यादव जुटे हैं. अगर चंद्रशेखर आजाद का साथ अखिलेश यादव को मिल जाता है तो पहले से ही हाशिए पर जा रही बसपा को एक और बड़ा नुकसान हो सकता है. अगर ऐसा हुआ तो यूपी की सियासी लड़ाई सिर्फ बीजेपी और सपा में सिमट जाएगी और बसपा, कांग्रेस के साथ लड़ती नजर आएगी.
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