- कबीर संजय
...आनंद क्या है?
जाहिर है कि हर एक के लिए आनंद का अर्थ अलग-अलग है. किसी को किताब पढ़ने में आनंद मिलता है तो किसी को संगीत सुनने में. किसी को कसरत करने में आनंद है तो किसी को देश-दुनिया की सैर करने में. कोई-कोई तो ऐसा है कि दिन भर पक्षियों और तितलियों के पीछे भागता फिरता है. किसी-किसी को सेवा करने में भी सुख होता है. कोई-कोई भलाई के नशे में डूबा रहता है लेकिन इसी दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जिन्हें दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में आनंद मिलता है. किसी को कष्ट में देखकर वे सुखी होते हैं. इसी को सैडिस्टिक प्लेजर कहा जाता है.
जरा हम अपने आस-पास नजर घुमाएं. ऐसे तमाम लोग हमें नजदीक ही दिखाई पड़ेंगे. मुहावरे के तौर पर इसे इस्तेमाल किया जाता है कि लोग अपने सुख से उतना सुखी नहीं हैं, जितना दूसरे के सुख से दुखी है. जी हां, ऐसे लोग हैं. सोचिए अगर ऐसे सैडिस्टिक प्लेजर वाले लोग नहीं होते तो क्या होता. ऐसी फिल्में बनती हैं जिसमें एक आदमी ही दूसरे को मारकर खा जाता है. फिल्म सुपरहिट भी होती है. उसका सीक्वल भी बनता है. जुगुप्साजनक दृश्य, इंसान को पीड़ा पहुंचाने वाले दृश्य भरे पड़े होते हैं. यहां तक कि दृश्य की भीषणता व भयावहता भी किसी फिल्म की यूएसपी हो जाती है. लोग याद करते हैं कि उस फिल्म का सीन तो सबसे खौफनाक था. आखिर दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले ये दृश्य लोकप्रिय कैसे हो जाते हैं?
सैडिस्टिक प्लेजर का यही रूप हमें बलात्कारों और हत्याओं में भी देखने को मिलता है. आखिर कोई इंसान किसी को इतना कैसे पीड़ा पहुंचा सकता है? अपने आनंद के लिए वह किसी की जान भी ले सकता है. वह उसे जलाकर मार सकता है. याद कीजिए, कैसे शंभू दास रैगर नाम के एक आदमी ने किसी एक आदमी की हत्या और उसे जिंदा जलाया था. फिर उसी रैगर के समर्थन में लोग न्यायपालिका की छतों पर भी चढ़ गए.
क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि ऐसे सैडिस्टिक प्लेजर वाले लोगों की संख्या हमारे देश में बढ़ती जा रही है. दूसरों को परेशान करने में, प्रताड़ित करने में उन्हें सुख मिलता है. वे किसी के ट्वीट पर चढ़ जाते हैं. ट्रोल करने लगते हैं. अंड-बंड बकने लगते हैं. गाली-गलौज पर उतर आते हैं. मेरी कई पोस्ट पर वे खिसियाहट प्रगट करने न जाने कहां-कहां से आने लगते हैं. मैं उनकी फ्रेंड लिस्ट में शामिल भी नहीं होता. फिर भी उन्हें परपीड़ा का सुख इतना ज्यादा ललचाता है कि वे मेरी वॉल पर कमेंट करने के लोभ से बच नहीं पाते.
सवाल यह है कि परपीड़ा का यह सुख हमें कहां ले जाएगा? एक पूरा का पूरा समाज जो दूसरों की पीड़ा में ही सुख लेने लगे. सवाल इसी पर सोचने का है. किसी को पीड़ा पहुंचने पर अगर किसी को सुख मिलता है तो उसे अपने इंसान होने पर सोचने की जरूरत है. कुछ लोग अपने पड़ोसियों को यातना शिविरों में भेजे जाने की संभावना से ही खुश हैं. उनके मन में लड्डू फूट रहे हैं. जब लाखों लोग अपनी नागरिकता खोने की आशंका पर विरोध-प्रदर्शनों में जुटे हों तब वे पुलिस की लाठी और गोली का समर्थन कर रहे हैं.
ऐसी मरी हुई आत्माओं वाले तमाम लोग ही थे जो रोहिंग्या लोगों को जड़ साफ करने के अत्याचारपूर्ण कारनामों का समर्थन करते रहे हैं. जाहिर है कि उन्हें इसमें भी आनंद ही आया होगा. हिटलर द्वारा यहूदियों के लिए चलाए जाने वाले यातनाशिविरों को भी वे बड़े प्रसन्नपूर्ण कौतूहल से देखते हैं.
ऐसे तमाम लोगों से मेरी गुजारिश है कि नए साल में हो सके तो परपीड़ा का आनंद लेना छोड़ दीजिए. अपनी मरी हुई आत्मा को जिंदा करने का कुछ प्रयत्न कीजिए. और हो सके तो अपने देश और समाज में कुछ रचनात्मक जोड़िए.
(कबीर संजय पत्रकार हैं. पर्यावरण के चितेरे हैं. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)
(फीचर फोटो सुहैल मदन की है.)
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