- देवेंद्र मेवाड़ी
हम अक्सर सोचते हैं- खीरा कड़वा यानी तीता क्यों होता है? जब हम यह सोचते हैं तो अपने मतलब से सोच रहे होते हैं, खीरे के मतलब से नहीं. प्रकृति ने जैसे हमें बनाया वैसे ही खीरे को भी बनाया. हम अपनी रक्षा कर लेते हैं लेकिन नाजुक बेल और उस पर लटके खीरे अपनी रक्षा कैसे करेंगे? उगने के बाद ही कीट-पतंगे उसके चक्कर लगाने लगते हैं कि चलो खीरा खाया जाए लेकिन, कड़वा लगते ही वे उसे खाना छोड़ देते हैं. आपने अक्सर उसकी पत्तियों पर नन्हीं बीटिल देखी होंगी. उन्हें छूट मिली हुई है. वे खीरे की पत्तियां चरती हैं और खुद कड़वी हो जाती हैं. उनके शिकारियों को सदियों के अनुभव के बाद पता लग चुका है कि ये खीरे की पत्तियां चरने वाली खूबसूरत बीटिलें बहुत कड़वी हैं. इसलिए इनका शिकार करना बेकार है.
लेकिन आदमी? आदमी ने भी पता लगा लिया कि इनमें कुछ खीरे बहुत कड़वे लेकिन कुछ मीठे और स्वादिष्ट होते हैं. उन्होंने चुन-चुन कर मीठे खीरे उगाने शुरू कर दिए. इस तरह खीरे की खाने लायक किस्में तैयार हो गईं. हालांकि इसके बावजूद अच्छी-भली बेल पर भी कई बार कुछ खीरे कड़वे निकल आते हैं. भला ऐसा क्यों?
क्यों कड़वा होता है खीरा?
खीरे की बेल का मिजाज बहुत नाजुक होते हैं. ज्यादती हुई नहीं कि वह अपने भीतर की कड़वाहट अपने फल यानी खीरे में भी भर देती है. यह कड़वाहट बेल में आती कहां से है? बेल को मां प्रकृति ने सुरक्षा के लिए कुकुरबिटेसिन रसायन की कड़वाहट दी है. यह रसायन जड़, तना और पत्तियों में अधिक होता है. तने के जिस डंठल से खीरा जुड़ा रहता है उसमें और उससे आगे खीरे के सिर के हिस्से में भी कुकुरबिटेसिन की कड़वाहट रहती है. यही वजह है कि चतुर सुजान कहते हैं कि खीरे को नीचे से ऊपर सिर की ओर को छीलना चाहिए और सिर की ओर का करीब एक इंच हिस्सा काट देना चाहिए.
वही बात हुई न जो सोलहवीं सदी में मुगल सम्राट अकबर के नवरत्न और विद्वान कवि अब्दुर्ररहीम खान-ए-खाना, मतलब रहीम लिख गए हैं-
खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय
रहिमन करुए मुखन को, चहियत यही सजाय.
कवि ने कड़वेपन का रहस्य समझ लिया था. वैज्ञानिकों ने जांच परख कर कुकुरबिटेसिन रसायन का पता लगा लिया. मगर प्यार से लगाई गई खीरे की बेल में खीरे कड़वे क्यों हो गए? सच मानिए प्यार में कहीं कमी रह गई. प्यार से बीज जरूर बोया गया और बेल को भी सहारा दिया गया लेकिन क्या देखभाल भी उतने ही प्यार से की गई? कहा ना, बहुत नाजुक मिजाज है खीरे की बेल. क्या जब भी उसे प्यास लगी, पानी पिलाया गया? क्या जिस जमीन में उसे रोपा गया, वह ठीक-ठाक थी? अगर बेल को बीच-बीच में प्यासा रहना पड़ा या सूखा पड़ गया या बेल के किसी हिस्से में चोट लग गई तो बेल में कड़वाहट पैदा हो जाती है इसलिए बेल पर धूप-छांव ठीक पड़े और उसे प्यास लगने पर पानी जरूर पिला दिया जाए.
समय पर सिंचाई जरूर करें लेकिन बाज़ार से ही खीरा खरीदते हैं तो रहीम की राय मानिए और खीरे का सिर करीब एक इंच काट दीजिए. उससे पहले नीचे से सिरे की ओर चाकू से छील दीजिए क्योंकि कड़वाहट पैदा करने वाला कुकुरबिटेसिन खीरे की बिलकुल बाहरी परत के नीचे की हरी परत में ही जमा होता है.
खीरा को कुकरबिट क्यों कहते हैं?
जानते हैं खीरा और इसके बिरादरों को कुकरबिट क्यों कहते हैं? क्योंकि पेड़-पौधों के वैज्ञानिक नाम लैटिन भाषा के आधार पर रखे जाते हैं और लैटिन भाषा में खीरे का नाम रखा गया 'कुकुमिस'. यह नाम खुद पौधों का नामकरण सुझाने वाले प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी कार्ल लिनेयस ने रखा है. पूरा नाम है- कुकमिस सैटाइवस. इसमें कुकमिस वंश का नाम है और सैटाइवस प्रजाति का. सैटाइवस का मतलब है जिसकी खेती की जा रही है लेकिन 300 साल पहले कुछ अंग्रेजों को यह नया फल शायद पसंद नहीं आया और उन्होंने इसे मखौल में ‘काउकुकुम्बर’ कहना शुरू कर दिया यानी गाय-खीरा! वे ‘काउकुकुम्बर ट्री’ कहते थे मैग्नोलिया के पेड़ को, जिसके फूलों से भीनी-भीनी खुशबू आती है लेकिन फल छोटे खीरे जैसे दिखाई देते हैं. और तो और प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक चार्ल्स डिकेंस तक ने खीरे को काउकुकुम्बर कहा. उन्हें क्या पता कि सन् 1492 में कोलंबस खीरे को हेटी, दक्षिण अमेरिका पहुंचा चुका था.
बहरहाल जिसने जो कहा, सो कहा लेकिन खीरा लोगों की पसंद बनता गया. इसकी जन्मभूमि में लोग सदियों से इसे प्यार से उगाते और खाते आ रहे हैं. हमारी और खीरे की जन्मभूमि एक ही है- हमारा प्यारा भारत देश. वैज्ञानिक कहते हैं- प्रकृति ने हिमालय के पहाड़ी इलाकों और बंगाल में इसे जन्म दिया. अन्यथा, इसके कई कुकरबिट बिरादर तो विदेशों में जन्मे जैसे कद्दू मध्य अमेरिका में, लौकी और तरबूज अफ्रीका में और खरबूजे का जन्म तो ईरान में हुआ. हां, करेला और तोरई (नैनुवा) का जन्म हमारे देश में ही हुआ. यहीं से यह पुर्तगालियों के साथ पुर्तगाल पहुंचा और फिर पूरे यूरोप में फैल गया. जानते हैं आज खीरा सबसे अधिक किस देश में खाया जाता है? हमारे पड़ोसी देश चीन में.
लोग अपने अनुभव से बताते हैं कि जिस खीरे पर कांटे जैसे निकले हों, वे मीठे होते हैं. आप भी आजमा कर देखिए. हमारे पहाड़ों में तो बेलन जैसे बड़े-बड़े खीरे होते हैं और लगभग सभी मीठे ही होते है. एक कहावत है पहाड़ों में कि खीरे की चोरी, चोरी नहीं होती! लोग कहते हैं-खीरा तो पानी है. पानी की भला क्या चोरी? इसलिए हमने भी बचपन में खीरे खूब चुराए. और सच कहूं, वे सभी मीठे निकले.
(देवेंद्र मेवाड़ी प्रसिद्ध वैज्ञानिक लेखक हैं. वह बच्चों के लिए भी खूब लिखते हैं. यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)
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